प्रश्न-क्या साधु मंदिर, धर्मशाला या घर आदि में ठहर सकते हैं ?
उत्तर – ठहर सकते हैं। चतुर्थ काल में भी ठहरते थे, ऐसे उदाहरण मौजूद हैं। यथा-‘‘एक समय सुरमन्यु, श्रीमन्यु, श्रीनिचय, सर्वसुन्दर, जयवान, विनयलालस और जयमित्र ये सप्त ऋषि अयोध्या में आहारार्थ आये। ‘‘आहार के अनंतर शुद्ध निर्दोष प्रवृत्ति करने वाले मुनियों से व्याप्त ऐसे अर्हंत भगवान् के उस मंदिर में गये जहाँ कि मुनिसुव्रत की प्रतिमा विराजमान थी। ये सातों ऋषि चार अंगुल अधर चल रहे थे। मंदिर में विद्यमान श्रीद्युति भट्टारक (आचार्य) ने इन्हें देखा। ऋषियों ने श्रद्धा से पैदल ही मंदिर में प्रवेश किया तथा द्युतिभट्टारक ने खड़े होकर नमस्कार करना आदि भक्ति से विधिवत् उनकी पूजा की।’’ यह रामचन्द्र के समय की बात है। और भी देखिए-‘‘घटगाँव में देविल कुंभार और धर्मिल नाई ने यात्रियों के ठहरने हेतु एक धर्मशाला बनवाई। एक दिन देविल ने एक दिगम्बर मुनि को लाकर वहीं ठहरा दिया। धर्मिल को पता चलते ही मुनि को हाथ पकड़कर निकाल दिया और एक सन्यासी को लाकर ठहरा दिया। धर्मशाला से निकलकर वे मुनि एक वृक्ष के नीचे रातभर डांस, मच्छर आदि के उपसर्ग सहते रहे।’’ ‘‘उज्जयिनी के श्मशान में मणिमाली मुनि मुर्दे के आसन बाँधकर ध्यानस्थ थे। एक मंत्रवादी ने मुर्दा समझकर उनके मस्तक पर चूल्हा रख कर खीर बनाना शुरू किया। अग्नि के उपसर्ग से मुनि के मस्तक से खीर गिर गई।…..अनंतर प्रात: पता चलने पर जिनदत्त सेठ ने आकर मुझे उठाकर अपने घर ले आया, इलाज कर अच्छा किया। इधर मुनि नीरोग हुए, उधर वर्षाकाल आ गया। जिनदत्त आदि के आग्रह से वहीं चातुर्मास करके उसी के घर में रहने लगे। किसी समय जिनदत्त ने मुनि के सिंहासन के नीचे भूमि में गड्ढा करके रत्नों का एक घड़ा गाड़ दिया। चुपके से उसके व्यसनी पुत्र ने देख लिया था, सो कदाचित् निकाल ले गया। चातुर्मास के बाद मुनि के विहार कर जाने पर सेठ ने घड़ा देखा। नहीं मिलने पर मुनि पर संदिग्ध हो पुन: उनको वापस ले आया और कथाएँ-उपकथाएँ कीं।’’ यह घटना श्रेणिक राजा के समय चतुर्थ काल की है। इस प्रकार मुनि मंदिर या धर्मशाला में रहते थे, आज भी रह सकते हैं और विशेष प्रसंग में श्रावकों के घर में भी ठहर सकते हैं। अन्यत्र भी कहा है-‘‘इस भीषण कलिकाल में हीन संहनन होने से साधु स्थानीय नगर ग्रामीण के जिनालय में रहते हैं।’’ ‘‘इस समय यहाँ इस कलिकाल में मुनियों का निवास जिनमंदिर में होता है और उन्हीं के निमित्त से धर्म एवं दान की प्रवृत्ति है। इस प्रकार मुनियों की स्थिति, धर्म और दान इन तीनों के मूल कारण गृहस्थ श्रावक हैं।’’ ऐसे ही वसतिका में रहने का विधान भगवती आराधना में स्पष्ट है। यशस्तिलक चंपू में कहा है कि ‘‘यद्यपि ग्राम में अनेक वसतिकाएँ साधुओं के ठहरने के लिए थीं फिर भी वे आचार्य अवधिज्ञान से हिंसा का दिवस जानकर बाहर ही मुनिमनोहरमेखला नामक एक पर्वत पर ठहर गये।’’
(२) प्रश्न-क्या आर्यिकाएँ भी मंदिर में रह सकती हैं ?
उत्तर – हाँ चतुर्थ काल में भी रहती थीं। यथा-श्री रामचन्द्र ने आयिका संघ सहित जिनमंदिर को देखा उनको नमस्कार आदि किया। पुन: सीता को उनके पास छोड़कर आप अतिवीर्य राजा के यहाँ जाकर उसे अनुकूल करके वापस आकर सीता सहित रामचन्द्र ने ‘वराध्र्मा गणिनी आर्यिका की पूजा की।’
(३) प्रश्न-क्या साधु मंदिर मूर्ति आदि बनाने का उपदेश दे सकते हैं ?
उत्तर –हाँ, सप्तऋषियों में प्रधान ऋषि ने शत्रुघ्न राजा को उपदेश दिया। यथा-‘‘घर-घर में जिन प्रतिमाएँ स्थापित की जावें, उनकी पूजायें हों, अभिषेक हों और विधिपूर्वक प्रजा का पालन किया जावे। हे शत्रुघ्न! इस नगरी के चारों दिशाओं में सप्तर्षियों की प्रतिमाएँ स्थापित करो, उसी से शांति होगी।’’
(४) प्रश्न-क्या साधु प्रभावना के लोभ में पड़ सकते हैं ? अथवा धर्म के विषय में पक्षपात कर सकते हैं ?
उत्तर –हाँ, प्रभावना तो सम्यक्त्व का एक अङ्ग है। इसके लिए तो श्री अमृतचन्द्रसूरि ने कहा है कि-रत्नत्रय के द्वारा सतत ही आत्मा की प्रभावना करनी चाहिए और दान, तपश्चरण, जिनपूजा, विद्या तथा अतिशय-चमत्कार आदि से जिनधर्म की प्रभावना करनी चाहिए। उदाहरण देखिए-‘‘मथुरा के राजा पूतिगंध की रानी उर्विला ने जब देखा कि आष्टान्हिक पर्व में बुद्धदासी का रथ पहले निकलेगा। उसने उपवास की प्रतिज्ञा करके क्षत्रिय गुफा में रहने वाले सोमदत्त और वङ्का कुमार मुनि के पास जाकर प्रार्थना की। इतने में ही मुनि वंदना हेतु दिवाकर देव आदि बहुत से विद्याधर (जिनके यहाँ वङ्काकुमार का पालन हुआ था) आये। वङ्काकुमार मुनि ने उनसे कहा कि आप लोग विद्या के बल से उर्विला रानी की इच्छानुसार जिनेन्द्रदेव का रथ पहले निकालिए, उन लोगों ने वैसा ही किया। जिससे कि आज तक प्रभावना अङ्ग में वङ्काकुमार मुनि की प्रसिद्धि हो रही है।२’’ ऐसे श्री कुन्दकुन्ददेव ने गिरनार पर्वत पर पहले वंदना हेतु पाषाण की देवी की मूर्ति को बुलवा दिया था कि ‘सत्यपंथ निग्र्रंथ दिगम्बर’ इत्यादि। श्री अकलंक देव ने राजा की सभा में बौद्धों के गुरु से और उनकी आराध्य तारादेवी से छह महीने तक शास्त्रार्थ करके बौद्धों की पराजय की और अपने जैनधर्म की ध्वजा फहराई।’’
(५) प्रश्न-क्या साधु संघ के ठहरने आदि की चिंता करते हैं ?
उत्तर – हाँ, कुन्दकुन्द स्वामी ने स्वयं कहा है कि संघ का संग्रह, अनुग्रह और ‘पोषणं तेसिं’ उसका पोषण करना, अशन पान आदि की चिंता करना। उदाहरण देखिए-‘‘श्री सुदत्ताचार्य संघ के ठहरने हेतु राजपुर नगर के बाहर उद्यासन, श्मशान आदि का अवलोकन करते हैं। किन्तु वे स्थान संघ के लिए अयोग्य समझकर पुन: मुनिमनोहर मेखला पर्वत को योग्य समझकर उस पर ठहर जाते हैं।’’
(६) प्रश्न-क्या साधु आग्रहपूर्वक किसी को दीक्षा आदि देते दिलाते हैं ?
उत्तर – हाँ, यदि वे समझते हैं कि ये मेरे निमित्त से मोक्षमार्ग में लग जायेगा, तो अवश्य प्रेरणा विशेष करते हैं। यथा-‘‘वारिषेण मुनि अपने मित्र पुष्पडाल को ले आकर उसकी इच्छा बिना भी दीक्षा दिला दी। जब वह अस्थिर हुआ घर जाने लगा तब उसे अपने घर ले जाकर अपनी स्त्रियों को दिखाकर उन्हें लेने के लिए कहा तब वह लज्जित होकर वापस धर्म में स्थिर हो गया।’’ ‘‘भावदेव ने अपने भाई भवदेव को दीक्षा दिला दी। उसकी स्थिरता न होने से एक दिन वह भवदेव मुनि अपने घर जा रहा था कि मार्ग के मंदिर में अपनी पत्नी जो आर्यिका वेष में थी उससे सम्बोधन पाकर पुन: स्थिर हो गया। यही आगे जंबू स्वामी हुए हैं।’’ जबरदस्ती से किया गया धर्म, ग्रहण की गई दीक्षा भी संसार समुद्र से पार करने वाली ही होती है।
(७) प्रश्न-क्या आचार्य दीक्षार्थी के जाति, कुल आदि का विचार करते हैं?
उत्तर –अवश्य करते हैं, क्योंकि आगम में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीन वर्णों के मनुष्य को ही जैनेश्वरी दीक्षा का आदेश दिया है तथा दीक्षार्थी जातिच्युत, पतित अथवा लोकनिंद्य भी नहीं होना चाहिए। यथा- ‘‘सुदेश, सुकुल और सुजाति में उत्पन्न हुए ऐसे ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य हैं, जो कि कलंक रहित समर्थ हैं यह सज्जनों द्वारा जिनमुद्रा उन्हें ही देनी चाहिए। कहा भी है-सुदेश कुल और जाति में उत्पन्न ऐसे ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य में ही अर्र्हंत देव के लिंग की स्थापना की जाती है, निंद्य या बालक आदि में नहीं। जो जाति आदि से पतित हैं उनको यह विद्वानों द्वारा पूज्य जिनमुद्रा नहीं देनी चाहिए। जो रत्नों की माला सत्पुरुषों के धारण करने योग्य होती है। वह कुत्ते के गले में नहीं पहनाई जाती है।’’ जैनेन्द्र व्याकरण में श्री पूज्यपादस्वामी ने भी कहा है- वर्णेनार्हद्रूपायोग्यानाम्।।९७।। जो वर्ण से-जातिविशेष से अर्हंत रूप-निर्ग्रन्थता के अयोग्य हैं उनमें द्वन्द्व समाज करने पर नपुंसक लिंग का एकवचन होता है। यथा- तक्षायस्कारं-बढ़ई और लुहार, रजकतंतुवायं-धोबी और जुलाहा। ‘वर्ण से’ ऐसा क्यों कहा ? तो ‘मूकबधिरौ’ गूँगा और बहरा, इसमें वर्ण का संबंध नहीं होने से एकवचन नहीं हुआ। ‘अर्हद्रूप के लिए अयोग्य हो’ ऐसा क्यों कहा तो ‘ब्राह्मणक्षत्रियौ-’ ब्राह्मण और क्षत्रिय, ये वर्ण से अर्हंत लिंग के लिए अर्थात् दिगम्बर मुनि रूप जिनमुद्रा के लिए योग्य हैं इसलिए इनमें भी द्वन्द्व समास में द्विवचन होता है। तात्पर्य यह है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ही जिनमुद्रा के योग्य हैं। श्री कुन्दकुन्ददेव ने भी आचार्य भक्ति में स्पष्ट कहा है- आप देश, कुल और जाति से शुद्ध हैं, विशुद्ध मन, वचन, काय से संयुक्त हैं। ऐसे ही आचार्यदेव! आपके पादकमल इस लोक में हमारे लिए नित्य ही मंगलस्वरूप होवें।
(८) प्रश्न-क्या साधु अपने घर वालों को भी जबरदस्ती धर्म में लगा सकते हैं ? या दीक्षा दे सकते हैं ?
उत्तर – हाँ, अनेकों उदाहरण हैं। भावदेव ने ही अपने भाई भवदेव को बिना इच्छा के ही निकाला और दीक्षा दिलाई। अन्य भी उदाहरण देखिए-‘‘दिग्विजय के प्रसंग में रावण ने माहिष्मती के राजा सहस्ररश्मि को बांधकर जेल में डाल दिया। तब उनके पिता जो कि ऋद्धिधारी महामुनि थे, वे वहाँ रावण की सभा में आ गये। विनयोपचार के अनंतर बोले कि हे रावण! तुम मेरे आत्मज (पुत्र) को छोड़ दो। रावण के द्वारा छोड़े जाने पर उसने विरक्त होकर पिता के साथ ही जाकर दीक्षा ले ली।३’’ तथा यदि कोई विशेष बुद्धिमान् हैं उनमें विशेष धर्म होने वाला है तो भी वे परोपकार करते हैं। यथा-‘‘श्री पुष्पदंत मुनिराज ने करहाटक ग्राम में आकर अपने भानजे जिनपालित को साथ लिया और मुनिदीक्षा देकर षट्खण्डागम सूत्र बनाकर पढ़ाये।’’
(९) प्रश्न-क्या साधु घर का मोह छोड़कर पुन: शिष्यों को इकट्ठा कर संघ बढ़ाते हैं ? या आर्यिकाओं को भी रखते हैं ?
उत्तर –अवश्य, यह तो शिष्यों का संग्रह करना अनुग्रह करना आदि विधान तो आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने ही कहा है। उदाहरण-श्री सुदत्ताचार्य का संघ बहुत ही विशाल था। उसमें मुनि, आर्यिकाएँ, क्षुल्लक, क्षुल्लिकाएँ सभी थे। तभी तो क्षुल्लक युगल-अभय-रुचि क्षुल्लक और अभयमती क्षुल्लिका को गाँव में आहारार्थ भेजा था। श्री कुन्दकुन्दस्वामी ने भी मूलाचार में ‘‘आर्यिकाओं को प्रायश्चित्त देने का और उनके नेतृत्व-करने का आदेश अनुभवी प्रौढ़ कुशल आचार्य को दिया है। नवदीक्षित, लघुवयस्क को आर्यिकाओं के गणधर-आचार्य बनने का निषेध किया है।’’
(१०) प्रश्न-क्या साधुओं या आर्यिकाओं के पास ब्रह्मचारी-ब्रह्मचारिणी या अव्रती जन रह सकते हैं ?
उत्तर – हाँ, रह सकते हैं। ‘‘धरसेनाचार्य ने ब्रह्मचारी के हाथ से मुनियों के पास पत्र भेजा था कि हमारे श्रुतज्ञान को ग्रहण करने में समर्थ ऐसे दो मुनि हमारे पास भेज दो।’’ ‘‘पद्मश्री आर्यिका के पास अनन्तमती रहती थी। जिनदत्त की पत्नी उसे आंगन में चौक पूरने हेतु बुला लाई। तब चौक पूरा हुआ देखकर प्रियदत्त ने उस कन्या से मिलने को कहा। वह अनन्तमती उसकी कन्या थी।’’ ‘‘श्री गोवद्र्धन आचार्य ने आठ वर्ष के बालक भद्रबाहु को उनके पिता से मांगकर साथ लिया और पढ़ाया। तब ये छात्र अव्रती ही थे। अनंतर दीक्षित हुए हैं।’’ तत्त्वार्थवृत्ति में कहा कि ‘‘पुलाक मुनि के रात्रि भोजन के ग्रहण आदि रूप मूलगुणों में विराधना कैसे संभव है ? तब बताया है कि यदि कदाचित् छात्रों को रात्रि में खाने खिलाने को कह देवें, ऐसा समझकर कि इससे आगे बहुत कुछ लाभ होने वाला है। इत्यादि, दो मूलगुणों में दोष लग जाता है।’’ देशभूषण और कुलभूषण ने भी मुनि के पास विद्याध्ययन किया था। अनंतर विरक्त होकर दीक्षित हुए थे। मैना सुंदरी ने भी गुरु से ही विद्या ग्रहण की थी।
(११) प्रश्न-क्या साधु के निमित्त से बना हुआ आहार या औषधि साधु ले सकते हैं ?
उत्तर – यदि उन्हें मालूम नहीं तो ले सकते हैं। उदाहरण-पूर्व विदेहक्षेत्र में प्रभाकरी नगरी के राजा शत्रु को जीतकर आकर नगर के समीप पर्वत पर ठहर गये। पुरोहित ने कहा, महाराज! आज आपको मुनिदान का लाभ हो सकता है। वह केसे ? सो हम लोग आज नगर में सूचना दिये देते हैं कि राजा के महान् महोत्सव का दिन होने से तुम लोग सर्वत्र घरों में गलियों में चंदन का छिड़काव करो, पूâल बिखेरो, गली में किचित् रंघ्र भी खाली न रहे।’’ प्रजा ने वैसा ही किया तब पिहितास्रव मुनि मासोपवास के बाद पारणा हेतु गाँव की प्रत्येक गलियों को अप्रासुक देखकर वापस आकर राजा के पड़ाव की तरफ आये। राजा ने पड़गाहन कर आहार देकर पंचाश्चर्य को प्राप्त किया।’’ ‘‘नन्दिषेण मुनि अपनी अनेक ऋद्धियों के प्रभाव से अन्य मुनियों की वैयावृत्ति करते हैं। एक समय एक कृत्रिम रुग्ण मुनि ने ‘आहार में तुम्हें क्या चाहिए ?’ ऐसा पूछने पर कहा कि मुझे पूर्व देश के धान का भात, पांचाल देश के मूंग की दाल, पश्चिम देश की गायों का घी और कलिंग देश की गायों का दूध मिल जावे, तो मैं स्वस्थ हो सकता हू। नंदिषेण मुनि ने गोचरी बेला में गाँव में जाकर ऋद्धि के बल से उक्त चीजें लाकर उसे आहार में दीं।’’ अकंपनाचार्य आदि सात सौ मुनियों का उपसर्ग दूर होने के बाद श्रावकों ने घर-घर में खीर बनाई। इसलिए कि मुनियों के कंठ धुएँ से, अग्नि की ज्वाला से अत्यधिक शुष्क हो चुके हैं इन्हें आहार लेने में बाधा न हो। अनंतर सभी मुनियों को खीर का आहार दिया गाय। उसी की स्मृति में रक्षाबंधन पर्व-श्रावण शुक्ला पूर्णिमा के दिन आज भी श्रावक खीर का आहार साधुओं को देना चाहते हैं और घर-घर में खीर बनती है। ‘‘महाराज श्री कृष्ण मुनि के आने का समाचार पाकर दर्शनार्थ गये। मुनि के शरीर को व्याधिग्रस्त शरीर देखकर पूछा-प्रभो! इस रोग की शांति का क्या उपाय है कि औषधि से यह रोग नष्ट हो सकता है ? मुनिराज ने कहा-राजन्! यदि रत्नकापिष्ट का प्रयोग किया जाये, तो यह रोग नष्ट हो सकता है। वापस आकर श्री कृष्ण ने द्वारावती में सर्वत्र आहार की मनाही कर दी। दूसरे दिन मुनि ज्ञानसागर जी आहार के लिए नगर में आये, राजा की आज्ञा न होने से किसी ने भी नहीं पड़गाहा। अन्त में वे मुनिराज राजमहल में आ गये। रुक्मिणी रानी ने विधिवत् पड़गाहर कर आहार में रत्नकापिष्ट चूर्ण दिया। इस प्रकार औषधि के सेवन से मुनि का शरीर स्वस्थ हो गया।’’
(१२) प्रश्न-क्या श्रावक अन्यत्र से आकर वहाँ रहकर मुनियों को आहार देवें, तो मुनि ले सकते हैं ?
उत्तर –हाँ, ले सकते हैं। उदाहरण-‘‘द्युति मुनिराज के शिष्य तीन मुनि जिनेन्द्र भगवान् की वंदना हेतु ताम्रचूड़पुर की ओर चले। बीच में पचास योजन प्रमाण बालु का समुद्र (रेगिस्तान) मिलता था, सो वे इच्छित स्थान पर नहीं पहुँच सके, बीच में ही वर्षा काल आ गया। वे मुनिराज वहीं एक वृक्ष के नीचे ठहर गये। अनंतर अयोध्या को जाते हुए भामंडल ने तीनों मुनिराजों को देखा और सोचा कि इनको यहाँ प्राणधारण हेतु आहार कैसे मिलेगा ? पुन: भामंडल ने भक्ति से युक्त होकर वहीं विद्या के बल से एक नगर बसाया और परिजन सहित वहीं रहकर मुनियों को आहारदान देता रहा।’’
(१३) प्रश्न-क्या साधु वृत्तिपरिसंख्या लेकर आहारार्थ शहर में घूम सकते हैं ?
उत्तर –‘‘पाँचों पाण्डवों में से भी मुनिराज ने एक बार वृत्तिपरिसंख्यान किया कि ‘भाले के अग्र भाग से दिया हुआ आहार लूँगा’ तब छह महीने के बाद यह नियम पूर्ण होकर इन्हें आहार मिला।’’
(१४) प्रश्न-क्या साधु के पड़गाहन के समय तमाम श्रावक भीड़ इकट्ठा करना व कोलाहल कर सकते हैं ?
उत्तर –तमाम श्रावक अपनी-अपनी भक्ति से पड़गाहन करते हैं। उस समय कोलाहल भी होने लगता है। उदाहरण-जिस समय रामचंद्र महामुनि नन्दस्थली नगरी में आहारार्थ आये, उस समय उनके पड़गाहन के समय इतना कोलाहल हुआ कि हाथियों ने आलानस्तंभ तोड़ दिये। अनेकों स्त्रियाँ झारी आदि लेकर खड़ी हो गर्इं, अनेकों पुरुष जल भरे कलश ले लेकर आ गये। हे स्वामिन्! यहाँ आइये, हे स्वामिन्! यहाँ ठहरिये। इत्यादि से पड़गाहन कर रहे थे।’’
(१५) प्रश्न-क्या साधुओं का आहार देखने के लिए लोग इकट्ठे हो सकते हैं ?
उत्तर –हाँ, आहार दान देकर भी अनुमोदना से वैसा ही पुण्य मिल जाता है। यथा-‘‘राजा वङ्काजंघ वन में आहार दे रहे थे। उनके मंत्री आदिकों ने देखा, पुण्यबंध किया और नकुल, सूकर, वानर तथा सिंह ने भी देखा। राजा वङ्काजंघ ने आहार के बाद मुनि से सभी के पूर्वभव पूछे। मुनि ने पूर्वभव बताकर भविष्य भी बताया कि ये मंत्री आदि और नकुल आदि सभी आपके साथ-साथ सुख भोगते हुए आपके ही पुत्र होकर मोक्ष जायेंगे। अभी इन नकुल, सिंह आदि जीावें ने आहारदान की अनुमोदना से उत्तम भोगभूमि की आयु का बंध किया है।’’ ‘‘अकृतपुण्य बालक मुनि के आहार को देखते हुए अपने को धन्य मान रहा था, द्वितीय दिन ही मरकर आहारदान की अनुमोदना के प्रभाव से स्वर्ग चला गया। पुन: कालांतर में धन्यकुमार होकर नवनिधियों के भोगों को प्राप्त हुआ है।’’
(१६) प्रश्न-क्या साधु श्रावक के लिए ग्राम में या राजसभा में या श्रावक के घर आदि में जा सकते हैं ?
उत्तर –हाँ, विशेष धर्मलाभ कराने हेतु कदाचित् जा सकते हैं। यथा-‘‘एक बार कनकपुर शहर के राजा धनदत्त और श्रीवंदक मंत्री के साथ राजमहल की छत पर बैठे थे। आकाश में जाते हुए चारणऋषि को देखकर उनका आह्वान किया। उन्होंने आकर धर्मोपदेश दिया। जिससे श्रीवंदक बुद्धधर्मी जैन बन गया। पुन: श्रीवंदक बौद्धगुरु के भड़काने से राज्यसभा में मुनियो की चर्चा करने पर झूठे बोल दिया कि मैंने चारण मुनि नहीं देखे हैं। तत्काल ही उसकी आँखें फुट गर्इं।’’ जिनसेन स्वामी ने आदिपुराण में वङ्काजंघ-श्रीमती के वर्णन में शृंगार रस का वर्णन किया है। लोगों की उनके चरित्र पर आशंका होने से उन्होंने राजसभा में सबको बुलाकर स्वयं खड़े होकर उसी शृँगार रसयुक्त काव्य को पढ़ा। उनकी निर्विकारिता देखकर विकार को प्राप्त हुए अनेकों लोग उनसे क्षमा याचना करने लगे। ‘वङ्काजंघ और श्रीमती के जीव जब भोगभूमि में आर्य-आर्या थे, तब किसी समय दो चारणमुनि आकाश मार्ग से वहाँ भोगभूमि में उनके पास पहुँचे। उन्हें धर्मोपदेश दिया, सम्यक्त्व ग्रहण कराया और बताया कि तुम्हारे महाबल विद्याधर की पर्याय में मैं तुम्हारा स्वयंबुद्ध मंत्री था। उसी समय के धर्म प्रेम से मैं यहाँ तुम्हें संबोधने आया हूँ।’’ ‘‘मर्यादा पुरुषोत्तम रामचंद्र लक्ष्मण के मोह से छूटकर जब बोध को प्राप्त हुअए तब सभा में विराजमान थे उसी समय अर्हदास सेठ उनके दर्शन हेतु आये, सो राम ने उससे मुनि संघ की कुशल पूछी। सेठ ने कहा-हे महाराज! आपके इस कष्ट से पृथ्वीतल पर मुनि भी परम व्यवस्था को प्राप्त हुए हैं। मुनिसुव्रत भगवान् की वंश परमपरा के धारक आकाशगामी भगवान् सुव्रत नामक मुनिराज आपकी दशा जान यहाँ आये हुए हैं। सुनकर रामचंद्र तत्क्षण ही मुनि के समीप गये।’’ ‘‘जिस समय युद्धभूमि में भीष्मपितामह बाण से आहत होकर मरणोन्मुख हो गये, उस समय आकाशमार्ग से हंस और परमहंस नामक चारण मुनि वहाँ आये। उन्होंने उपदेश देकर सल्लेखना ग्रहण करा दी। वे भीष्म पितामह मरकर ब्रह्म स्वर्ग में देव हो गये।’’
(१७) प्रश्न-क्या मुनि किसी की गलती बिना पूछे कह सकते हैं ?
उत्तर – कदाचित् कह भी सकते हैं। यथा-‘‘एक मुनि ने रात्रि में एक महिला के पास व्यभिचार की इच्छा से जाते हुए एक व्यक्ति को देखा और ‘मत जावो’ ऐसा कहां उसने कहा क्यों ? तब मुनि ने बताया वह तुम्हारी जन्मदात्री माता है।’’ ‘‘जब कनकोदरी ने जिनप्रतिमा का अनादर किया था, तब संयमश्री आर्यिका ने आहार के लिए वहाँ प्रवेश किया। ऐसी घटना से आहार न करके मौन छोड़कर उसे शिक्षा दी। क्योंकि साधुजन बिना पूछे हुए भी अज्ञानी जन को उपदेश देने लगते हैं।’’
(१८) प्रश्न-क्या साधु रात्रि में बोल सकते हैं ?
उत्तर– हाँ, कदाचित् बोल सकते हैं। ग्रंथों में रात्रि में बोलने के उदाहरण मिलते हैं। यथा-मुनि ने रात्रि में यक्षिल को व्यभिचार के लिए जाते हुए रोका। अन्य उदाहरण भी है- दु:खी धनदत्त सूर्यास्त हो जाने पर मुनियों के आश्रम में पहुँचा और वहाँ पानी मांगा। उनमें से एक मुनि ने समझाया कि रात्रि में अमृत भी पीना उचित नहीं है फिर पानी की तो बात ही क्या है ?’’ अन्यत्र भी है-अकृतपुण्य को ढूँढते हुए सेठ अशोक ने देखा, वह भागने लगा, समझाने पर भी भागता ही गया, तब संध्या हो गई, ऐसा साचकर सेठ वापस चला गया। वह बालक वहीं वन में एक गुफा के द्वार पर खड़ा हुआ। उसका द्वार पाषाण से ढँका हुआ था। अंदर में मुनिराज किसी शिष्य को धर्म का स्वरूप समझा रहे थे। उसने सुना। अनंतर व्याघ्र ने आकर उसे खा लिया, वह मरकर देव हो गया।
(१९) प्रश्न-क्या साधु यात्रा कर सकते हैं ?
उत्तर – मूलाचार, आचारसार आदि में तो मुनियों के ईर्यापथसमिति में यात्रा आदि हेतु ही मुख्य बताये हैं तथा पुराणों में भी उदाहरण मिलते हैं। यथा-अरविंद मुनिराज ससंघ सम्मेदशिखर की यात्रा के लिए जा रहे थे। एक वन में हाथी ने उपद्रव किया। अनंतर मुनिराज को देखकर बोध को प्राप्त हुआ, मुनिराज से अणुव्रत लेकर आगे जाकर वही जीव भगवान् पाश्र्वनाथ हुआ है।१’’ और भी अनेकों उदाहरण हैं। ‘‘धन्यकुमार चरित्र में मुनि द्वारा रात्रि में उपदेश देने का वर्णन आता है।’’
(२०) प्रश्न-क्या साधु भगवान् का अभिषेक देख सकते हैं ?
उत्तर –हाँ देख सकते हैं। विशेष अभिषेक के समय तो साधु सिद्ध, चैत्य, पंचगुरु और शांतिभक्ति पढ़कर वंदना करें, ऐसा आचारसार आदि में विधान है, जो नैमित्तिक क्रिया में बताया जा चुका है। अभिषेक विधान में भी कहा है कि ‘‘महाभिषेक लक्षण जिनधर्म की प्रभावना कके लिए हे निर्र्गंरथों के आचार्यों! आप लोग प्रसन्न होइये, यहाँ पधारिये। कोई प्रश्न करता है कि क्या महाभिषेक के समय निर्गंरथ आचार्य ही आते हैं अन्य यति नहीं आते हैं ? तो ऐसी बात नहीं है, ‘‘निर्गंरथार्या:’’ ऐसा कहने से सभी दिगम्बर मुनि, आर्य-देशव्रती (क्षुल्लक ऐलक आदि) और आर्यिकाएँ इन सबका ग्रहण हो जाता है। इसलिए सभी यहाँ आइये।’’ आदिपुराण में भी कहा है-‘‘मेरु पर्वत के मस्तक पर स्पुरायमान होता हुआ, जिनेन्द्र भगवान् के जन्माभिषेक का जलप्रवाह हम सबकी रक्षा करे, जिसे कि इन्द्रों ने बड़े आनंद से, देवियों ने आश्चर्य से, देवों के हाथियों ने सूंड ऊँची उठाकर बड़े भय से, चारण ऋद्धिधारी मुनियों ने एकाग्रचित्त होकर बड़े आदर से और विद्याधरों ने ‘यह क्या है’ ऐसी शंका करते हुए देखा था।’’
(२१) प्रश्न-क्या साधु भक्तों के भव भवांतर बतलाते हैं ?
उत्तर –हाँ, अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी मुनि पूछने पर बतलाते हैं। प्रथमानुयोग में ऐसे अनेकों उदाहरण देखने को मिलते हैं।
(२२) प्रश्न-क्या साधु आहार के समय जाति व्यवस्था आदि पर लक्ष्य रखते हैं ?
उत्तर – अवश्य रखते हैं। ‘यथा-दुर्भाव, अशुचि और सूतक दोषों से सहित जन, रजस्वला स्त्री या जातिसंकर आदि से दूषित लोग यदि आहार देते हैं, अथवा जो कुपात्रों में दान देते हैं, वे इस पाप मिश्रित पुण्य से कुभोगभूमि में जन्म लेते हैं।’’
(२३) प्रश्न-क्या स्त्रियाँ मुनियों के चरण आदि का स्पर्श कर सकती हैं ?
उत्तर – चंदना ने जब भगवान् महावीर का पड़गाहन किया, उस समय आहार देने में वह अकेली थी। उसने चरण प्रक्षालन आदि नवधा भक्ति अवश्य की होगी। ‘‘जब राजा ने यशोधर मुनिराज के गले में मृतक सर्प डाला था, तब मालूम होने पर रानी चेलना राजा के साथ रात्रि में ही वहाँ गई। उसने मुनि के शरीर से चिंवटी दूर कर मुलायम वस्त्र से अवशिष्ट कीड़ियों को भी दूर कर गरम पानी से धोया और संताप की निवृत्ति के लिए शरीर पर शीतल चंदन आदि का लेप किया।’’ महामुनि ने भी महिला के सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया, ऐसा कथन है। यथा-‘‘गुरुदेव प्रीतिंकर मुनि ने आर्य वङ्काजंघ और आर्या श्रीमती को उपदेश देकर उन्हें सम्यक्त्व ग्रहण कराया। पुन: जिन्होंने हर्षसूचक चिन्हों से अपने मनोरथ की सिद्धि को प्रकट किया है, ऐसे दोनों दंपतियों को दोनों ही मुनिराज धर्मप्रेम से बार-बार स्पर्श कर रहे थे।
(२४) प्रश्न-क्या साधु श्रावकों को मंत्र व्रत आदि दे सकते हैं ?
उत्तर– धर्मप्रभावना, परोपकार आदि की इच्छा से दे सकते हैं। मुनिराज ने ही मैना सुन्दरी को पति का कुष्ट दूर होने हेतु सिद्धचक्र विधान जाप्य आदि का अनुष्ठान बताया था। सभी व्रतों की कथाओं में भी मुनियों के द्वारा ही व्रत दिये जाने का विधान है। यदि श्रावक बिना गुरु के कोई व्रत लेते हैं, तो उसका फल नहीं कहा है। मूलाचार और मूलाराधना में भी धर्मप्रभावना आदि हेतु स्वयं भी मंत्रादि कर सकते हैं, ऐसा कहा है। जैसा कि कंदर्पी आदि भावनाओं के वर्णन में बताया जा चुका है। धरसेनाचार्य ने पुष्पदंत और भूतबली मुनियों की योग्यता की परीक्षा हेतु मंत्र जपने को दिया था। यदि कोई साधु किसी को मिथ्यात्व से छुड़ाकर धर्म में लगाते हैं। सच्चे मंत्रादि द्वारा उसे कार्यसिद्धि का प्रलोभन देकर कुदेव आदि की भक्ति से निवृत्ति करते हैं, तो कोई दोष नहीं है।
(२५) प्रश्न-क्या साधु जहाँ विहार करते हैं, वहाँ शुभ होता है ?
उत्तर – अवश्य, तपस्वियों के प्रभाव से अचिन्त्य लाभ होता है। यथा-रावण के मरने के बाद उसी दिन अंतिम प्रहर में अनंतवीर्य मुनिराज छप्पन हजार आकाशगामी मुनियों के साथ वहाँ आकर ‘कुसुमायुध’ नामक उद्यान में ठहर गये। उसी रात्रि में अनंतवीर्य महामुनि को केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। गौतम स्वामी कहते हैं कि ‘‘यदि रावण के जीवित रहते हुए वे महामुनि लंका में आये होते तो लक्ष्मण के साथ रावण की घनी प्रीति हो जाती। क्योंकि जिस देश में ऋद्धिधारी मुनिराज और केवली विद्यमान रहते हैं, वहाँ दो सौ योजन (४०० कोश) तक की पृथ्वी स्वर्ग के सदृश सर्वप्रकार के उपद्रवों से रहित हो जाती हैं और उनके निकट रहने वाले राजा वैर रहित हो जाते हैं।’’ यहाँ तो ऋद्धिधारी मुनि की बात है। सामान्य मुनियों के विहार से भी शुभ होता है। अन्य संप्रदाय में भी कहा है- ‘‘हे अर्जुन! तुम रथ पर चढ़ जावो और गांडीव धनुष को भी धारण करो। मैं इस पृथ्वी को जीती हुई सी समझ रहा हूँ, चूँकि सामने निर्गंरथ यदि दिख रहे हैं।’’ ऐसा श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा। ज्योतिषशास्त्र में भी कहा है-‘‘पद्मिनी स्त्रियाँ, राजहंस और निर्गंथ तपोधन जिस देश में रहते हैं, उस देश में शुभ-मंगल हो जाता है।