प्रभो! पतित पावन मै अपावन, चरन आयो शरण जी ।
यों विरद आप निहार स्वामी, मेट जामन—मरन जी ।।
तुम ना पिछान्या आन मान्या, देव विविध प्रकार जी ।
या बुद्धि सेती निज न जान्यो, भ्रम गिन्यो हितकार जी ।।
भव विकट वन में करम वैरी, ज्ञान धन मेरो हर्यो ।
सब इष्ट भूल्यो भ्रष्ट होय, अनिष्ट गति धरतो फिर्यो ।।
धन घड़ी यों धन दिवस यों ही, धन जनम मेरो भयो ।
अब भाग्य मेरो उदय आयो, दरश प्रभु जी को लख लयो ।।
छवि वीतरागी नगन मुद्रा, दृष्टि नासा पै धरैं ।
वसु प्रातिहार्य अनन्त गुणयुत, कोटि रवि छवि को हरैं ।।
मिट गयो तिमिर मिथ्यात्व मेरो, उदय रवि आतम भयो ।
मो उर हरष ऐसो भयो, मनु रंक चिन्तामणि लयो ।।
मैं हाथि जोड़ नवाय मस्तक, वीनऊँ तुम चरण जी ।
सर्वोत्कृष्ट त्रिलोकपति जिन, सुनहुँ तारण तरण जी ।।
जाचूँ नहीं सुरवास पुनि नर राज परिजन साथ जी ।
‘बुध’ जाचहूँ तुम भक्ति भव-भव दीजिये शिवनाथ जी ।।