गुणस्थानों की अपेक्षा मुनियों में भेद दर्शनमोहनीय आदि कर्मों की उदय उपशम आदि अवस्था के होने पर जीव के जो परिणाम होते हैं उन परिणामों को गुणस्थान कहते हैंं ये गुणस्थान मोह और योग के निमित्त से होते हैं। इन परिणामों से सहित जीव गुणस्थान वाले कहलाते हैं। इनके १४ भेद हैं- मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसांपराय, उपशांतमोह, क्षीणमोह, सयोगकेवलीजिन और अयोगकेवलीजिन।
१. मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से होने वाले तत्त्वार्थ के अश्रद्धान को मिथ्यात्व गुणस्थान कहते हैं। इस गुणस्थान वाले मिथ्यादृष्टि जीव को सच्चा धर्म अच्छा नहीं लगता है।
२. उपशम सम्यक्त्व के अंतर्मुहूर्त काल में जब कम से कम एक समय या अधिक से अधिक छह आवली प्रमाण काल दोष शेष रहे, उतने काल में अनंतानुबंधी क्रोधादि चार कषाय में से किसी एक का उदय आ जाने से सम्यक्त्व की विराधना हो जाने पर सम्यक्त्व से तो गिर गया है। किन्तु मिथ्यात्व में अभी नहीं पहुँचा है।
३. सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से केवल सम्यक्त्वरूप परिणाम न होकर जो मिश्ररूप परिणाम होता है, उसे मिश्र गुणस्थान कहते हैं।
४. दर्शनमोहनीय और अनंतानुबंधी कषाय के उपशम आदि के होने पर जीव का जो तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप परिणाम होता है वह सम्यक्त्व है। सम्यक्त्व के तीन भेद हैं-उपशम सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व और वेदक या क्षायोपशमिक सम्यक्त्व। दर्शन मोहनीय की तीन और अनंतानुबंधी की चार ऐसी ७ प्रकृतियों के उपशम से उपशम और क्षय से क्षायिक समयक्त्व होता है तथा सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से वेदक सम्यक्त्व होता है। इस गुणस्थान वाला जीव जिनेन्द्र कथित प्रवचन का श्रद्धान करता है तथा इंद्रियों के विषय आदि से विरत नहीं हुआ है। इसलिए अविरत सम्यग्दृष्टि कहलाता है।
५. सम्यग्दृष्टि के अणुव्रत आदि एकदेशव्रतरूप परिणाम को देशविरत गुणस्थान कहते हैं। देशव्रती जीव के प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से महाव्रतरूप पूर्ण संयम नहीं होता है।
६. प्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षयोपशम से सकल संयम रूप मुनिव्रत तो हो चुके हैं। किन्तु संज्वलन कषाय और नोकषाय के उदय से संयम में मल उत्पन्न करने वाला प्रमाद भी होता है। अत: इस गुणस्थान को प्रमत्तविरत कहते हैं। यह गुणस्थान दिगम्बर मुनियों के होता है।
७. संज्वलन कषाय और नोकषाय का मंद उदय होने से संयमी मुनि के प्रमाद रहित संयमभाव होता है। तब यह अप्रमत्तविरत गुणस्थान होता है। इसके दो भेद हैं-स्वस्थान प्रमत्त और सातिशय अप्रमत्त। जब मुनि शरीर और आत्मा के भेद विज्ञान में तथा ध्यान में लीन रहते हैं तब स्वस्थान अप्रमत्त होता है और जब श्रेणी के सन्मुख होते हुए ध्यान में प्रथम अध:प्रवृत्तकरण रूप परिणाम होता है। तब सातिशय अप्रमत्त होता है। आजकल पंचमकाल में स्वस्थान अप्रमत्त मुनि हो सकते हैं सातिशय अप्रमत्त परिणाम वाले नहीं हो सकते हैं।
८. जिस समय भावों की विशुद्धि से उत्तरोत्तर अपूर्व परिणाम होते जायें। अर्थात् भिन्न समयवर्ती मुनि के परिणाम विसदृश ही हों। एक समयवर्ती जीवों के परिणाम सदृश भी हों, उसको अपूर्वकरण कहते हैं।
९. जिस गुणस्थान में एक समयवर्ती नाना जीवों के परिणाम सदृश ही हों और भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम विसदृश ही हों उनको अनिवृत्तिकरण कहते हैं। अध:प्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीनों करणों के परिणाम प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धि लिए हुए हैं।
१०. अत्यन्त सूक्ष्म अवस्था को प्राप्त लोभकषाय के उदय को अनुभव करते हुए जीव के सूक्ष्मसांपरायगुणस्थान होता है।
११. सम्पूर्ण मोहनीय कर्म के उपशम होने से अत्यन्त निर्मल यथाख्यात चारित्र को धारण करने वाले मुनि के उपशांतमोहगुणस्थान होता है। इस गुणस्थान का काल समाप्त होने पर जीव मोहनीय का उदय आ जाने से नीचे के गुणस्थानों में आ जाता है।
१२. मोहनीय कर्म के सर्वथा क्षय हो जाने से स्फटिकमणि के निर्मल पात्र में रखे गये जल के सदृश निर्मल परिणाम वाले निग्र्रन्थ मुनि क्षीणकषाय नामक गुणस्थान वाले होते हैं।
१३. घातियाँ कर्म की ४७, अघातियाँ कर्मों की १६ इस तरह ६३ प्रकृतियों के सर्वथा नाश हो जाने से केवलज्ञान प्रगट हो जाता है। उस समय अनन्त चतुष्ट्य और नवकेवललब्धि प्रगट हो जाती हैं। किन्तु योग पाया जाता है। इसलिए वे अरिहंत परमात्मा संयोगिकेवली जिन कहलाते हैं।
१४. सम्पूर्ण योगों से रहित केवली भगवान् अघाति कर्मों का अभाव कर मुक्त होने के सन्मुख हुए अयोगकेवली जिन कहलाते हैं। इस गुणस्थान में शेष अरिहंत भगवान शेष ८५ प्रकृतियों को नष्ट करके सर्व कर्म रहित सिद्ध हो जाते हैं और एक समय में लोक के शिखर पर पहुँच जाता है।
प्रश्न – श्रेणी किसे कहते हैं ?
उत्तर – जिन परिणामों से चारित्र मोहनीय की शेष २१ प्रकृतियों का क्रम से उपशम या क्षय किया जाता है उन परिणामों को श्रेणी कहते हैं।
इसके दो भेद हैं –उपशमश्रेणी और क्षपक श्रेणी। जहाँ मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का उपशम किया जाये, वह उपशम श्रेणी है। जहाँ क्षय किया जाये, वह क्षपक श्रेणी है। आठवें से ग्यारहवें तक चार गुणस्थानों में उपशम श्रेणी होती है। इसमें चढ़ने वाला जीव नियम से नीचे गिरता है। आठवें, नवमें, दशवें और बारहवें में क्षपक श्रेणी होती है। इसमें चढ़ने वाला जीव नियम से घाति कर्मों का नाश कर केवली भगवान हो जाता है।
प्रत्येक गुणस्थान का काल कितना है सो बताते हैं-‘‘मिथ्यात्व का काल अनादि अनंत, अनादि-सान्त और सादि-सान्त ऐसे तीन प्रकार का है। अभव्य और दूरानुदूर भव्यों का काल अनादि-अनन्त है। भव्यों का काल अनादिसांत है और जो सम्यग्दर्शन प्राप्त करके पुन: मिथ्यादृष्टि हुए हैं उनका काल सादि-सान्त है। यह सादि-सान्त काल कम से कम अंतर्मुहूर्त है और अधिक से अधिक कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तनमात्र है। सासादन सम्यग्दृष्टि का जघन्यकाल एक समय और उत्कृश्टा काल छह आवली प्रमाण है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि का जघन्य काल लघु अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। असंयतसम्यग्दृष्टि का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ अधिक तेतीस सागरोपम है। संयतासंयत का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल आदि के तीन अन्तर्मुहूर्तों से कम पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण है। प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत का जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। चारों उपशामकों का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इनमें से प्रत्येक का काल भी इसी प्रकार जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त ही है। चूँकि अन्तर्मुहूर्त में असंख्यात भेद हैं। चारों क्षपकों का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल भी अंतर्मुहूर्त है और इनमें से प्रत्येक का अलग-अलग भी काल अंतर्मुहूर्त है। सयोगकेवली का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल आठ वर्ष और आठ अन्तर्मुहूर्तों से कम पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण है। अयोगकेवली का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल भी अन्तर्मुहूर्त है।’’
‘‘मिथ्यादृष्टि जीव पापजीव हैं, ये अनन्तानन्त हैं। सासादन सम्यग्दृष्टि जीव पापजीव हैं, ये पल्य के असंख्यातवें भाग हैं। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत भी पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। इनमें से सम्यग्मिथ्यादृष्टि भी पाप जीव हैं और सम्यग्दृष्टि सहित जीव अथवा व्रतसहित जीव पुण्यजीव हैं।’’ ‘‘मनुष्यों की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि मनुष्य जगश्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। सासादन गुणस्थान में मनुष्य बावन करोड़ हैं। मिश्र गुणस्थान में स्थान एक सौ चार करोड़ हैं। असंयत गुणस्थानवर्ती सात सौ करोड़ हैं। देशसंयत तेरह करोड़ हैं।’’ प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती पाँच करोड़, तिरानवे लाख, अठानवे हजार दो सौ छह हैं। अप्रमत्तगुणस्थान वाले दो करोड़, छ्यानवे लाख निन्यानवे हजार एक सौ तीन हैं। उपशमश्रेणी वाले चारों गुणस्थानवर्ती ११९६, क्षपकश्रोण्ी वाले चारों गुणस्थानवर्ती २३९२, सयोगी जिन ८९८५०२ हैं और अयोगीकेवलियों का प्रमाण ५९८ हैं। इन सबका जोड़ करने पर ५९३९८२०६±२९६९९१०३±११९६±२३९२± ८९८५०२±५९८±८९९९९९९७ है। अर्थात् ‘‘छट्ठे गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक सर्वसंयमियों का प्रमाण तीन कम नव करोड़ हैं। इन सबको मैं सिर नवाकर त्रिकरणशुद्धिपूर्वक नमस्कार करता हूँ।’’
विशेष- भावों की अपेक्षा छठे गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक के जीव दिगम्बर मुनि होते हैं। उपर्युक्त संख्या भावलिंगी मुनियों की अपेक्षा है। द्रव्य की अपेक्षा दिगम्बर मुनियों में भी कदाचित् पहले गुणस्थान से पाँचवाँ तक भी रह सकता है तब वे मुनि द्रव्यलिंगी कहलाते हैं। द्रव्य से मुनि होने वाले द्रव्यलिंगी ही क्यों न हों किन्तु वे ही सोलहवें स्वर्ग के ऊपर नवग्रैवेयक तक भी जा सकते हैं किन्तु द्रव्य से भी जो मुनि नहीं है ऐसे उत्कृष्ट श्रावक (ऐलक-क्षुल्लक) या आर्यिकाएँ सोलहवें स्वर्ग के ऊपर नहीं जा सकते हैं। इस प्रकार छठे से लेकर चौदहवें तक गुणस्थानों की अपेक्षा अथवा द्रव्यलिंगी और भावलिंगी की अपेक्षा भी दिगम्बर मुनियों में भेद हो जाता है। द्रव्यलिंगी में सभी मिथ्यादृष्टि ही नहीं होते हैं किन्तु चतुर्थ या पंचम गुणस्थानवर्ती भी होते हैं।
कर्म निर्जरा की अपेक्षा मुनियों में भेद –‘‘सम्यग्दृष्टि, श्रावक, विरत अनंतानुबंधीविसंयोजक, दर्शन मोहक्षपक, उपशमक, उपशांतमोह, क्षपक, क्षीणमोह और जिन ये क्रम से असंख्यातगुण निर्जरा वाले होते हैं।’’ अर्थात् सम्यक्त्व को प्राप्त करने में कुछ ही क्षण जिससके बाकी हैं ऐसा अपूर्वकरण आदि परिणामों को प्राप्त करता हुआ जीव सातिशय मिथ्यादृष्टि कहलाता है। उसकी अपेक्षा सम्यक्त्व प्राप्त हो जाने पर सम्यग्दृष्टि जीव के कर्मों की निर्जरा असंख्यातगुणी अधिक होती है। सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा देशव्रती के निर्जरा असंख्यातगुणी अधिक होती है। देशव्रती की अपेक्षा मुनि के निर्जरा असंख्यातगुणी अधिक होती है। ऐसे जो अनंतानुबंधी का विसंयोजन (अप्रत्याख्यान में परिणाना) करने वाले हैं, जो दर्शन मोहनीय का क्षय करके क्षायिक सम्यग्दृष्टि हैं, जो उपशमश्रेणी पर चढ़े हैं, जो ग्यारहवें गुणस्थान में मोह का पूर्णतया उपशमन कर चुके हैं, जो क्षपक श्रेणी पर चढ़े हैं, जो मोहनीय का क्षय करके बारहवें गुणस्थान में क्षीणमोह हो चुके हैं और जो सयोगकेवली जिन हैं। इन सबमें पूर्व-पूर्व की अपेक्षा आगे-आगे वाले में असंख्यातगुण श्रेणीरूप से निर्जरा अधिक-अधिक होती चली जाती है। आज के युग में मात्र-विरत, पर्यंत-अर्थात् छठे सातवें गुणस्थान वाले ही मुनि होते है। अन्य नहीं होते। विशेष-जो ये निर्जरा के स्थान बताये हैं, उनमें भी प्रत्येक स्थानों में जीवों के भावों की अपेक्षा निर्जरा में तरतमता हो जाती है। इन निर्जरा करने वाले की अपेक्षा भी दिगम्बर मुनियों में भेद हो जाता है।