मनुष्य आदि पर्याय का नाश होना मरण है। इस मरण के पाँच भेद हैं-पंडितपंडितमरण, पंडितमरण, बालपंडितमरण, बालमरण और बालबालमरण।
पंडितपंडितमरण – क्षीणकषाय केवली भगवान्, पंडितपंडितमरण से मरण करते हैं अर्थात् केवली भगवान अयोगी होकर इस मनुष्य पर्याय से छूटकर कर्मों से ही छूट जाते हैं पुन: भव धारण नहीं करते हैं।
पंडितमरण – छठे गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान पर्यन्त रहने वाले जीवों का जो सल्लेखना मरण है वह पंडितमरण है।
बालपंडितमरण – विरताविरत-देश संयत के मरण को बालपंडित मरण कहते हैं।
बालमरण – अविरत सम्यग्दृष्टि का मरण बालमरण है।
बालबालमरण – मिथ्यादृष्टि जीवों का मरण, अपघात आदि करके मरण, सब बालबालमरण हैं। क्योंकि ये जीव बार-बार मरण करते ही रहते हैं। ‘‘पंडितमरण के तीन भेद है-पादोपगमन, इंगिनी और भक्तप्रतिज्ञा। अपने पाँवों द्वारा संघ से निकलकर और योग्य प्रदेश में जाकर जो मरण किया जाता है वह पादोपगमन है। अथवा इसका प्रायोपगमन भी नाम है। इसमें स्व और पर के द्वारा वैयावृत्ति की अपेक्षा नहीं रहती है। जिस मरण में अपने आप तो वैयावृत्ति कर सवें किन्तु पर के द्वारा वैयावृत्ति न करावें वह इंगिनी-मरण है। इस पंचमकाल में इन दो मरण के योग्य संहनन का अभाव है अत: भक्तप्रत्याख्यान मरण ही होता है। भक्त-आहार का प्रतिज्ञा-त्याग करना भक्तप्रत्याख्यान मरण है। सविचार भक्तप्रत्याख्यान के तीन भेद हैं-जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट। जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है और उत्कृष्ट बारहवर्ष का है। अन्तर्मुहूर्त से लेकर बारह वर्ष के भीतर तक मध्यम के अनेक भेद हैं।’’
भक्तप्रत्याख्यान के दो भेद हैं-सविचार और अविचार। जो साधु या गृहस्थ उत्साह और बलयुक्त हैं जिनका कुछ काल के अनन्तर मरण होगा उनके सविचार भक्तप्रत्याख्यान मरण होता है। इसके विपरीत अकस्मात् मरण के आ जाने पर पराक्रम सहित साधु का मरण अविचार भक्तप्रत्याख्यान है। ‘‘उत्कृष्ट भक्तप्रत्याख्यान मरण करने की इच्छा करने वाले मुनि ज्योतिषशास्त्र अथवा निमित्तशास्त्रों से या अन्य किसी भी उपायों से अपनी आयु का निर्णय कर लेते हैं कि हमारी आयु बारह वर्ष प्रमाण रह गई है अथवा इससे कम रह गई है क्योंकि बारह वर्ष से अधिक आयु रहने पर सल्लेखना का नियम नहीं कर सकते हैं।’’ आचार्य भक्तप्रत्याख्यान मरण के इच्छुक होते हुए अपनी आयु का निर्णय करके बारह वर्ष की उत्कृष्ट सल्लेखना ग्रहण कर लेते हैं। ये मुनिराज बारह वर्षों में से प्रारंभ के चार वर्ष तो नाना प्रकार के अनशन, अवमौदर्य, सर्वतोभद्र, एकावली, द्विकावली, रत्नावली, सिंहनिष्क्रीडित आदि तपों का अनुष्ठान करते हुए पूर्ण करते हैं। आगे के चार वर्ष रस परित्याग नामक तप से पूर्ण करते हैं। पुन: दो वर्ष तक कभी अल्प आहार कभी नीरस आहार करते हुए बिताते हैं। अनन्तर एक वर्ष तक अल्प आहार लेते हुए पूर्ण करते हैं। आगे छह महीने तक अनुत्कृष्ट तप करते हुए बारह वर्ष पूर्ण कर देते हैं। सल्लेखना करने वाले आचार्य अपने संघ के समस्त भार को अपने योग्य शिष्य पर डालकर अर्थात् उसे आचार्य बनाकर सारी व्यवस्था संभालकर आप सल्लेखना कराने में कुशल ऐसे आचार्य की अन्वेषणा करते हैं क्योंकि अपने संघ में रहने से शिष्यों के प्रति स्नेह भाव अथवा आज्ञा उल्लंघन से कषायभाव होना स्वाभाविक है। अन्य संघ में पहुँचकर आचार्य इस संघ के आचार्य को अपना अभिप्राय प्रगट करते हैं। यह संघ भी आगन्तुक साधु को बड़ी भक्ति और वात्सल्य से आश्रय देते हैं। जो सल्लेखना कराने वाले आचार्य होते हैं उन्हें निर्याणक आचार्य कहते हैं और सल्लेखना कराने वाले आचार्य या साधु को क्षपक कहते हैं। निर्यापकाचार्य क्षपक के लिए सल्लेखना योग्य क्षेत्र को देखकर वसतिका को भी आगम के अनुकूल देखकर वहाँ सल्लेखना ग्रहण कराते हैं। लकड़ी का पाटा घास (चटाई) या पाषाण की शिला आदि को संस्तर कहते हैं।
क्षपक के योग्य संस्तर बनाकर शुभमूहूर्त में आचार्य विधिवत् क्षपक को संस्तर ग्रहण कराते हैं। अर्थात् बारह वर्ष की सल्लेखना में से जब एक माह पन्द्रह दिन आदि काल लगभग शेष रह जाता है, तब संस्तर ग्रहण कराकर सल्लेखना कराई जाती है। एक मुनि की सल्लेखना के समय अड़तालीस१ मुनियों की आवश्यकता होती है जो कि ग्लानि और प्रमादरहित वात्सल्यभाव से क्षपक मुनि की शुश्रूषा करते हैं। हाथ पैर दबाना, चलते समय सहारा देना, संस्तर पर लेटते समय सहारा देना, करवट बदलना आदि वैयावृत्ति करते हैं। नवीन आचार्य के पास ये आचार्य या मुनि अपने दोषों की सम्पूर्ण आलोचना करके यथोचित प्रायश्चित्त ग्रहण करते हैं। यदि सर्वोत्कृष्ट गुण विशिष्ट आचार्य न मिले तो उपाध्याय मुनि निर्यापक बनते हैं। यदि वे भी न हों तो प्रवर्तक मुनि अथवा अनुभवी वृद्ध मुनि या बाल आचार्ययत्न से व्रतों में प्रवृत्ति करते हुए निर्यापक आचार्य बन सकते हैं। जो ज्ञान से अल्प हैं परन्तु संघ की मर्यादा के ज्ञाता मुनि प्रवर्तक हैं और चिरदीक्षित मुनि साधु हैं ये भी सल्लेखना करा सकते हैं। वर्षाकाल में नाना प्रकार के तपों का अनुष्ठान करके सुख से जिसमें उपवास आदि किये जा सकते हों, ऐसे हेमंत ऋतु में संस्तर का आश्रय लेता है। ये अड़तालीस यति क्या-क्या उपकार करते हैं ? चार मुनि क्षपक को उठाना, बिठाना आदि सेवा का काम, संयम में बाधा न आवे, इस प्रकार से करते हैं। चार मुनि क्षपक को धर्मश्रवण कराते हैं। चार मुनि आचारांग के अनुवूâल क्षपक को आहार कराते हैं। चार मुनि क्षपक के लिए आहार में पेय पदार्थों की व्यवस्था करते हैं। चार मुनि निष्प्रमादी हुए आहार की वस्तुओं की देखभाल करते हैं। चार मुनि क्षपक के मलमूत्रादि विसर्जन, वसतिका, उपकरण, संस्तर आदि को स्वच्छ करते हैं। चार मुनि क्षपक की वसतिका के दरवाजे पर प्रयत्नपूर्वक रक्षा करते हैं। अर्थात् असंयत आदि अयोग्य जनों को अन्दर जाने से रोकते हैं। चार मुनि उपदेश मंडप के द्वार के रक्षण का भार लेते हैं। निद्रा विजयी चार मुनि क्षपक के पास रात्रि में जागरण करते हैं। चार मुनि जहाँ संघ ठहरा है उसके आस-पास के शुभाशुभ वातावरण का निरीक्षण करते है।। चार मुनि आये हुए दर्शनार्थियों को सभा में उपदेश सुनाते हैं। चार मुनि धर्म कथा कहने वाले मुनियों की सभा की रक्षा का भार लेते हैं।’’ ऐसे ये अड़तालीस मुनि क्षपक की सल्लेखना में पूर्णतया सहयोग देते हैं। आचार्य कहते हैं कि भरत आदि क्षेत्र में यदि इतने मुनि कदाचित् नहीं हों, तो चवालीस, आदि चार-चार कमती करते हुए कम से कम चार मुनि तो अवश्य ही होने चाहिए। ‘‘कदाचित् चार मुनि भी न मिल सकें, तो दो मुनि अवश्य ही होना चाहिए, क्योंकि एक निर्यापक का विधान आगम में नहीं है। बल्कि एक निर्यापक से असमाधि आदि अनेक हानि हो जाती है।’’ ‘‘कोई मुनि समाधिमरण कर रहे हैं, ऐसा सुनकर अन्य संघ के साधु भी बड़ी भक्ति से उन क्षपक के दर्शन हेतु आते हैं। यदि अन्य साधु नहीं आते हैं, तो समझना चाहिए कि उनकी उत्तमार्थ मरण में भक्ति नहीं है और जिनकी उत्तमार्थ मरण में भक्ति नहीं है वे साधु मरणकाल में सल्लेखना को वैâसे प्राप्त कर सकते हैं ? अर्थात् अपना समाधिमरण करने हेतु साधुओं की समाधि को बार-बार देखना चाहिए, कराना चाहिए और उनके दर्शन करके समाधिमरण विधि सीखना चाहिए। क्योंकि यदि एक भव में भी समाधिमरण मिल जाता है तो वह जीव सात-आठ भव में ही मोक्ष प्राप्त कर लेता है, इससे अधिक संसार में भ्रमण नहीं करता है।’’ चातुर्मास के प्रसंग में साधु बारह योजन (९६ मील) तक सल्लेखना कराने हेतु या क्षपक के दर्शन हेतु जा सकते हैं ऐसी आगम की आज्ञा है। यथा-वर्षाऋतु में देव और आर्षसंघ संबंधी कोई बड़ा कार्य तथा शीतकाल में और ग्रीष्मकाल में छोटा कार्य या उपस्थित हुआ हो तो उस कार्य के निमित्त बारह योजन तक कोई साधु चला जाये तो वह दोषी नहीं है, बारह योजन से ऊपर गमन करने वाला प्रायश्चित्त को प्राप्त होता है।’’ क्षपक के पास में अधिक बोलने वाले आगमविरुद्धभाषी या विकथा आदि करने वाले साधु तथा श्रावक नहीं जा सकते हैं। व्यवस्था करने वाले साधु उन्हें बारह ही रोक देते हैं। परिचारक मुनि क्षपक को ऐसा उपदेश सुनाते हैं कि जिससे वे अपने चारित्र में पूर्णतया दृढ़ बने रहते हैं। रोग, वेदना आदि की व्याकुलता से अधीर नहीं होने पाते हैं। ‘‘परिचारक साधु क्षपक को तेल और कषायलें पदार्थों के कुल्ले कराते हैं कि जिससे उनकी जिह्वा स्वच्छ रहे, बोलने की सामर्थ्य नष्ट नहीं होवे। कान में भी तेल डालते रहने से श्रवण शक्ति नष्ट नहीं होती है।’’ निर्यापकाचार्य जब अच्छी तरह क्षपक के वैराग्य को और शरीर स्थिति को देख लेते हैं। तब उसे पेय-मट्ठा, जल आदि रखकर बाकी तीन प्रकार का आहार चतुर्विधसंघ के समक्ष त्याग करा देते हैं। पानक पदार्थ सेवन करने वाले क्षपक को उदर के मल की शुद्धि हेतु मधुर रेचक औषधि भी देते हैं। जिससे उदर में मल सूखकर पीड़ा उत्पन्न न करे। जब आचार्य तीन प्रकार के आहार का त्याग करा देते हैं तब क्षपक से सभी साधुओं के प्रति क्षमायाचना कराई जाती है।
पुन: सभी साधु भी क्षमायाचना करके क्षपक की निर्विघ्न समाधि हेतु कार्योत्सर्ग करते हैं। निर्यापकाचार्य क्षपक से दीक्षित जीवन के सम्पूर्ण दोषों की आलोचना सुनते हैं। उसे उत्तमार्थ प्रतिक्रमण सुनाते हैं और दोषों का पूर्णतया शोधन कर देते हैं। जब वह क्षपक अन्तरंग से बिल्कुल निर्मलचित्त नि:शल्य होता हुआ अपने को स्वस्थ और लघु (हल्का) अतिचारों के मार से मुक्त समझता हुआ प्रसन्नचित्त हो जाता है। ‘‘अनन्तर शक्ति अत्यन्त क्षीण देखकर आचार्य क्षपक को जल का भी त्याग करा देते हैं। यदि कोई साधु इतने धीर नहीं है तो उन्हें जल आदि पेय का त्याग नहीं कराया जाता है। अन्त समय में ही उसका त्याग कराते हैं। क्योंकि किसी भी त्याग से साधु के परिणाम में संक्लेश नहीं उत्पन्न हो जावे, ऐसा ध्यान रखना निर्यापक का कर्तव्य है।१’ अनन्तर परिचारक साधु मात्र जिनवचन और महामंत्ररूपी अमृत का पान कराते हुए क्षपक की आत्मा का पोषण करते हैं। निर्यापकाचार्य भी संस्तरारूढ़ क्षपक श्रुतज्ञान के अनुसार उपदेश देते हैं और संवेग तथा निर्वेग उत्पन्न करने वाला ‘कर्णजाप’ देते हैं।
सल्लेखना के दो भेद हैं-बाह्य और अभ्यन्तर। अथवा द्रव्य सल्लेखना और भाव सल्लेखना। इसमें से आहार का क्रम-क्रम से छोड़ना बाह्य सल्लेखना, द्रव्य सल्लेखना अथवा शरीर सल्लेखना है। सम्यग्दर्शन आदि भावना के द्वारा मिथ्यात्व कषाय आदि परिणामों को कृश करना अभ्यतर सल्लेखना, भावसल्लेखना और कषाय सल्लेखना है। अर्थात् सत् सम्यक् प्रकार से लेखना-कृश करना सल्लेखना है। इसमें काय और कषायों को कृश किया जाता है। यह सल्लेखना आत्मघात नहीं है, ‘क्योंकि जो कषाय से आविष्ठ होकर विष, शस्त्र आदि के द्वारा अपना घात कर लेता है, उसे ही आत्मघात कहते हैं। वह इस सल्लेखना में संभव नहीं है।२’’ क्योंकि ‘‘उपसर्ग आ जाने पर दुर्भिक्ष हो जाने पर या अतीव वृद्धावस्था के हो जाने पर अथवा असाध्य व्याधि के हो जाने पर जब उसका प्रतीकार नहीं हो सकता है।’’ अथवा नेत्रज्योति मंद हो जाने पर या जंघाबल घट जाने पर जब संयम की रक्षा नहीं हो सकती है तब साधु धर्म के लिए-संयम की रक्षा के लिए धर्मध्यानपूर्वक जो शरीर का त्याग करते हैं। उसी का नाम सल्लेखनार है।’’ यदि किसी ने जीवन भर रत्नत्रय का पालन किया है और अन्त समय परिणाम बिगड़ जाते हैं या रत्नत्रय से च्युत हो जाता है तो वह पुन: अनन्तसंसार में डूब जाता है इसलिए अन्तसमय संयम या अपने योग्य ग्रहण किये गये धर्म की रक्षा का अत्यधिक महत्त्व है जो कि सल्लेखना से ही सिद्ध हो सकता है। अतएव मरण के अन्त में सल्लेखना की प्रीतिपूर्वक करना चाहिए। पूज्यपाद स्वामी ने तो यहाँ तक कहा कि-‘‘हे भगवन्! बाल्यावस्था से लेकर आज तक मैंने आपके श्रीचरणों की उपासना करके जो कुछ भी पुण्य संचित किया है उसका फल मैं यही मांगता हूँ कि जब मेरे प्राण प्रयाण करने लगें, उस समय आपके नाम को जपने में मेरा कंठ अकुंठित ही बना रहे अर्थात् अन्त समय आपके नाम को पढ़ने में मेरी जिह्वा वुंâठित न हो जावे। मैं आपका नाम जपते-जपते ही प्राण त्याग करूँ।’’ ‘‘इस प्रकार से मरणकाल में एक अर्हंत नमस्कार ही इस जीव के संसार का उच्छेद करने में समर्थ हो जाता है, ऐसा जिनेन्द्रदेव के मत में कहा है।’’ जब साधु की सल्लेखना हो जाती है तब सभी साधु मिलकर पूर्व में कही गई विधि के अनुसार क्षपक से शरीर की वंदना हेतु भक्तिपाठ बोलते हुए क्रिया करते हैं। यदि रात्रि में मरण हुआ है तो जो साधु रात्रि में जागरण करने में कुशल हैं वे साधु वहाँ बैठकर महामंत्र का स्मरण करते हुए रात्रि व्यतीत करते हैं।’’ उस समय क्षपक के हाथ पैर तथा अँगूठे का कुछ भाग बाँध दिया जाता है अथवा छेद दिया जाता है कि जिससे उसमें कोई व्यंतर आदि प्रवेश करके कुचेष्टा न करने लगे।’’ रात्रि में मृतक मुनि के पास बालमुनि, वृद्धमुनि, शिक्षक, तपस्वी, रोगी और दु:खी मुनि तथा आचार्य नहीं रहें प्रत्युत धैर्य, वीर्यशाली, पराक्रमी, निद्राविजयी मुनि ही वहाँ रहें, ऐसी आज्ञा है। ‘‘पुन: श्रावक लोग विमान में मुनि के शरीर को स्थापित करके पहले से निर्धारित उद्यान, वन आदि में ले जाते हैं और वहाँ विधिवत् दहन क्रिया कर देते हैं।’’ मरण के अनन्तर पिच्छिका अग्रभाग को आगे करके रखी जाती है और कमण्डलु की टोटी भी आगे करके कमण्डलु रखा जाता है। उस समय मृतक मुनि के शरीर की क्रिया करने वाले साधु उल्टी प्रदक्षिणा लगाते हैं और श्रावक भी दहन क्रिया करके उल्टी प्रदक्षिणा लगाकर कायोत्सर्ग करके वापस आते हैं।
निषद्यास्थान-साधु का निषीधिका१ स्थान एकान्त प्रदेश में हो, प्रकाश सहित स्थान में हो, ग्राम से न अतिदूर और न अतिनिकट हो, वह टूटी हुई, विध्वस्त की हुई न हो तथा विस्तीर्ण और प्रासुक होवे। यह निषद्यास्थान क्षपक की वसतिका से नैऋत्यदिशा में, दक्षिण दिशा में या पश्चिम दिशा में होनी चाहिए। इन तीन दिशाओं की निषीधिका ही आचार्यों ने प्रशस्त मानी है।’’ नैऋत्यदिशा की निषीधिका सर्वसंघ की समाधि हेतु-सुखशांति हेतु मानी है। दक्षिण दिशा में निषद्या होने से संघ को आहार सुलभता से मिलता है, पश्चिम दिशा में निषद्या होने से संघ का विहार मुख से होता रहता है और उनको पुस्तक आदि उपकरणों का लाभ भी होता रहता है।’’ यदि उपर्युक्त दिशाओं में निषद्या के लिए स्थान उपलब्ध न हो, तो सुविधानुसार आग्नेय, वायव्य, ऐशान्य अथवा उत्तर दिशा में भी बनवा सकते हैं। फिर भी इनका फल कुछ अशुभ है। यथा-आग्नेय दिशा में निषीधिका होने से संघ के साधुओं में स्पद्र्धा उत्पन्न होगी। वायव्य दिशा में होने से संघ में कलह होगी, पूर्वदिशा में होने से संघ में फूट पड़ेगी, टुकड़े हो जावेंगे। उत्तर दिशा में होने से संघ में व्याधि उत्पन्न होगी। ऐशान दिशा में होने से संघ में परस्पर में खींचातानी होगी और पूर्वोत्तर दिशा में निषद्या करने से किसी एक मुनि का मरण हो सकता है। इसलिए संघ की शांति हेतु पूर्वोक्त नैऋत्य, दक्षिण और पश्चिम दिशा में ही निषीधिका स्थान करना चाहिए। ‘‘निषद्यास्थान में तृण का संस्तर बनाना चाहिए जो कि सम हो, यदि संस्तर विषम होता है तो साधुओं में मरण या व्याधि आदि अनेकों हानियाँ होती हैं। इन सब बातों को आगम से ही विशेष समझना चाहिए।’’ यदि पंचक आदि अशुभ काल में मुनि का मरण हुआ है, तो संघ की शांति हेतु आगमोक्तविधि करनी चाहिए। पुन: अर्हंत भगवान् की पूजा आदि करके शांति करना चाहिए। अनन्तर चारों आराधनाओं की प्राप्ति हेतु संघ मिलकर कायोत्सर्ग करके क्षपक की वसतिका के अधिष्ठित देवता से ‘‘संघ यहाँ बैठना चाहता है’’ ऐसा पूछकर इच्छाकार करते हैं। यदि अपने गण के मुनि का मरण हुआ, तो सभी साधु उपवास करते हैं और उस दिन स्वाध्याय नहीं करते हैं। यदि परगण के मुनि का मरण हुआ है, तो उपवास में विकल्प है अर्थात् करें या न भी करें किन्तु स्वाध्याय वर्जित ही है।’’ साधुओं की समय-समय पर मुनियों के निषद्या की वंदना बड़ी भक्ति से करनी चाहिए। सल्लेखना कराने वाले निर्यापक आचार्य महान् तीर्थ स्वरूप हैं, पूज्य हैं और क्षपक भी पुण्यतीर्थरूप हैं, वन्दना करने योग्य हैं। जब तपोधनों के द्वारा सेवित पर्वत आदि तीर्थ बन जाते हैं तो पुन: क्षपक मुनि भी तीर्थभूत क्यों नहीं होगा? ‘‘यदि पूर्व ऋष्ज्ञियों की प्रतिमा की वंदना करने से भी विपुलपुण्य होता है, तो क्षपक की वंदना से क्यों नहीं होगा?’’ इसलिए क्षपक की भक्ति करना चाहिए। इस प्रकार सविचार भक्त प्रत्याख्यान का संक्षिप्त वर्णन हुआ है। अकस्मात् मरण के उपस्थित होने पर अविचार भक्त प्रत्याख्यान मरण होता हे। इसमें आचार्य या साधु यदि अन्य संघ में नहीं जा सकते हैं, तो स्वगण के साधु वर्ग ही उनकी विधिवत् परिचर्या करके सल्लेखना कराते हैं। सम्पूर्ण दोषों की आलोचना करके काय और कषायों को कृश करते हुए सबसे क्षमा कराके और सबको क्षमा करके शल्य रहित होकर महामंत्र का स्मरण करते हुए जो मरण होता है, वही सल्लेखना मरण है। सल्लेखना के यम और नियम की अपेक्षा भी दो भेद हैं। जीवनपर्यन्त के लिए चतुराहार का त्याग कर देना यम सल्लेखना है और उपसर्र्ग आदि विशेष प्रसंगों के आ जाने पर ‘‘मैं यदि इस उपसर्ग से बचूँगा तो आहार ग्रहण करूँगा अन्यथा चतुराहार का त्याग है’’ ऐसा नियम करे सल्लेखना ग्रहण करना नियम सल्लेखना है। जैसा कि अवंâपनाचार्य ने उपसर्ग के समय नियम सल्लेखना ली थी अत: उपसर्ग निवारण के बाद पुन: आहारार्थ गये। इस प्रकार से संक्षेप में सल्लेखना का वर्णन किाय है। विशेष-वर्तमान में भक्त प्रत्याख्यान नाम का एक सल्लेखना मरण ही माना गया है। उसमें भी उत्तम मध्यम जघन्य की अपेक्षा से अनुष्ठान करने वाले मुनियों में अनेकों भेद संभव हैं। सर्वकाल की अपेक्षा पंडितमरण और पंडितपंडितमरण की अपेक्षा दिगम्बर मुनियों में नाना भेद पाये जा सकते हैं।