महाकवि सूरदास की विराट प्रतिमा के स्पर्श से ऋषभदेव और उसके पश्चात् भरत भी अछूते नहीं थे । सूरादास जी वल्लभाचार्य जी के शिष्य थे । शिष्य होने के नाते वल्लभाचार्य ने सूरदास को आदेश दिया कि श्रीमद् भागवत् की कथाओं को, गेय पदों में प्रस्तुत करो। केवल दास्य भक्ति ही क्यों करते हो, भगवान् लीला लिखो—
ऐसो घिघियात का को है, कुछ भगवन् लीला को वर्णन करो। सूरदास ने गुरु आज्ञा से उसी प्रकार की रचनायें प्रारम्भ की ।
१. सूरसागर – सूरसागर में भी सूरदास ने लिखा है कि नाभिराय को वृषभ जैसे महान पुत्र की प्राप्ति एक अदभुत उपलब्धि थी। वे कहते है । कि प्रियव्रत वंश में उत्पन्न भगवान ऋषभदेव, भगवत् स्वरूप ही थे । भगवान ऋषभदेव ने अपने भक्तों को पूर्ण काम बनाया था । इन्द्र के द्वारा वर्षा न किये जाने पर ऋषभदेव ने अपनी आत्मा की दिव्यशक्ति से वर्षा की थी और प्रजा को अन्याय और दुष्काल का स्थिति से बचाया था । ऋषभदेव ने तप द्वारा सिद्ध ‘अष्ट सिद्धियों’ को अस्वीकार कर दिया था । इस प्रकार वे स्वयं परम ब्रह्म, परमात्मा के अवतार थे । सूरसागर में तीर्थंकर ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र भरत, भारत देश के सम्राट थे । उन्होंने अपनी सेना के साथ दिग्विजय कर प्रथम सम्राट बनने का सौभाग्य प्राप्त किया था । उन्हों ने भारत में कानून और सुव्यवस्था पूर्ण राज्य स्थापित किया था । शाश्वत तीर्थ अयोध्या नगरी को अपनी राजधानी बनाया था । सूरसागर के वृषभावतार प्रसंग में निम्न पंक्तियाँ उल्लेखनीय है—
बहुरि रिषभ बड़े जब भये, नाभिराज राज दे, बन को गये ।
रिषभराज परजा सुख पायो, जस ताको, सब जग में छायो ।।
रिषभदेव जब वन को गये, नवसुत नवौ खण्ड नृप भये ।
भरत तो, भरत खण्ड को राव, करें, सदा ही धर्म अरुन्याय।।
२. वाल्मीकि रामायण- इस रामायण में भी भगवान ऋषभदेव का वर्णन है । गोस्वामी तुलसादास ने अपने रामचरित मानस में अठारह पुराणों, उपनिषदों, आगम—निगम आदि का मंथन करके राम रसायन का वर्णन किया है—‘‘नाना पुराण निगमागम सम्मतं यत्।’ उत्तरकांड के अंतर्गत उन्होंने भक्ति, कर्मयोग एवं अध्यात्म की चर्चा की है । वाल्मीकि रामायण में यह भी कहा गया है दिगम्बर मुनियों का आहार राजा जनक के यहाँ होता था । दिगम्बर मुनि सर्वत्र विचरण करते थे । उनके त्याग, तपस्या, संयम का बड़ा प्रभाव था ।
३. बौद्ध धर्म में ऋषभ- बौद्ध साहित्य में भी भगवान् ऋषभदेव का वर्णन पाया जाता है बौद्ध आचार्यश्री धर्म र्कीित ने ऋषभदेव को जैनधर्म का प्रथम तीर्थ।कर आद्य प्रवर्तक बताया है । बौद्ध ग्रंथ आर्य मन्जूश्री मूलकल्प में भी भगवान् ऋषभदेव का वर्णन व्यापक रूप से चित्रित हैं—
प्रजापते: सुतो नाभि: तस्यापि आगमुच्यति।
नाभिनो ऋषभ पुत्रों वै सिद्धकर्म दृढ़व्रत:।
तस्यापि मणिचेरा यक्ष: सिद्धों हेमवेत गिरौ।
ऋषभस्य भरत: पुत्र: सोऽपि मञ्जात् तदाजपेत्।
वहां पर ऋषभदेव को एक पूर्ण स्वतंत्र तत्ववेत्ता, विचारक धर्मोपदेशक एवं जैन धर्म के संस्थापक के रूप में दिग्दर्शित किया है इसी प्रकार बौद्ध ग्रंथ धम्मपद में भगवान ऋषभदेव की परमवीर श्रेष्ठ महान तत्ववेत्ता और धर्मोपदेशी कहा है ।
४. सिक्ख धर्म में ऋषभदेव-भगवान ऋषभदेव को सिखों के गुरु गोविन्द िंसह ने एक महान् धर्मप्रवर्तक के रूप में सम्मान सहित स्मरण किया है । वे कहते हैं कि भगवान ऋषभदेव श्रावकमत के प्रतिपादक है । वे स्वयं अरहन्तदेव है । अरिहन्त भगवान के रूप में ऋषभदेव की संसार में बड़ी प्रतिष्ठा हैं । श्रावक मत जैन धर्म ही है । श्रावकों में सत्य, अिंहसा, ब्रह्मचर्य एवं उपरिग्रह का आचरण व्यापक रूप से होता है । वे मनुष्यों में उत्तम माने जाते हैं । वैसे सिक्ख मत स्वयं एक समन्वयवादी मत है, भगवत कीर्तन, भजन इस धर्म के प्राण हैं । वे मानते हैं कि ऋषभदेव में न्यायप्रियता प्रजा व वत्सलता और ज्ञान विज्ञान के प्रति जागरूकता थी। ‘‘णाणसायर ऋषभअंक, पृ. १२७’’
५. इस्लाम धर्म में भगवान ऋषभ- इस्लाम ग्रंथ में भी ईश्वर के दूत के रूप में ‘भगवान ऋषभ’ की मान्यता है । अरबी का एक शब्द आया है ‘नवी’ जिसका अर्थ होता है, ईश्वर का दूर, पैगम्बर और रसूल। यह शब्द संस्कृत के नाभि और प्राकृत के ‘णाभि’ का रूपान्तर मात्र प्रतीत होता है । णाणसायर में भी ‘नाभेय’ का रूपान्तर नवीं मानने की कोशिश की है । हजरत इब्राहीम के प्रथम नवीं के रूप में तीर्थंकर ऋषभदेव को माना जा सकता है ।
६. अतीत का अनावरण-ग्रंथ में तेरापंथी जैन धर्म संघ के आचार्य तुलसी ने लिखा है कि मैंने विश्वंभरनाथ पाण्डेय का ‘अिंहसक परम्परा’ लेख (सन् १९६९) पढा था । उसमें था कि ‘ईसवी सन् की पहली शताब्दी के देशों में यहूदी धर्म, ईसाई धर्म और इस्लाम धर्म को प्रभावित करता रहा है ।
७. सियादत्त नाम ए नासिर-सियादत्त नाम ए नासिर के लेखक ने लिखा है कि इस्लाम धर्म के कलन्दरी तबके पर जैन धर्म का काफी प्रभाव पड़ा था । कलन्दर चार नियमों का पालन करते थे—साधुता, शुद्धता, सत्यता और अपरिग्रहता अहिंसा पर अखण्ड विश्वास रखते थे ।