उत्तरप्रदेश के सीतापुर जिले में ‘‘महमूदाबाद’’ नामक नगर है। वहाँ जैन समाज के एक श्रेष्ठी सुखपालदास जैन के घर में दो पुत्र और दो पुत्रियाँ हैं। उनमें से छोटी पुत्री मोहिनी के विवाह का दृश्य प्रस्तुत है- (बारातियों की धूम मची है, शोरगुल चल रहा है, विदाई की बेला निकट है।)
मोहिनी-(रोती हुई माँ के गले से लिपट जाती है) माँ! मुझे आशीर्वाद दीजिए कि मैं ससुराल में आपकी शिक्षाओं का पालन कर सवूँ। मुझे जल्दी-जल्दी बुला लेना माँ, यह अपना घर छोड़कर मैं पराये घर में कैसे रह पाऊँगी माँ।
माता मत्तोदेवी –(रोते हुए बेटी को समझाती है) नहीं बेटी मोहिनी! तुम अपना मन इतना छोटा न करो। तुम जहाँ जा रही हो, टिवैतनगर के उस परिवार में सभी बहुत अच्छे लोग हैं, वे सब तुम्हें बहुत अच्छी तरह से रखेंगे। (सिर पर हाथ फैरते हुए) मेरी बच्ची पर मुझे पूरा भरोसा है कि ससुराल में जाते ही वहाँ अपने मधुर व्यवहार से सबका मन मोह लेगी।
बेटी! तुम्हारा नाम ‘‘मोहिनी’’ है न, देखो मेरी ओर (बेटी का चेहरा अपने हाथों से ऊपर उठाकर) जैसा नाम-वैसा काम। ठीक है न, अब रोना नहीं है, वर्ना आंखें सूज जाएंगी और मेरी रानी सबको मुँह कैसे दिखाएगी। (कृत्रिम हंसी के साथ पुत्री को अपने से अलग कर विदा करने लगती है)
मोहिनी –(पास में खड़े पिताजी के चरण स्पर्श करती है) पिताजी! आप मुझे बहुत प्यार करते थे न, फिर क्यों मुझे अपने से दूर भेज रहे हैं? अब आपको जल्दी-जल्दी मेरे पास आना पड़ेगा। आएंगे न? बोलो।
पिता सुखपालदास – (रुंधे कंठ से) हाँ बेटी! क्यों नहीं? अपनी लाडली के पास तो मैं बहुत जल्दी-जल्दी आया करूँगा। क्या करूँ पुत्री! यह मेरी नहीं, हर माता-पिता की मजबूरी होती है कि बेटी को पराये घर भेजना और पराये घर की बेटी लाकर पुत्रवधू के रूप में अपने घर की शोभा बढ़ाना।
भाई महिपालदास – हाँ जीजी! यही इस सृष्टि की प्राचीन परम्परा है।
बड़ी बहन रामदुलारी – मोहिनी! देखो, मुझे भी तो तुम सभी ने मिलकर पराये घर भेजा था। अब मुझे वही ससुराल अपना घर लगता है और वहीं के सब लोग अपने माता-पिता, भाई-बहन के रूप में प्रिय लगते हैं। इसी तरह तुम भी थोड़े दिन में अपने घर में रम जाओगी।
मोहिनी –(आँसू पोंछती हुई) ठीक है, ठीक है। अब मैं आप सबसे विदा लेकर एक संस्कारित कन्या के रूप में ससुराल के प्रति अपने कर्तव्य को निभाऊँगी और हमेशा अपने पीहर का नाम ऊँचा रखूँगी। (पति के साथ जाते-जाते पुन: एक बार माता-पिता की ओर देखकर मोहिनी भावुक होती हुई) मोहिनी – पिताजी! माँ! मुझे और कोई शिक्षारूपी उपहार दीजिए ताकि मेरी भावी जिंदगी बिल्कुल धर्ममयी बने।
पिताजी – हॉँ हाँ, अच्छी याद दिलाई बेटी! अरे महिपाल की माँ! लाओ न वह शास्त्र, वह तो मैं देना ही भूल गया था। जल्दी लाओ, यही तो अमूल्य उपहार है एक पिता द्वारा अपनी पुत्री के लिए। (ग्रंथ देते हुए) ले बेटी! यह पद्मनंदिपंचविंशतिका ग्रंथ अपने घर में बड़े पुराने समय से पढ़ने की परम्परा रही है। इसका तुम भी रोज स्वाध्याय करना। बस, पुत्री! मेरा यही तेरे लिए अमूल्य उपहार है। (बेटी के सिर पर हाथ फैरते हुए) जा बेटी! तू सदा सुहागिन रहे, सुखी रहे, यही मेरा आशीर्वाद है।
सूत्रधार- मानव समाज की दुनिया में, अब ऐसी नई लहर आयी। इस ग्रंथ को पढ़कर जीवन में, जिनधर्म की बगिया लहराई।। इसका ही चमत्कार प्रियवर, मुझको अब तुम्हें बताना है। बस ज्ञानमती पैदा करने को, तत्पर हुआ जमाना है।।
(द्वितीय दृश्य)
(इस प्रकार इधर महमूदाबाद से बारात विदा हो जाती है और अब टिवैतनगर में नई बहू के आगमन के उपलक्ष्य में खुशियाँ छाई हैं। बाजे बज रहे हैं, महिलाएँ मंगलाचार गा रही हैं।) लाला धन्यकुमार का घर, बहू को मंदिर ले जाती महिलाएँ।
मंदिर दर्शन करने के बाद घर आकर सभी नित्य क्रियाओं में निमग्न हो जाते हैं पुन: एक दिन मोहिनी को स्वाध्याय करते देखकर सासू माँ अपनी बेटियों से कहती हैं- (मोहिनी को पद्मनंदिपंचविंशतिका शास्त्र का स्वाध्याय करते दिखावें।)
सासू माँ –देखो मुन्नी! मेरे घर में कैसी धर्मात्मा बहू आई है, इसने तो आते ही घर का वातावरण ही बदल दिया है।
मुन्नी – हाँ, माँ! धर्मात्मा तो बहुत दिख रही है किन्तु खाने-खेलने, सजने-संवरने के सुनहरे दिनों में भाभी के लिए इतना धर्मध्यान करना क्या उचित है? माँ! मुझे यह सब देखकर कुछ डर लगता है कि कहीं इस घर में कभी वैरागी बाजे न बजने लग जाएं।
सासू माँ –नहीं नहीं मुन्नी! ऐसी कोई बात नहीं है अरे! तुम इतनी आगे तक कहाँ सोचने लग गई। (कुछ चिन्तन मुद्रा में) अच्छा देखो, मैं बहू से पूछती हूँ कि इस शास्त्र में गृहस्थ धर्म का वर्णन है या वैराग्य भावना का? बहू ओ बहू! यह शास्त्र तुम्हें बहुत अच्छा लगता है। बताओ, इसमें क्या लिखा है?
मोहिनी – माँ जी! यह वही शास्त्र तो है जो मुझे विदाई के समय दहेज के रूप में मेरे बापू जी ने दिया था। (हाथ जोड़कर विनम्रता से सासू के पास आकर) इस शास्त्र में गृहस्थों के लिए बड़ी अच्छी-अच्छी बातें लिखी हैं।
सासू माँ – मेरी प्यारी बहू! मुझे भी तो कुछ बताओं कि कौन सी अच्छी-अच्छी बातें हैं?
मोहिनी –(शास्त्र उठाकर पास में लाती है) देखिए माँ जी! इसमें लिखा है कि श्रावक-श्राविकाओं को घर में रहते हुए भी देवपूजा, गुरुपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान इन छह कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। इससे वे भी मोक्षमार्गी माने जाते हैं।
सासू माँ – किन्तु मेरी फूल जैसी बहू को अभी से पूजा, संयम, तप इन सबको जानने की क्या जरूरत है। बेटी! तुम तो अभी मेरे लड़के को खूब खुश रखो। गृहस्थ नारी के लिए अपना पति ही परमेश्वर होता है और उसकी सेवा ही परमात्मा की पूजा समझना चाहिए। समझीं बहू! हाँ, दर्शन तो तुम रोज करती ही हो, दान भी जो इच्छा हो कर लिया करो, लेकिन संयम-तप की बात अभी बिल्कुल मत किया करो।
मोहिनी – (सासू माँ के पैर पकड़कर) माँ जी! मैं कहाँ दीक्षा लिये ले रही हूँ। लेकिन घर में रहकर भी भोगों की तृष्णा थोड़ी कम की जाए तो भी संयम का पालन हो जाता है और पुण्य का बंध होता है।
सासू माँ – मैं समझी नहीं, मेरी बहू क्या कह रही है?
मोहिनी –नहीं माँ जी! कुछ नहीं, बस मैं यही कह रही थी कि अष्टमी-चौदश, अष्टान्हिका-दशलक्षण आदि पर्वों में गृहस्थ भी संयम का पालन करके पाप कर्मों को नष्ट कर सकते हैं।
सासू माँ –अच्छा-अच्छा बस, चलो बहू! शास्त्र बंद करो और मेरे लिए नाश्ता लगाओ, सुनो! तुम भी मेरे साथ बैठकर नाश्ता किया करो। देखो बेटा! शास्त्र तो रोज चार-चार लाइन पढ़ा जाता है, बस यही स्वाध्याय है।
(मोहिनी उठकर काम मे लग जाती है और देखते-देखते दिन, महीने, वर्ष निकल जाते हैं। फिर एक दिन गर्भवती मोहिनी प्रसव वेदना से कराहने लगती है। कुछ ही देर में समाचार ज्ञात होता है कि प्रथम पुष्प के रूप में कुलवधू ने कन्यारत्न को जन्म दिया है। अन्दर से धाय की आवाज आती है।
धाय-देखो, देखो मालकिन, अरे देखो तो सही! यहाँ प्रसूतिगृह में कैसा उजाला छा गया है। ऐसा तो नहीं कि तुम्हारे घर में कोई देवी का अवतार हुआ हो? लेकिन यह क्या, यह बिटिया तो रो ही नहीं रही है।
सासू माँ – हे भगवान्! मेरी बहू का पहला पूâल है, कुम्हलाने न पाए। प्रभो! इसकी रक्षा करना। (इस प्रकार सभी की मंगल कामना और खुशियों के साथ कन्या का जन्म उस घर के लिए वरदान बन गया।
धीरे-धीरे बालिका सबकी गोद का खिलौना बन गई। उसका नाम पड़ा-मैना। धीरे-धीरे मैना बड़ी होने लगी और ७-८ साल की होते-होते उसमें ज्ञान की किरणें प्रस्पुटित होने लगीं, उस पर माँ मोहिनी ने उसे और भी ज्यादा संस्कारित होने का मौका दे दिया। होता क्या है एक दिन- मैना – (यहाँ ७ साल की बालिका को प्रक पहने हुए दिखावें) माँ! मैं सहेलियों के साथ बाहर खेलने जा रही हूँ।
माँ – अरी मैना! कहाँ जाओगी खेलने, क्या रखा है खेल-वेल में। मुझे यह शास्त्र पढ़कर सुनाओ। देखो! इसमें कितनी अच्छी-अच्छी बातें लिखी हैं।
मैना –(माँ के पास बैठकर शास्त्र पढ़ती है) सती मनोवती ने क्वाँरी अवस्था में ही गजमोती चढ़ाकर भगवान के दर्शन करने की प्रतिज्ञा ले ली। पुन: विवाह के बाद अनेकों संकट आने के बाद भी वह अपने नियम में अडिग रही, तो देवता भी उसके सामने नतमस्तक हो गये
और उसकी प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए जंगल में भी एक तलघर के अंदर मंदिर प्रगट हो गया एवं चढ़ाने हेतु गजमोती भी रख दिए। (इतना पढ़कर कहती है) ओ हो! कितनी रोमांचक कहानी है। मेरी प्यारी माँ! ऐसी सुन्दर कहानियाँ तो मुझे रोज पढ़ने को दिया करो।
माँ – ठीक है बिटिया! ऐसी कहानी पढ़ने में जो आनंद मिलता है वह भला खेल में मिलेगा क्या। चलो, अब मेरे साथ थोड़ा रसोई का काम करो, जिससे तुम बहुत जल्दी एक होशियार लड़की बन जाओगी। (मैना माँ के साथ काम में लग जाती है किन्तु काम करते-करते भी वह पुस्तक खोलकर आलोचना पाठ, विनती आदि याद करने लगती है)
मैना – (याद करती हुई गुनगुनाती है)
द्रौपदि को चीर बढ़ाया, सीता प्रति कमल रचाया।
अंजन सों कियो अकामी, दुख मेटो अन्तर्यामी।।
(माँ से कहती है) माँ! देखो मैंने यह आलोचना पाठ पूरा याद कर लिया है।
माँ – (बेटी के सिर पर हाथ फैरती है) मैना! तुम इतनी छोटी होकर भी बहुत होशियार हो गई हो। अरे! मेरी गुड़िया को किसी की नजर न लग जाए। बिटिया! अब मैं तुम्हें वह शास्त्र भी दिखाऊँगी जिसे तुम्हारे नाना जी ने मुझे दहेज में दिया था। उसका नाम है-पद्मनंदिपंचविंशतिका। अर्थात् आचार्य श्री पद्मनंदि ने इसे लिखा है, इसमें पच्चीस अध्याय हैं जो एक से एक अच्छे हैं।
मैना – मुझे जल्दी दिखाओ वह शास्त्र। नानाजी की धरोहर, मैं उसका एक-एक शब्द पढूंगी और उसे याद भी कर लूँगी। ठीक है न माँ। (जाकर माँ के गले से लग जाती है। माँ अपनी उस देवी सी पुत्री को कलेजे से लगाकर असीम सुख का अनुभव करने लगती है। अगले दिन पुन:)-
माँ –बिटिया मैना! लो पहले दूध पियो (गिलास देती हुई) फिर मैं रसोई में खाना बनाने जा रही हूँ। तुम अपने छोटे भाई-बहनों को संभाल लेना। वैलाश को तैयार करके स्कूल भेज देना, श्रीमती-मनोवती और प्रकाश-सुभाष को नहला-धुलाकर मंदिर भेज दो,फिर सबको नाश्ता करवाकर नौकर के साथ बाहर खेलने भेज देना।
मैना –ठीक है माँ! मैं अब आपके हर काम में सहयोग करूँगी। बड़ी हो गई हूँ ना, इसलिए दादी-बाबा का भी ध्यान रखूँगी। आप अकेली सब काम करती-करती थक जाती हो ना। (बच्चों को जल्दी-जल्दी तैयार करके स्कूल और मंदिर भेजती है पुन: दादी से कहती है) दादी जी! आप नाश्ता कर लीजिए, माँ ने यह नाश्ता आपके लिए भेजा है।
दादी माँ – जुग जुग जिये मेरी पोती रानी, मैं तो निहाल हो गई हूँ। ऐसी सुन्दर और सुयोग्य पोती पाकर। (फिर वे मैना के सिर पर हाथ फिराती है) भगवान्! इसे अच्छी सी ससुराल दे, खूब सुखी रहे मेरी लाडली। (मैना के बाबा से कहने लगती हैं) अजी! सुनो तो सही, देखो! अपनी मैना अब मेरी कितनी सेवा करने लगी है। इस भोली सी बच्ची को तुम पैसे-वैसे तो दिया करो, यह तो बेचारी कभी कुछ मांगती ही नहीं है।
बाबाजी – आ जा बेटी मेरे पास। यह तो मेरी सबसे दुलारी पोती है। (मैना बाबा के पास चली जाती है) अरे मैना की दादी! तुम इसे पैसे देने की बात करती हो, मेरा सब कुछ तो इसी का है। मेरा बेटा छोटेलाल देखो कितना होशियार है। उससे कहकर मैं इसकी खूब अच्छी शादी कराऊँगा, फिर तो मेरी बच्ची दूधों नहायेगी। (मैना के सिर पर हाथ फैरते हैं, मैना शर्माई सी सिर नीचा करके माँ के पास चली जाती है)
मैना – माँ!माँ! दादी-बाबा तो बस सीधे मेरी शादी के ही सपने संजोने लगे। क्या एक बेटी की यही नियति होती है कि उसे पाल-पोस कर शादी करके ससुराल भेज दिया जाए। बस, इससे ज्यादा यहाँ मेरी कोई अहमियत नहीं है। ये शादी-वादी की बात मुझे बिल्कुल अच्छी नहीं लगती है।
माँ –नहीं बेटी! ऐसी बात नहीं है। तुम सबकी बहुत लाडली बेटी हो ना, इसीलिए सब तुम्हारे भविष्य की चिंता करते हैं। लेकिन अभी मेरी बच्ची की उमर ही क्या है। अच्छा जाओ मैना! तुम थोड़ी देर सहेलियों के साथ कोई खेल खेल आओ, मूड बदल जाएगा।
मैना – नहीं, मुझे खेलने नहीं जाना है। आज तो मैं वो आपका वाला शास्त्र पढ़ूंगी उसी से मन बदल जाएगा। (शास्त्र उठाकर बड़ी विनय से चौकी पर रखती है, पास में माँ और दादी दोनों बैठकर सुनने लगती हैं)
दादी – बिटिया! सुनाओ, आज तुमरे मुंह से हमहू शास्तर सुने खातिर बइठी हन। जानत हौ, ई शास्तर तुमरी महतारी का तुमरे नाना दिहिन हैं। ईका का नाम है? जरा बताव।
मैना – दादी! इस शास्त्र का नाम है-पद्मनंदिपंचिंवशतिका। (ॐकांर बिंदु संयुत्तं की दो लाइनें पढ़कर शास्त्र पढ़ती है) अब आप लोग ध्यानपूर्वक इसको सुनिये-देखो! इसमें लिखा है कि ‘संसार की चारों गतियों में मनुष्य गति सबसे अच्छी गति है, क्योंकि मनुष्य के अन्दर विवेक होता है और मोक्ष जाने के लिए प्रबल पुरुषार्थ कर सकता है। अनादिकाल से यह जीव संसार में मिथ्यात्व और अज्ञान के कारण चौरासी लाख योनियों में घूम रहा है।
(मैना आगे कहती है)- समझी माँ! संसार में मिथ्यात्व और अज्ञान सबसे ज्यादा खराब होता है। देखो! आगे क्या लिखा है?
‘‘इन्द्रत्वं च निगोदतां च बहुधा मध्ये तथा योनय:’’
ओ हो! कितनी सुन्दर बात आचार्यदेव लिख रहे हैं कि ‘‘हे आत्मन्! तूने संसार में न जाने कितनी बार स्वर्गों में इन्द्र का पद पाया, कितनी ही बार एकेन्द्रिय की निगोद पर्याय पाई, जहाँ किसी के द्वारा कभी संबोधन भी नहीं मिल सकता है
तथा तरह-तरह के पशु-पक्षी, नारकी आदि जन्मों को धारण कर दु:ख उठाये हैं। (कुछ चिंतन मुद्रा में कहती है)- देखो तो माँ! इस अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य जनम को पाकर भी केवल विषय-भोगों में प्राणी रम जाता है और अपने अंदर छिपी भगवान् आत्मा को पाने का कोई पुरुषार्थ ही नहीं हो पाता है।
दादी – (मोहिनी से) अरी बहू! ई लड़की का तुम यू सब का पढ़ाय रही हौ। ई वैराग की बात पढ़-पढ़के, कहूँ हमरी मैना घर से उड़ ना जाय। हमका तो बड़ी चिंता है। अब शास्तर इससे न पढवाव, नाही तो वैराग ईके सिर चढके बोले लगिहै।
मोहिनी – ठीक है माँ जी! अब हम खुद शास्त्र पढ़ा करेंगे, इससे नहीं पढ़ायेंगे। (कुछ सोचकर) लेकिन माँ जी! इस लड़की में तो स्वयं ही न जाने कहाँ से ज्ञान भर गया है, इसने तो मुझे समझा-समझाकर कई मिथ्यात्व क्रियाओं का त्याग करा दिया है।
अब मुझे भी समझ में आ गया है कि पुरानी परम्परा से चली आर्इं कुरीतियाँ हैं उन्हें छोड़कर केवल भगवान की भक्ति में ही दृढ़ श्रद्धान करना चाहिए। ठीक है न माँ जी?
दादी माँ –अरे वाह! तो महतारी खुदै बिटिया का धरम पढ़ाय-पढ़ाय चापर किये हैं। ऊका अपनी गुरु बनयिहौ बहू, फिर तो यू समझौ गई हाथ से। जहाँ ब्याहके जइहै, हुआं यही मेल राग पैलइहै।
अरे भगवान्! हमका तो ई लड़की की बड़ी चिन्ता है। सुनौ, मैना के बाबा! ओ बेटा छोटेलाल! ईके खातिर बड़ा धर्मात्मा घर देखेव, नाई तो या जहाँ जइहै रोज लड़ाई होइ है सास नन्द से। (हांफती हुई दादी अंदर जाने लगती हैं) रक्षा करौ रक्षा करौ भगवान्! हमरी पोती की बुद्धी ठीक कर देव।
छोटे लाल – (माँ को रोककर) अरे अम्मा! तुम चिंता न करो। मैना अभी छोटी है, थोड़ी बड़ी हो जाएगी तो सारा लोक व्यवहार समझ जाएगी।
बाबाजी –हाँ हाँ! मैना की दादी! तुम बेकार घबड़ात हौ, अपनी मैना तो बड़ी अच्छी लड़की है। वा ससुराल जायके तुमरी बदनामी न होय देहै। बस थोड़ी धर्मात्मा ही तो है तो हम लोग अपने नगर के आसैपास मा कोई धर्मात्मा परिवार देख लेबै। ईका बड़ी तो होय देव, सब चिंता दूर अपने आप होइ जइहै।
छोटेलाल – अरे पिताजी! सभी संतान अपना-अपना भाग्य लेकर ही जनमते हैं। इसके भाग्य में जैसा वर लिखा होगा, वही तो मिलेगा। हम लोग तो केवल निमित्त मात्र बनकर इनका लालन- पालन करते हैं और फिर यह लड़की तो हमारे लिए पुत्री नहीं पुत्र के समान है।
अम्मा!जानती हो, हमारे व्यापार में भी इससे पूरा सहयोग मिलता है, मेरे कमाए हुए नोटों को, पैसों को यही तो संभालकर रखती है, फिर मुझे सबकी अलग-अलग गड्डियाँ लगाकर देती है।
दादी-अच्छा भैय्या! अब समझ मा आवा कि या बिटेवा तुमरी तिजोड़ी संभाले है। फिर तो हमका कौनो चिन्ता नाई है । (इस प्रकार आपसी वार्ता में विषय यहीं समाप्त हो जाता है)
सूत्रधार –अरे भैय्या! मेरी बहना! सब सुन रहे हो न ध्यान से, उस मैना की कहानी, जिन्होंने अपने विलक्षण कार्यकलापों से ज्ञानमती नाम को प्राप्त किया है। अर्थात् साधारण कन्याओं की तरह से इनका बचपन नहीं बीता, बल्कि बचपन से ही इन्होंने अपने क्षण-क्षण का सदुपयोग किया था। तभी तो इनके लिए लिखा गया है-
जब बाल्यकाल देखा सबने, मैना का बड़ा निराला है। उस नगरी में इस बाला सा, कोई ना प्रतिभा वाला है।।
प्रारंभिक बेसिक शिक्षा पर, थी ऐसी कड़ी नजर डाली। कुल आठ बरस में मैना ने, यह शिक्षा पूरी कर डाली।।१।।
था आगे और नहीं साधन, पर साध न पूरी हो पाई। फिर गई जैन शाला पढ़ने, मच गई वहाँ हलचल भाई।।
मैना इस तरह वहाँ जाकर, मेधा को और निखार चली। जो आगे पढ़ने वाली थी, हर बाला इनसे हार चली।।२।।
उस शाला में इस बाला का,पढ़ने का अलग तरीका था। तोता-मैना की तरह न इस, मैना ने रटना सीखा था।।
जो उसको सबक मिला करता, आचरणों से कर दिखलाया। अर्जुन सम एक लक्ष्य सिद्धी, करने का मानो युग आया।।३।।
‘‘इस तरह एक शास्त्र को दहेज में भेंट करने के कारण माता मोहिनी देवी के संस्कार अत्यधिक धार्मिक बने। तदुपरांत उनकी बेटी मैना के मन में भी बचपन से ही धार्मिक एवं संसार की असारता के भाव जन्म लेने लगे। उस कन्या ने १८ वर्ष की लघुवय में गृहत्याग कर आगे आर्यिका दीक्षा धारण की, जो आज जैन समाज की सर्वोच्च परम विदुषी साध्वी परमपूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के रूप में हम सबके सामने विद्यमान हैं।
यही नहीं, माता के धार्मिक संस्कारों के कारण ही मैना की अन्य दो बहनों कु. मनोवती एवं मैं (कु. माधुरी) तथा एक लघु भ्राता रवीन्द्र कुमार ने भी मोक्ष का मार्ग अपनाया, जो आर्यिका श्री अभयमती माताजी (समाधिस्थ) , आर्यिका चंदनामती माताजी एवं कर्मयोगी ब्र.रवीन्द्र कुमार जैन के नाम से जाने जाते हैं।’’
बंधुओं! इस नाटिका के माध्यम से यही प्रेरणा प्राप्त करना है कि हमें भी अपने बेटी के विवाह में दहेज स्वरूप एक धार्मिक ग्रंथ अवश्य भेंट करना है, जिससे कि बेटी के परिवार की वंश परम्परा में धार्मिक संस्कारों का बीजारोपण होता रहे।