इस युग में निर्दोष साधु समुदाय रहेगा कुंदकुंदादि निर्ग्रन्थाचार्य स्वयं पंचमकाल में हुए हैं, और उन्होंने स्वयं पंचमकाल में निर्दोष मुनियों का अस्तित्व सिद्ध किया है- भगवान श्री कुन्दकुन्ददेव कहते हैं- ‘‘इस भरतक्षेत्र में और पंचमकाल में आत्मस्वभाव में स्थित होने पर साधु को धर्मध्यान होता है। जो इस बात को नहीं मानते हैं वे अज्ञानी हैं। आज भी रत्नत्रय से शुद्ध साधु आत्मा का ध्यान करके इंद्रपद अथवा लौकांतिक पद को प्राप्त कर लेते हैं और वहाँ से च्युत होकर मोक्ष चले जाते हैं।’’ अन्यत्र भी कहा है-‘‘इस कलिकाल में भी कहीं कोई पुण्यशाली मुनि होते हैं जो कि मिथ्यात्व आदि कलंक पंक से रहित हैं, सच्चे धर्म की रक्षा करने में मणिस्वरूप हैं, अनेक परिग्रह के विस्तार को छोड़ चुके हैं और पापरूपी वन को दग्ध करने में पावकवरूप हैं। सो ये मुनि वर्तमानकाल में भूतल पर पूजे जाते हैं पुन: स्वर्ग में देवों द्वारा श्री पूजे जाते हैं।२’’ श्री गुणभद्र स्वामी कहते हैं- ‘‘जो स्वयं मोह को छोड़कर कुलपर्वत के समान पृथ्वी का उद्धार अथवा पोषण करने वाले हैं, जो समुद्रों के समान स्वयं धन की इच्छा से रहित होकर रत्नों की निधि खान अर्थात् स्वामी हैं तथा जो आकाश के समान व्यापक होने से किन्हीं के द्वारा स्पर्शित न होकर विश्व की विश्रांति के लिए हैं ऐसे अपूर्व गुणों के धारक चिरन्तन-महामुनियों के शिष्य-निकट रहने वलो, सन्मार्ग के अनुष्ठान में तत्पर कितने ही साधु आज भी विद्यमान हैं।’’ वर्तमान में साक्षात् केवली भगवान व श्रुतकेवली नहीं है। फिर भी उनके वचन और उन वचनों के अनुरूप प्रवृत्ति करने वाले साधु विद्यमान हैं। श्री पद्मनन्दि आचार्य कहते हैं-
संप्रत्यस्ति न केवली किल कलौ त्रैलोक्यचूड़ामणि:,
तद्वाच: परमासतेऽत्र भरतक्षेत्रे जगद्द्योतिका:।
सद्रत्नत्रयधारिणो मतिवरास्तासां समालम्बनं,
तत्पूजा जिनवाचि पूजनमत: साक्षाज्जिन: पूजित:।।६८।।
इस समय इस कलिकाल में भरतक्षेत्र के भीतर त्रैलोक्य चूड़ामणि केवली भगवान विराजमान नहीं है। पिुर भी लोक को प्रकाशित करने वाले उनके वचन तो वहाँ विद्यमान हैं ही और उनके वचनों को आश्रय अवलंबन लेने वाले सद् रत्नत्रयधारी श्रेष्ठ यतिगण मौजूद हैं। इसलिए उन मुनियों की पूजा जिनवचनों की ही पूजा है और साक्षात् जिनदेव की ही पूजा की गई है, ऐसा समझना।’’ पूर्वाचार्यों ने मुनियों के प्रति श्रावकों के लिए क्या आदेश दिया है- इस कलिकाल में मनुष्यों का चित्त चंचल रहता है और शरीर अन्न का कीड़ा बना हुआ है। यह बड़ी आश्चर्य की बात है कि जो आज भी जिनरूप को धारण करने वाले मनुष्य विद्यमान हैं। जैसे लेपादि-पाषाण वगैरह से निर्मित जिनेन्द्रदेवों की प्रतिमाएँ पूज्य हैं, वैसे ही आजकल के मुनियों को भी पूर्वकाल के मुनियों की प्रतिकृति मानकर पूजना चाहिए। आहारमात्र प्रदान के लिए तपस्वियों की परीक्षा क्या करना? वे सज्जन हों या दुर्जन। गृहस्थ तो दान से शुद्ध हो जाता है। सब तरह के आरंभ में प्रवृत्त हुए गृहस्थों का धनव्यय बहुत प्रकार से हुआ करता है। इसलिए अत्यर्थ सोच-विचार नहीं करना चाहिए। मुनिजन जैसे-जैसे तप, ज्ञान आदि गुणों से विशेष होवें, वैसे-वैसे गृहस्थों को उनकी अधिक पूजा (समादर) करना चाहिए। धन बड़े भाग्य से मिलता है। अत: भाग्यशाली पुरुषों को आगमानुकूल कोई मुनि मिले या न मिले, किन्तु उन्हें अपना धन जैन-धर्माश्रितों में अवश्य खर्च करना चाहिए। जिनेन्द्रदेव का यह शासन अनेक प्रकार के ऊँच और हीन जनों से भरा हुआ है। जैसे मकान एक खंभे पर नहीं ठहर सकता है, वैसे ही यह शासन-जैनधर्म भी एक पुरुष के आश्रय से नहीं ठहर सकता है। नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव निक्षेप की अपेक्षा से मुनि चार प्रकार के होते हैं और वे सभी दान, सन्मान आदि के योग्य हैं। गृहस्थों को पुण्य उपार्जन करने में जिनबिम्बो के समान उन चार प्रकार के मुनियों में उत्तरोत्तर रूप से विशेष-विशेष विधि हो जाती है।’’ अन्यत्र भी कहा है- ‘‘इस कलिकालरूपी वर्षाकाल में सम्पूर्ण दिशाएँ मिथ्या उपदेशरूपी बादलों से व्याप्त हो रही हैं, बडे खेद की बात है कि ऐसे समय में सदुपदेश देने वाले गुरु जुगुनू के समान क्वचित्-क्वचित् ही चमकते हैं। अत: क्या करना चाहिए ? सो ही बताते हैं- जैसे पाषाण आदि की प्रतिमाओं में जिनेन्द्रदेव की स्थापना करके पूजते हैं वैसे ही ऐदंयुगीन-आजकल के मुनियों में पूर्व के मुनियों की स्थापना करके भक्ति से उनकी अर्चा करिये। क्योंकि अतिचर्चा-अतिक्षोदक्षेम करने वालों का हित कैसे हो सकता है ?’’ पंचमकाल के अंत तक चतुर्विध संघ का अस्तित्व रहेगा तभी तक धर्म भी रहेगा और तभी तक राजा का अस्तित्व सुना जायेगा तथा अग्नि का अस्तित्व भी तभी तक रहेगा। चतुर्विध संघ के अभाव में धर्म नहीं रहेगा और धर्म के अभाव में अग्नि भी नहीं रहेगी। यथा- ‘‘अंतिम इक्कीसवें कल्की के समय में वीरांगज नामक मुनि, सर्वश्री नाम की आर्यिका तथा अग्निदत्त और पंगुश्री नामक श्रावक युगल होंगे। कल्की की आज्ञा से मंत्री मुनिराज के आहार के समय उनसे प्रथम, ग्रास को शुल्करूप में मांगेंगे, तब मुनिराज तुरंत उसे देकर अन्तराय समझकर आहार छोड़कर वापस चले आयेंगे, उन्हें उसी समय अवधिज्ञान उत्पन्न हो जावेगा। पुन: आर्यिका तथा श्रावक-श्राविका को बुलाकर कहेंगे कि अब दुषमाकाल का अंत आ चुका है, तुम्हारी और हमारी तीन दिन की आयु शेष है। पुन: वे चारों जन चतुराहार और परिग्रहादि को जन्मपर्यन्त छोड़कर संन्यास ग्रहण करेंगे। वे सब कार्तिक कृष्णा अमावस्या के प्रात: स्वातिनक्षत्र में शरीर छोड़कर सौधर्म स्वर्ग में उत्पन्न होंगे। ‘‘उसी दिन मध्यान्ह में क्रोध से कोई असुरकुमार का देव कल्की राजा को मार डालेगा और सूर्यास्त के समय अग्नि नष्ट हो जावेगी।’’ ‘‘इसके बाद तीन वर्ष आठ मास और एक पक्ष के बीत जाने पर महाविषम अतिदुषमा नामक छठा काल शुरू हो जावेगा।’’ इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि पंचमकाल के अंत तक मुनियों का अस्तित्व रहेगा, पुन: आज कौन सी बात है क्यों नहीं है ? क्या उस समय आज की अपेक्षा मुनियों के आहार विहार में विशेषता आ सकती है ? क्या उस समय श्रावक आज की अपेक्षा भी अधिक विवेकशील सदैव शुद्ध भोजन करने वाले होकर चाहे कोई भी चाहे जिस काल में साधु को पड़गाहन कर सकेगे ? क्या उस समय मुनियों का संहनन आज की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली हो सकेगा ? क्या वे जिनकल्पी चर्या कर सवेंगे ? यदि नहीं, तो आज भी मुनियों की चर्या वाले निर्दोष साधु अवश्य हैं और वे भावलिंगी भी हैं सभी द्रव्यलिंगी नहीं है। यदि कोई द्रवयलिंगी हो भी तो उसका ज्ञान सर्वज्ञ के सिवाय अन्य किसी को नहीं हो सकता है। वास्तव में जो द्रव्यलिंगी नवग्रैवेयक तक जा सकते हैं तो बाहर से हीनचारित्र वाले या भ्रष्ट चारित्र वाले नहीं हो सकते हैं। वे महातपस्वी ज्ञान ध्यान में तत्पर निरतिचार चर्या पालने वाले ही होते हैं फिर भी कहाँ किस रूप में मिथ्यात्वकण विद्यमान हैं। जिसका पता हम और आपको नहीं लग सकता है।
प्रश्न-द्रव्यलिंगी किसे कहते हैं ?
उत्तर –जो साधु मुनिवेष धारण तो कर चुके हैं, अत: द्रव्य में लिंग धारण करने से द्रव्यलिंंगी हैं। वे छठे-सातवें गुणस्थान के परिणामों में रहते हैं अत: वे भाव से भी मुनि होने से भावलिंगी हैं। किन्तु यदि मुनि का गुणस्थान पाँचवाँ, चौथा या पहला है तो वे द्रव्यलिंगी हैं। यह परिणामों की स्थिति जानना सर्वज्ञगम्य ही है। संघ में जो साधु रहते हैं वहाँ परस्पर में वंदना-प्रतिवंदना करने में वे परिणामों की सूक्ष्म व्यवस्था को नहीं देखते हैं प्रत्युत् बाहरी क्रियाओं से ही नमस्कार आदि में प्रवृत्त होते हैं। जैसे-भवदेव-भावदेव मुनि और वारिषेण-पुष्पडाल का जगत्प्रसिद्ध है।
द्रव्यलिंग-भावलिंग
नीतिसार में कहते हैं कि- ‘‘द्रव्यलिंग को धारण करके ही यति भावलिंगी होता है। अर्थात् ऐसा नहीं है कि पहले भावलिंग हो जावे पुन: द्रव्यलिंग हो। जैसे धान्य के ऊपर का छिलका अलग करने के बाद ही अन्दर की लालिमा को दूर करके चावल स्वच्छ किया जाता है। किन्तु अन्दर की लालिता दूर करके ऊपर का छिलका कोई निकालना चाहे यह असंभव है। अत: द्रव्यलिंग निग्र्रन्थ अवस्था धारण किये बिना नाना व्रतों को धारण करते हुए भी कोई पूज्य नहीं हो सकता है। अचेलकता-नग्नता, शिर और दाढ़ी, मूँछ के केशों का लोंच, आमरण आदि से रहित होने से संस्कार रहित शरीर और मयूरपिच्छिका को धारण करना ये चार चिन्ह माने गये हैं। यह द्रव्यलिंग ही भावलिंग का कारण है। भावलिंग तो आन्तरिक परिणामरूप होने से नेत्रइंद्रिय का विषय नहीं है अत; वह स्पष्ट नहीं हो सकता है। मुद्रा ही सर्वत्र मान्य होती है मुद्रारहित कोई भी मान्य नहीं होता है तथा राजमुद्रा को धारण करने वाला ही अत्यंतहीन भी हो, तो भी राजा माना जाता है अथवा राजा के कर्मचारी (सिपाही) की मुद्रा से सहित ही कोई मनुष्य राजकर्मचारी माना जाता है अन्यथा नहीं।’’
आज का संहनन कैसा है ?
आज पंचमकाल में हीन संहनन है। अर्थात् संहनन के छह भेद हैं-वङ्कावृषभनाराच, वङ्कानाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलक और असंप्राप्तसृपाटिका। इनमें से आदि के तीन संहनन उत्तम माने हैं और आगे के तीन संहनन हीन कहे गये हैं। पंचमकाल में कर्मभूमि में तीन उत्तम संहननों का अभाव है। इन तीन संहननों के बिना कोई भी मुनि उपशम श्रेणी पर नहीं चढ़ सकते हैं। अर्थात् आठवें, नवमें, दशवें, ग्यारहवें गुणस्थानों में नहीं जा सकते हैं और न सोलहस्वर्ग के ऊपर ही जा सकते हैं और न शुक्ल ध्यान को ही प्राप्त कर सकते हैं न अधिक परीषह-उपसर्ग को ही झेल सकते हैं। इसमें से भी एक ‘वङ्कावृषभनाराच संहनन’ से ही क्षपक श्रेणी पर चढ़ सकते हैं और मोक्ष प्राप्त करते हैं। द्वितीय, तृतीय संहनन से नहीं।