रत्नमती माताजी को हम नित प्रति शीश झुकाते हैं।
उनके मंगल आदर्शों का किंचित् दर्श कराते हैं।।टेक.।।
नारी शील कहा जग में, आभूषण अवनीतल में।
सर्व गुणों की छाया है, कैसी अनुपम माया है।।
इसीलिए इस नारी ने, तीर्थंकर से पुत्र जने।
भारत जिससे धन्य हुआ, सर्वकला सम्पन्न हुआ।।
यहीं वृषभ तीर्थंकर ने, आदिब्रह्म शिवशंकर ने।
शांति मार्ग को बतलाया, जग में जीना सिखलाया।।
यहीं है सीतापुर नगरी, जहाँ महमूदाबाद पुरी।
वहीं मोहिनी जन्म लिया, जीवन जिनका धन्य हुआ।
भक्तिसुमन का हार लिये हम, माँ के चरण चढ़ाते हैं।
उनके आदर्शों को पालें, यही भावना भाते हैं।।१।।
मोहिनि से इक निधी मिली, संस्कारों की विधी फली।
मैना का जब जन्म हुआ, इक अपूर्व आनंद हुआ।।
मैना पिंजड़े से उड़कर, गृह बंधन में ना पड़कर।
आई इस भूमण्डल पर, ज्ञानमती माता बनकर।।
सरस्वती अवतार हुआ, चकित आज संसार हुआ।
जिनकी ज्ञान कलाओं से, भाव भरी प्रतिभाओं से।।
वर्णन हम क्या कर सकते, जग को नहिं बतला सकते।
उन अनन्य उपकारों को, सम्यग्ज्ञान विचारों को।।
भक्तिसुमन का हार लिए हम, माँ के चरण चढ़ाते हैं।
उनके आदर्शों को पालें, यही भावना भाते हैं।।२।
जो कुछ भी है तेरा है, माँ का ही सब घेरा है।
माँ के संस्कारों की दुनियाँ, जिनका साँझ सबेरा है।।
उनमें ही अवतीर्ण हुआ, एक चाँद विस्तीर्ण हुआ।
शीतल चन्द्र रश्मियों से, अमृतमयी झरिणियों से।।
मानो सुधाबिन्दु झरतीं, स्याद्वाद वाणी खिरती।
ज्ञानमती का ज्ञान विमल, शुद्धात्मा श्रद्धान अमल।।
तुमने उन्हें प्रदान किया, निज का भी उत्थान किया।
रत्नत्रय को प्राप्त किया, आत्मतत्त्व श्रद्धान किया।।
भक्तिसुमन का हार लिए हम, माँ के चरण चढ़ाते हैं।
उनके आदर्शों को पालें, यही भावना भाते हैं।।३।।
माता हो तो ऐसी हो, जीवन परम हितैषी हो।
मोक्षमार्ग में साधक हो, मिथ्यातम में बाधक हो।।
जाने कितनी माताएँ, सन्तानों की गाथाएं।
केवल ममता भरी कथा, छिपी हृदय में मोह व्यथा।।
पर क्या कोई कर सकता, आत्मनिधी को भर सकता।
निधी ‘माधुरी’ आत्मा में, प्रगट किया परमात्मा ने।।
जैनधर्म महिमाशाली, ग्रहण करे प्रतिभाशाली।
सुखद शान्ति का दाता है, परमातम प्रगटाता है।।
भक्तिसुमन का हार लिए हम, माँ के चरण चढ़ाते हैं।
उनके आदर्शों को पालें, यही भावना भाते हैं।।४।।