चतुर्वर्ण श्रमण संघ से ऋषि, मुनि, यति और अनगार ऐसे चार भेद रूप साधु लिये जाते हैं।
१.ऋषि-ऋद्धि को प्राप्त हुए साधु ऋषि कहलाते हैं। इनके भी चार भेद हैं-राजर्षि, ब्रह्मर्षि, देवर्षि और परमर्षि। विक्रिया ऋद्धि और अक्षीण ऋद्धिधारी राजर्षि हैं। बुद्धि ऋद्धि और औषधि ऋद्धिधारी ब्रह्मर्षि हैं। गगन गमन ऋद्धि से सम्पन्न साधु देवर्षि कहलाते हैं। केवलज्ञानी भगवान परमर्षि कहे जाते हैं।
२.अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी और केवलज्ञानी मुनि कहलाते हैं।
३.उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी कर आरोहण करने वाले यति कहलाते हैं।
४.सामान्य साधु अनगार कहे जाते हैं।
५.नैगमनय की अपेक्षा से इन सभी को अनगार मुनि, यति, भिक्षुक, साधु, संयमी, तपस्वी और निर्र्ग्रन्थ आदि शब्दों से कहते हैं। आज के युग में उपर्युक्त चार प्रकार के साधुओं में से मात्र अनगार साधुओं का ही अस्तित्व है। विशेष-यद्यपि ये सभी दिगम्बर मुनि होते हैं फिर भी इन भेदों की अपेक्षा भी मुनियों में भेद हो जाते हैं।
चतुर्विध संघ
मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका इनको चतुर्विध संघ कहते हैं।
मुनि –आचार्य, उपाध्याय, साधु ये सभी मुनि शब्द से कहे जाते हैं।
आर्यिका –ये पूर्वोक्त अट्ठाईस मूलगुण और समाचार विधि का पालन करने वाली हैं। साड़ी मात्र परिग्रह धारण करती हैं। अर्थात् एक बार में एक साड़ी ही पहनती हैं, ऐसे दो२ साड़ी का परिग्रह रहता है। इसलिए उपचार से महाव्रती हैं। आतापन योग आदि के सिवाय बाकी सभी क्रियाएँ मुनियों के समान करती हैं और बैठकर एक बार करपात्र में आहार लेती हैं। इन्हें शास्त्रों में संयतिका, संयता, संयमिनी श्रमणी और महाव्रतिनी शब्दों से भी सम्बोधित किया है। यथा-‘
‘‘समीपे चंदनार्याया: जगृहु: संयमं परं।’’ प्रथमानुयोग में ऐसे अनेकों उदाहरण पाये जाते हैं।
श्रावक-श्राविका
पहली प्रतिमा से लेकर ग्यारहवीं प्रतिमा तक श्रावक के ११ स्थान होते हैं५। उनके दर्शन प्रतिमा आदि नाम हैं-
१.दर्शन प्रतिमा-शुद्ध सम्यग्दर्शन का धारी संसार, शरीर और भोगों से विरक्त पंचपरमेष्ठी का उपासक, वास्तविक मार्ग में चलने वाला श्रावक दर्शन प्रतिमाधारी है।
२.व्रत प्रतिमा-अतिचाररहित पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों को पालन करने वाला द्वितीय व्रत प्रतिमाधारी है।
३. सामायिक प्रतिमा-विधिवत् त्रिकाल सामायिक करने वाला सामायिक प्रतिमाधारी है।
४. प्रोषध प्रतिमा-प्रत्येक मास की दोनों अष्टमी और दोनों चतुर्दशी को उत्कृष्ट प्रोषधोपवास या उपवास या जघन्यरूप से एकाशन करने वाला चतुर्थ प्रतिमाधारी है।
५.सचित्तत्यागप्रतिमा-मूल, फल, शाक आदि को प्रासुक करके खाने वाला एवं जल को प्रासुक करके पीने वाला पंचम प्रतिमाधारी है।
६.रात्रिभुक्तिविरत प्रतिमा-रात्रि में अन्न आदि चारों प्रकार के आहार का त्याग करने वाला छठी प्रतिमाधारी है।
७. ब्रह्मचर्य प्रतिमा-पूर्णतया मैथुन से विरक्त होकर ब्रह्मचर्य पालन करने वाला सातवीं प्रतिमाधारी प्रेह्मचारी है।
८.आरंभत्याग प्रतिमा-सेवा, कृषि, व्यापार आदि आरंभ का त्याग करने वाला आठवीं प्रतिमाधारी है।
९.परिग्रहत्याग प्रतिमा-अपने उपयोग में आने वाले परिग्रह के सिवाय बाकी धन धान्यादि परिग्रह का त्याग करने वाला नवमीं प्रतिमाधारी है।
१०.अनुमतित्याग प्रतिमा-गृह संबंधी विवाह या व्यापार संबंधी अनुमति को नहीं देने वाला दशवीं प्रतिमाधारी है।
११. उद्दिष्टत्याग प्रतिमा-गृह का त्याग करके मुनियों के संघ में जाकर व्रतों को ग्रहण कर भिक्षावृत्ति से भोजन करने वाला, खंडवस्त्रधारी, उत्कृष्ट श्रावक ग्यारहवीं प्रतिमाधारी हैं। इस ग्यारहवीं प्रतिमाधारी के दो भेद हैं-क्षुल्लक और ऐलक।
क्षुल्लक – इसके हाथ में मयूरपिच्छिका और काष्ठ का कमण्डलु रहता है। लंगोटी और चादर रहती है। चादर खंडवस्त्र रूप अर्थात् कुछ छोटी रहती है। ऐसे दो लंगोटी और दो चादररूप परिग्रह इनके पास रहता है। ये चाहें तो केशलोंच करें अथवा केची या उस्तरा आदि से केश निकाल सकते हैं। गुरु के पीछे जो गोचरी वृत्ति से जाकर श्रावक के यहाँ पड़गाहन विधि से पहुचकर अघ्र्य आदि चढ़ाने के बाद बैठकर कटोरी अथवा थाली में भोजन करते हैं।
अन्य विधि भी कही गई है- ‘‘गुरु की आज्ञा से ग्रहण किये हुए अपने पात्र को स्वच्छ कर चर्या के लिए श्रावक के घर में प्रवेश करते हैं आँगन में ठहरकर ‘‘धर्मलाभ’’ कहकर भिक्षा लेते हैं। ऐसे मौनपूर्वक एक दो, या पाँच सात आदि घर से भिक्षा लेकर पश्चात् किसी एक के घर में बैठकर आहार करके अपना पात्र प्रक्षालन करके गुरु के पास आ जाते हैं। यदि ऐसी प्रवृत्ति नहीं रुचती है तो गुरु की गोचरी चर्या के अनन्तर श्रावक के घर में गोचरी वृत्ति से जाकर ग्रहण करते हैं।’’
ऐलक – उपर्युक्त व्रतों को पालते हुए लंगोटी मात्र (दो लंगोटी) परिग्रह रखते हैं। नियम से केशलोंच करते हैं और पाणिमात्र-अपने हाथ की अंजुलियों में ही आहार करते हैं। ‘‘इन क्षुल्लक, ऐलक को भी दिन में प्रतिमायोग, सिद्धान्त शास्त्र और प्रायश्चित्त शास्त्रों का अध्ययन वीरचर्या और त्रिकाल योग करने का अधिकार नहीं है।’’ स्त्रियों में क्षुल्लिका ही एक भेद रहता है दो भेद नहीं है। ये क्षुल्लिकाएं भी एक धोती और एक चादर रखती हैं। अर्थात् दो धोती दो चादर मात्र परिग्रह रहता है। मयूर पंख की पिच्छी और कमण्डलु रखती हैं। क्षुल्लक के समान व्रतों का पालन करते हुए आर्यिकाओं के पास में रहती हैं और प्रतिक्रमण आदि आवश्यक क्रियाओं में तत्पर रहती हैं। पहली प्रतिमा से छठी तक गृहस्थ कहलाते हैं। सातवीं प्रतिमाधारी ब्रह्मचारी गृहविरत और गृहनिरत के भेद से दो प्रकार के होते हैं। आगे के प्रतिमाधारी मुनि संघों में रहते हैं या मंदिर आदि में भी रहते हैं। पहली प्रतिमा से छठी तक जघन्य, सातवीं से नवमीं तक मध्यम और दशवीं, ग्यारहवीं प्रतिमाधारी उत्कृष्ट श्रावक कहलाते हैं। आचार्यों ने इन्हें उपासक भी कहा है। यथा- ‘‘सम्पूर्णरूप पाँचों पापों का त्याग करने वाले यति समयसार स्वरूप हैं और जो एकदेश त्याग करने वाले हैं वे उपासक होते हैं।’’ श्रावक के पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक ऐसे भी तीन भेद माने हैं। उनमें से जिसके हिंसादि पाँच पापों का त्यागरूप पक्ष है तथा जो अभ्यासरूप से श्रावकधर्म का पालन करता है, वह पाक्षिक है। जो निरतिचार श्रावक धर्म का पालन करता है अर्थात् पहली प्रतिमा से लेकर दशवीं प्रतिमा तक के पालने वालों में से कोई भी हो नैष्ठिक है। जिसका देशसंयम पूर्ण हो चुका है और जो आत्मध्यान में लीन होकर समाधिमरण करता है, वह साधक कहलाता है। इन श्रावक के व्रतों को पालन करने वाले पुरुष और स्त्री श्रावक और श्राविका कहलाते हैं। विशेष – इन चतुर्विध संघ में प्रथम भेदरूप मुनि ही दिगम्बर होते हैं। उनमें भी संघ की अपेक्षा आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणधर ऐसे पाँच भेद माने गये हैं। इनकी अपेक्षा भी मुनि में भेद हो जाते हैं।