A wise person neither speaks without being asked nor should he interrupt when another person is speaking. He should not indulge in back-biting others and should avoid deceitful untruth.
साधक बिना पूछे न बोले, गुरुजन वार्तालाप कर रहे हों तब बीच मे न बोले,
दूसरों की चुगली न खाए और कपटयुक्त असत्य का त्याग करें ||
Who out of pride, humiliates others, is an ignorant person.
जो अपने अहंकार से दुसरो की अवज्ञा करता है , वह व्यक्ति अज्ञानी है ||
One should speak after ripe reflection. Just as a blind person needs the help of a guide to show him the path, speech also requires the guidance of intellect.
पहले बुद्धि से परखकर फिर बोलना चाहिए,
अँधा व्यक्ति जिस प्रकार पथप्रदर्शक की अपेक्षा रखता है
उसी प्रकार वाणी बुद्धि की अपेक्षा रखती है ||
Those who are short-tempered, ignorant, egoistic, harsh, hypocritical and deceitful, drift in the worldly-current as a piece of log in the flow of water.
जो मनुष्य क्रोधी,अविवेक, अभिमानी, कटुभाषी, कपटी तथा धूर्त है,
वे अविनीत व्यक्ति नदी के प्रवाह में बहते हुए काट की तरह संसार में बहते रहते हैं||
One who is free of deceit attains purity and becomes steadfast in dharma. Such a person attains the highest emancipation like the lustre of fire sprinkled with ghee
सरल आत्मा की ही शुद्धि होती है , जिस तरह घी से अभिषिक्त अग्नि दिव्य प्रकाश को प्राप्त होती है ,
उसी प्रकार शुद्धात्मा तेज से उद्धिप्त होती हुई परम निर्वाण को प्राप्त होती है ||
All living beings in this world experience the fruits of their past karmas and wander in different exigencies according to their deeds. Nobody can escape the results of their acquired karmas.
संसार के सभी प्राणी अपने अपने कर्मो का फल भोगते हैं|
अपने-अपने कर्मों के अनुसार ही वे भिन्न भिन्न गतियों में भ्रमण करते हैं |
फल भोगे बिना उपार्जित कर्मों से प्राणी को छुटकारा नहीं होता ||
It is better that I restrain myself by self-control and austerity instead of being subdued by others by fetters and violence.
में स्वयं ही संयम और तप के द्वारा अपनी आत्मा (इच्छाओं) का दमन करू,
बजाय इसके की अन्न लोग बंधन और वध के द्वारा मेरा दमन करे ||
Supreme forgiveness, humility, straight-forwardness, truthfulness, purity, self restraint, austerity, renunciation, detachment and continence these are 10 characteristics of dharma
उत्तम क्षमा, मृदुता, सरलता, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग,
आंकिन्चन्य व् ब्रहमचर्य- ये दश धर्म के लक्षण हैं ||
My soul, endowed with knowledge and vision, is alone eternally mine; al others are alien to me and are in nature of the external adjuncts.
ज्ञान,दर्शन स्स्वरुपी मेरी आत्मा ही तत्व है|
उससे भिन्न जितने भी राग, द्वेष, कर्म , शरीर, आदि भाव हैं|
व सब संयोगजन्य बाह्य भाव हैं, अतः वास्तव में मेरे अपने नहीं हैं ||
Religion is supremely auspicious. Its constituents are non-violence, self-control and austerity. Even the celestial revere him whose mind is always absorbed in dharma.
धर्म उत्कृष्ट मंगल है | अहिंसा, संयम और ताप उसके मुख्य अंग हैं|
जिसका मन सदा धर्म में रमता रहता है , उसे देवता भी नमस्कार करते हैं|
The self alone should be restrained because it is most difficult to restrain the self. one who conquers himself becomes happy in this world and shall be in the next.
अपनी आत्मा का ही दमन करो, क्योंकि आत्मा ही दुर्दम्य है|
अपनी आत्मा पर विजय पानेवाला ही इस लोक और परलोक में सुखी होता है||
Some view righteousness, wealth and pleasure as mutually contradictory. However Jain faith propounds that if these are imbibed in a balanced way, ten they are non-contradictory.
धर्म, अर्थ और काम को भले ही अन्य कोई परस्पर विरोधी मानते हो,
किन्तु जिनवानी के अनुसार, यदि वे मर्यदानुकूल व्यव्हार में लाये जाते हैं , तो वे हैं ||