मौन… केवल वाणी से कुछ न कहने का नाम नहीं, मौन तो एक क्रिया है जो आपकी चुप्पी से शुरू होती है और गहन सत्य की खोज तक अनवरत चलती रहती है। कुछ न कहना तो मौन की शुरूआत मात्र है, वास्तविकता में मौन दसों इन्द्रियों को बाहर से हटाकर अंतस की ओर केन्द्रित करना है। मन वचन और काय तीनों की बाहरी सक्रियता को समाप्त करना ही मौन होना है। मौन आत्मसंवाद के लिए निमित्त बनता है और एक साधना पद्धति भी जिसके जरिए आत्मा को परमात्मा बनाया जा सकता है।
तात्पर्य यह है कि प्रशस्त और अप्रशस्त समस्त बातों और रचनाओं को छोडक़र मौनव्रत सहित ही आत्मरत्न को साधा जा सकता है। (निजकार्य को करना चाहिए। निजकार्य से यहाँ तात्पर्य आत्मा के कर्म से है। ) कहने का मतलब यह हुआ कि न अच्छे वचन न बुरे वचन, न अच्छे के लिए ना ही बुरे के लिए केवल और केवल स्वयं के लिए कार्य करना ही मौन है। और स्वयं का कार्य आत्मा का कार्य है और आत्मा का कार्य परमात्मदर्शन है। भारतीय संस्कृति में मौन को व्रत कहा गया है। सभी धर्मों, संप्रदायों में मौन व्रत का वर्णन और महत्व एक समान रूप से ही देखने को मिलता है। आप किसी से बात नहीं कर रहे हैं पर उसे ईशारों के माध्यम से, लिखकर या किसी अन्य सांकेतिक भाषा में अपना संदेश दे रहे हैं तो यह मौन मौन नहीं केवल वाणी का प्रयोग ना करना है। मौन में तो व्यक्ति स्वयं के अतिरिक्त किसी से भी संपर्क नहीं करता। स्वयं का स्वयं से संपर्क ही तो मौन है।
महावीर, बुद्ध, ईसा, नानक किसी भी धर्म के प्रणेताओं का जीवनदर्शन देखें तो वे मौन से ही भरपूर है। उन्होंने अपने जीवन में मौन ध्यान साधना की। बाहरी आसक्तियों से अपने मन को समेट कर अंतस की ओर केन्द्रित किया और साधा ताकि आंतरिक ज्ञान सागर की गहराईयों में उतर कर वास्तविक विवेकी ज्ञान की प्राप्ति हो, और ऐसा हुआ भी। इतिहास गवाह है कि बड़े से बड़े निर्णयों से पूर्व विवेकी राजा-महाराजा ने एकांत में मौन धारण कर हर पहलू को जाँचा परखा और फिर किसी निर्णय पर पहुँचे। जहाँ कहीं बिना सोचे-विचार, बिना मौन के निर्णय हुए वे सभी गलत ही साबित हुए हैं। मौन वह साधना है जिससे व्यक्ति के अंदर राग-द्वेष की भावना का नाश हो जाता है। मौैन साधना से व्यक्ति का आत्मबल बढ़ता है तथा कार्य करने की क्षमता बढ़ती है। मौन से वाणी शुद्ध एवं सिद्ध होती है। शाश्वत सुख समृद्धि का आधार भी मौन ही तो है। वर्तमान में जिस प्रकार से परिवार समाज और देश में चारों ओर अशांति व आतंक का वातावरण बढ़ते ही जा रहा है, वह केवल और केवल बाहरी आकर्षण की ओर भागती आधुनिक चका-चौंध का परिणाम है और इस समस्या को समूल नष्ट करने का उपाय मौन रूपी अहिंसात्मक शस्त्र ही है। हर व्यक्ति यदि किसी भी कार्य को करने से पहले, थोड़ा रूक कर मौन धारण कर उस कार्य के अच्छे व बुरे परिणामों पर नज़र डाल ले तो शायद उसके अंतस का उजाला उसे बाहर की दुनिया के अंधकार की तरफ बढऩे ही न दे। मौन का पालन सभी व्रतों का पालन है। मौन आत्मशक्ति को जाग्रत करना है। मौन व्रत व्यक्ति को अपने आप में रहना सिखाता है इसी कारण उसके अंदर के भाव नष्ट होते हैं। आध्यात्मिक, धार्मिक और लौकिक शांति की ओर बढऩे का सफल साधन मौन साधना से ही प्रारंभ होता है। मौन के प्रारंभिक अभ्यास के बाद अहंकार, महत्वाकांक्षा, ईष्र्या, राग-द्वेष, मोह-माया, क्रोध, लोभ, बैर भाव आदि का नाश होता है। उदाहरण के तौर पर लूं तो अगर आपका किसी से झगड़ा हुआ है और उस समय आप मौन हो जाते हैं तो क्रोध शांत हो जाता है। उत्तेजना और दुर्भावना खत्म हो जाती है और हम उस घटनाक्रम का सहीं आंकलन कर खुद को शांत और संयमित कर लेते हैं। यह तो मौन यानि केवल वाणी पर विराम देने मात्र से आया परिणाम है।
जब मौन की साधना गहन से गहनतम होती जाती है तो मनुष्य के बुरे के साथ अच्छे भाव जैसे क्षमा, दया, मित्रता आदि भी समाप्त हो जाते हैं यानि शुभ व अशुभ दोनों ही वर्गणाएँ समाप्त हो जाती हैं और वह स्थिति आत्मा के परमात्मा से साक्षात्कार की ही होती है। बुद्ध कुछ समय की मौन साधना के पश्चात् सदा के लिए मौन हो गए। महावीर ने मौन धारण किया तो केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्षलक्ष्मी को पा गए और तीर्थंकर बन गए। यहाँ रूककर सोचिए… जो मौन एक इंसान को भगवान बना सकता है वह मौन जीवन के क्लेश और संताप को पल में ही दूर करने में सक्षम है। गाँधी जी ने मौन को अपने जीवन में शामिल किया जिसके फलस्वरूप वे देश की आजादी के सूत्रधार बनें। अगर हम वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखें तो आज की हर परिस्थिति से मुकाबला करने के लिए अगर कोई शस्त्र है तो केवल और केवल मौन… सकारात्मक जीवन ऊर्जा जो जीवन के हर पहलू को साधकर, तराशकर स्वर्णिम भविष्य देने में सक्षम है।
मौन से लाभ…
वचन शुद्धि, मन वशीकरण, याचना प्रवृत्ति का खत्म होना, शारीरिक, आध्यात्मिक और मानसिक सौंदर्य वृद्धि, निरोगता, संत समान आचरण प्राप्त होना। कहाँ रखें मौन… नित्य की दैनिक जीवन चर्या के तहत भोजन, वमन, स्नान, मलक्षेपण, पूजन-आराधना आदि करते समय मौन धारण करना चाहिए। इसके अलावा भी हम किसी भी कार्य की शुरूआत करने से पहले, नई योजना बनाने से पहले या सामान्य तौर पर विद्यार्थी अध्ययन करने से पूर्व भी अगर मौन धारण करते हैं तो कार्य को करने की योग्यता बढ़ती है साथ ही उस कार्य में सफलता मिलना तय होता है, क्योंकि मौन हमारे आत्मबल और दक्षता को बढ़ाता है, सोच को सकारात्मक करता है। यहाँ मौन है खतरनाक…अन्याय और अपराध होता देख, धर्म की क्षति होने पर, गुरू से ज्ञान लेते समय, शंका समाधान करते समय मौन होना खतरनाक हो सकता है।