श्रीमते वर्धमानाय, नमो नमितविद्विषे। यज्ज्ञानान्तर्गतं भूत्वा, त्रैलोक्यं गोष्पदायते।।१।।
दिगम्बर जैन आगम ग्रंथों में सात तत्त्व एवं नव पदार्थों के नाम प्रमुखता से लिये जाते हैं । इन्हीं सात तत्त्व-नव पदार्थों के ऊपर सम्पूर्ण सृष्टि व्यवस्था और मोक्ष व्यवस्था टिकी हुई है । यूँ तो प्राय: जैन समाज में तत्त्वार्थसूत्र और उससे संबंधित टीका ग्रंथों को पढ़ने की परम्परा भी प्राचीनकाल से देखी जा रही है अत: सभी स्वाध्यायी जनों के मन में
‘‘जीवाजीवास्रवबंधसंवरनिर्जरामोक्षस्तत्त्वम्’’
सूत्र के अनुसार सात तत्त्वों का क्रम रहता है और इन्हीं में पुण्य-पाप को मिलाने से नौ पदार्थ बन जाते हैं, जिनका वर्णन द्रव्य संग्रह आदि ग्रंथों में पाया जाता है । किन्तु मैं यहाँ आप सभी को एक विशिष्ट तथ्य से परिचित कराना चाहती हूँ । जो तीर्थंकर महावीर स्वामी के प्रमुख गणधर श्री गौतम स्वामी के मुख से नि:सृत वचनानुसार अति प्रामाणिक बात है और उसी प्रमाण को आधार बनाकर आचार्य श्री कुन्दकुन्दस्वामी आदि महान आचार्यों ने भी अपने ग्रंथों में उन तथ्यों को स्वीकार किया है । वही मूल तथ्य इस आलेख में बताया जा रहा है । इस पुस्तक का नाम है-‘‘जैनागम में नव पदार्थ’’। अर्थात् जीव-अजीव आदि नौ पदार्थ होते हैं। इन्हें कहीं-कहीं नौ तत्त्व के नाम से भी आगम ग्रंथों में चिन्हित किया है। इस विषय में आप सभी को इन पदार्थों-तत्त्वों के क्रम से परिचित कराने हेतु यह संकलन मैंने किया है। अर्थात् श्री गौतम गणधर सवामी ने यतियों के पाक्षिक प्रतिक्रमण में जीव-अजीव-पुण्य-पाप-आश्रव-संवर-निर्जरा-बंध-मोक्ष इस प्रकार का क्रम बताया है। इसी क्रम का अनुसरण श्री वीरसेनाचार्य ने षट्खण्डागम ग्रंथ की धवला टीका में किया है तथा श्री कुन्दकुन्दचार्य ने समयसार ग्रंथ की मूल गाथा में यही क्रम बतलाकर इसी क्रमानुसार अधिकारों का विभाजन किया है। गोम्म्टसार जीवकाण्ड की गाथा में भी यही क्रम देकर इन्हें टीका में नौ पदार्थ कह दिया है। पुनश्च तत्त्वार्थसूत्र में आचार्य श्री उमास्वामी ने जीव-अजीव-आश्रव-बंध-संवर-निर्जरा-मोक्ष इन सात तत्त्वों का क्रम थोड़ा परिवर्तित रूप में दिया है । उसी के अनुसार तत्त्वार्थसूत्र की टीका सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थराजवार्तिक आदि ग्रंथों के उद्धरण भी यहाँ प्रस्तुत किये गये हैं । ताकि दोनों प्रकार के क्रम से स्वाध्यायीजन परिचित हो सकें । वर्तमान में कतिपय विज्ञ लोगों ने गौतम गणधर स्वामी के प्रतिक्रमण सूत्रों में वर्णित
‘‘से अभिमद जीवाजीव-उवलद्ध-पुण्णपाव-आसव-संवर-णिज्जर-बंधमोक्ख-महिकुसले’’
इस पाठ को बदलकर
‘‘से अभिमद जीवाजीव-उवलद्ध-पुण्णपाव-आसव-बंध-संवर-णिज्जर-मोक्खमहिकुसले’’
कर दिया है । अर्थात् प्रतिक्रमण पाठ, समयसार आदि में आश्रव के बाद संवर-निर्जरा को लिया है पुन: निर्जरा के बाद बंध-मोक्ष को लिया है एवं तत्त्वार्थसूत्र में आस्रव के बाद बंध को लेकर पुन: संवर-निर्जरा-मोक्ष को लिया है । विद्वज्जनों को यहाँ विचार करना है कि समयसार में श्री कुन्दकुन्दस्वामी ने प्रथम पाठ गौतम स्वामी के अनुसार ही नव पदार्थों में अधिकारों का जो विभाजन किया है, क्या उन अधिकारों को भी बदलने का कोई अति साहस करेगा ? अर्थात् ऐसा अतिसाहस कोई नहीं करेगा । मैंने प्रतिक्रमण सूत्रों पर श्री प्रभाचन्द्राचार्य द्वारा रचित ‘‘प्रतिक्रमण ग्रंथत्रयी’’ नामक ग्रंथ का सूक्ष्मता से अध्ययन किया है । इस संबंध में मेरी सभी दिगम्बर जैन साधु-साध्वियों, विद्वानों एवं ग्रंथों के सम्पादकों और प्रकाशकों से साग्रह प्रेरणा है कि हमारे महान पूर्वाचार्यों, गणधर भगवन्तों के सूत्रवाक्यों में किसी तरह का परिवर्तन परिवर्धन कभी न करें। हमें यदि दो तरह के पाठ मिल रहे हैं, तो दोनों को प्रमाण मानें, कहीं का पाठ किसी दूसरी जगह न जोड़ें। जिस प्रकार से नौ पदार्थ और नौ तत्त्व दोनों शब्द हमारे लिए प्रमाणिक हैं, उसी प्रकार उनका क्रम भी प्रतिक्रमण सूत्र, मूलाचार, गोम्मटसार, समयसार में जैसा है वैसा मानें और तत्त्वार्थसूत्र में जैसा है, वहाँ वैसा मानें। इसमें ही अपना सम्यग्दर्शन सुरक्षित रहेगा, किन्तु अपने अल्पज्ञान से दूसरे पाठ को संशोधन के नाम पर क्रम परिवर्तित कर देने से जिनाज्ञा का लोप होने के कारण सम्यग्दर्शन में दोष उत्पन्न होता है तथा मूल पाठ की वास्तविकता भंग हो जाती है । आगम के संदर्भ में इसी प्रकार के अनेक विषय और भी हैं जिनके संबंध में अन्य पुस्तकों में मैंने सप्रमाण संकलन प्रस्तुत किया है । यहाँ जिनागम में वर्णित नौ पदार्थों-तत्त्वों का क्रम आप सूक्ष्मता से जानें और जीवन में कभी भी किसी ग्रंथ के मूलपाठ में परिवर्तन न करने का संकल्प करें, यही इस आलेख को पढ़ने की सार्थकता होगी । देखें- से अभिमद-जीवाजीव-उवलद्ध-पुण्णपाव-आसव-संवर-णिज्जर-बंधमोक्ख-महिकुसले ।
इसमें अभिमत जीव रु अजीव उपलब्ध पुण्य अरु पाप कहे ।
आस्रव संवर निर्जर व बंध अरु मोक्ष कुशल नव तत्त्व रहें।।
‘‘जीवाजीवपुण्ण-पाव-आसव-संवर-णिज्जरा-बंध-मोक्खेहि णवहि पयत्थेहि वदिरित्तमण्णं ण किं पि अत्थि, अणुवलंभादो ।’’ जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष, इन नौ पदार्थों के सिवा अन्य कुछ भी नहीं है, क्योंकि इनके सिवा अन्य कोई पदार्थ उपलब्ध नहीं होता। यहाँ इन्हें नौ पदार्थ कहा है ।
(१५ ज.) भूयत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं च।
आसवसंवरणिज्जर बंधो मोक्खो य सम्मत्तं१।।१३ अ.।।
भूतार्थेनाभिगता जीवाजीवौ च पुण्यपापं च।
आस्रवसंवरनिर्जरा बंधो मोक्षश्च सम्यक्त्वम्।।१३।।
शेर छंद
(१५ ज.) भूतार्थ से जाने गए जो जीवाजीव हैं ।
जो पुण्यपाप आस्रव संवर भी तत्त्व हैं ।।
निर्जर व बंध मोक्ष ये सम्यक्त्व कहे हैं ।
व्यवहार से ये मुक्ति के साधक भी हुए हैं ।।१२ अ.।।
उत्थानिका – शुद्धनय से जानना ही सम्यक्त्व है, ऐसा सूत्रकार कहते हैं
अन्वयार्थ – (भूतार्थेन अभिगता: जीवाजीवौ च पुण्यपापं च आस्रवसंवर-निर्जरा: बंध: च मोक्ष: सम्यक्त्वं) भूतार्थ से जाने हुए जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष ये नवतत्त्व ही सम्यक्त्व हैं ।।१२।।
आत्मख्याति – अमूनि हि जीवादीनि नवतत्त्वानि भूतार्थेनाभिगतानि सम्यग्दर्शनं संपद्यंत एवामीषु तीर्थप्रवृत्तिनिमित्तभूतार्थनयेन व्यपदिश्यमानेषु जीवाजीवपुण्यपापास्रवसंवरनिर्जराबंधमोक्षलक्षणेषु नवतत्त्वेष्वेकत्वद्योतिना भूतार्थनयेनैकत्वमुपानीय शुद्धनयत्वेन व्यवस्थापितस्यात्मनोनुभूतेरात्मख्याति-लक्षणाया: संपद्यमानत्वात्। तत्र विकार्यविकारकोभयं पुण्यं तथा पापं। आस्राव्यास्रावकोभयमास्रव:, संवार्यसंवारकोभयं संवर:, निर्जर्यनिर्जरकोभयं निर्जरा, बंध्यबंधकोभयं बंध:, मोच्यमोचकोभयं मोक्ष: । स्वयमेकस्य पुण्यपापा-स्रवसंवरनिर्जराबंधमोक्षानुपपत्ते:। तदुभयं च जीवाजीवाविति। बहिर्दृष्ट्या नवतत्त्वान्यमूनि जीवपुद्गलयोरनादिबंध-पर्यायमुपेत्यैकत्वेनानुभूयमानतायां भूतार्थानि, अथ चैकजीवद्रव्यस्वभावमुपेत्यानुभूय-मानतायामभूतार्थानि। ततोऽमीषु नवतत्त्वेषु भूतार्थनयेनैको जीव एव प्रद्योतते। तथांतर्दृष्ट्या ज्ञायको भावो जीवो जीवस्य विकारहेतुरजीव:। केवला जीवविकाराश्च पुण्यपापास्रवसंवर-निर्जराबंधमोक्षलक्षणा:, केवला जीवविकारहेतव: पुण्यपापास्रवसंवरनिर्जरा-बंधमोक्षा इति। नवतत्त्वान्यमून्यपि जीवद्रव्यस्वभावमपोह्य स्वपरप्रत्ययैकद्रव्य-पर्यायत्वेनानुभूयमानतायां भूतार्थानि, अथ च सकलकालमेवास्खलंतमेवं जीवद्रव्यस्वभावमुपेत्यानु-भूयमानतायामभूतार्थानि । ततोऽमीष्वपि नवतत्त्वेषु भूतार्थनयेनैको जीव एव प्रद्योतते । एवमसावेकत्वेन द्योतमान: शुद्धनयत्वेनानुभूयत एव। यात्वनुभूति: सात्मख्यातिरेवात्मख्यातिस्तु सम्यग्दर्शनमेवेति समस्तमेव निरवद्यं ।
ये जीव आदि नवतत्त्व भूतार्थनय से जाने हुए सम्यग्दर्शन ही हो जाते हैं, क्योंकि तीर्थ प्रवृत्ति के लिए अभूतार्थनय से कहे गये जो जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष लक्षण वाले ये नवतत्त्व हैं उन तत्त्वों में एकत्व को प्रकट करने वाले, भूतार्थनय से एकत्व को प्राप्त कर शुद्धनय से व्यवस्थापित जो आत्मा है उसकी आत्मख्याति लक्षण वाली अनुभूति उत्पन्न हो जाती है अर्थात् शुद्धनय से नवतत्त्वों को जानने से आत्मा की ही अनूभूति होती है । उनमें विकार्य और विकारक अर्थात् विकारी होने योग्य और विकार को करने वाला ऐसा दोनों रूप पुण्य है तथा इन दोनों रूप ही पाप भी है । आस्रव होने योग्य और आस्रव करने वाला ऐसे आस्राव्य और आस्रावक ये दोनों रूप आस्रव तत्त्व है । संवर होने योग्य और संवर करने वाला ऐसे संवार्य और संवारक इन दोनों रूप संवर तत्त्व है । निर्जरा होने योग्य और निर्जरा करने वाला ऐसे निर्जर्य और निर्जरक इन दोनों रूप निर्जरा तत्त्व है । बंध होने योग्य और बंध करने वाला ऐसे बंध्य और बंधक इन दोनों रूप बंध तत्त्व है । मुक्त होने योग्य और मुक्त होने वाला ऐसे मोच्य और मोचक इन दोनों रूप मोक्ष तत्व है । स्वयं एक में पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष ये सात तत्त्व बन नहीं सकते हैं उभयशब्द से जीव अजीव ये दो तत्त्व कहे जाते हैं अर्थात् पुण्य, पाप आदि सात पदार्थ जीवरूप भी हैं और अजीवरूप भी हैं । इनमें से विकार्य, आस्राव्य, संवार्य, निर्जर्य, बंध्य और मोच्य इनरूप जीव परिणत होता है तथा विकारक, आस्रावक, संवारक, निर्जरक, बंधक और मोचक इन रूप अजीव (पुद्गल) परिणत होता है ।
बाह्यदृष्टि से विचार करने पर जीव और पुद्गल की अनादिबंधपर्याय को प्राप्त कर एकत्वरूप से इन नवतत्त्वों का अनुभव करने पर ये भूतार्थ हैं-सत्यार्थ हैं और एक जीवद्रव्य के स्वभाव को प्राप्त कर उनका अनुभव करने पर वे अभूतार्थ-असत्यार्थ हैं इस लिए इन नव तत्त्वों में भूतार्थनय से एक जीव ही ही प्रद्योतित-शोभित हो रहा है। उसी प्रकार अन्तर्दृष्टि से देखा जाये तो एक ज्ञायकभाव ही जीव है, उस जीव में विकार का कारण अजीव है । पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष लक्षण वाले ये सात पदार्थ केवल जीव के विकार हैं अर्थात् पर निमित्त से ही निर्मित हुए हैं । पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष लक्षण वाले ये सात पदार्थ केवल जीव के विकार हैं अर्थात् पर निमित्त से ही निर्मित हुए हैंं। पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष ये केवल जीव के विकार में हेतु हैं । जीव द्रव्य के स्वभाव को छोड़कर स्वपरनिमित्तक एक द्रव्य-पर्यायरूप से अनुभव करने पर ये नवतत्त्व भी भूतार्थ हैं तथा सर्वकाल में ही अस्खलित-नहीं चिगते हुए एक जीव के स्वभाव को प्राप्त कर उसका अनुभव करने पर ये नवतत्त्व अभूतार्थ हैं । इसलिए उन्हीं नवतत्त्वों में भूतार्थनय की अपेक्षा से एक जीव ही प्रकाशमान हो रहा है । इस प्रकार से यह एकरूप से प्रकाशमान होता हुआ शुद्धनय के द्वारा ही अनुभव में आता है । जो यह अनुभूति है वह आत्मख्याति ही है और जो आत्मख्याति है वही सम्यग्दर्शन है । इस तरह यह सभी कथन निर्दोष है ।
विशेषार्थ- यहाँ पर ऐसा कहा गया है कि भूतार्थ से जाने गये नव पदार्थ ही सम्यक्त्व हैं । अब यहाँ पहले प्रश्न यह होता है कि यह भूतार्थ क्या है? गाथा ११वीं में श्रीकुन्दकुन्ददेव ने स्वयं ही शुद्धनय को भूतार्थ कहा है और शुद्धनय से तो जीव के साथ कर्म का संबंध ही नहीं है पुन: जीव और पुद्ल के शुद्ध, पृथक्-पृथक् ही रहने पर आगे के पुण्य, पाप, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात पदार्थ भला कैसे बन सवेंगे? अर्थात् नहीं बन सकते हैं । तो फिर आखिर यहाँ भूतार्थ से क्या अर्थ लेना? यह विचारणीय विषय हो जाता है । इसी गाथा की तात्पर्यवृत्ति टीका में श्रीजयसेनाचार्य ने व्यवहार के भूतार्थ-अभूतार्थ और शुद्धनय-निश्चय के भूतार्थ-अभूतार्थ ऐसे चार भेद कर दिये हैं अत: निश्चयनय अर्थात् भूतार्थनय के शुद्ध निश्चय और अशुद्धनिश्चय दो भेद हो गये हैं । इनमें शुद्ध निश्चयनय से तो नवतत्त्व व्यवस्था बन नहीं सकती है किन्तु अशुद्धनिश्चयनय से ही नवतत्त्व की व्यवस्था होती है अत: यहाँ पर ‘भूतार्थ शब्द से अशुद्धनिश्चयनयरूप भूतार्थ को लेना संगत प्रतीत होता है । अथवा भूतार्थ के सत्यार्थ, यथार्थ, वास्तविक और प्रयोजनीभूत ये अर्थ करने चाहिए। तभी तो ये नवतत्त्व यथार्थ-जैसे के तैसे जाने गये ‘सम्यक्त्व’ हो जाते हैं ।
प्रश्न- नवतत्त्व सम्यक्त्व कैसे होंगे? क्योंकि आत्मा का श्रद्धानरूप भाव सम्यग्दर्शन होता है?
उत्तर – आपका कथन ठीक है, फिर भी यहाँ कारण में कार्य का उपचार करके अभेदोपचार से इन नवतत्त्वों को ही सम्यग्दर्शन कह दिया है । चूँकि ये नवतत्त्व जो श्रद्धानरूप सम्यक्त्व हैं उसके लिए कारण हैं अथवा उसके विषय हैं इस दृष्टि से भी विषय-नवतत्त्व और विषयी-सम्यक्त्व इनमें अभेद करके अभेदोपचार से इन्हें ही सम्यक्त्व कह दिया है । इसी बात को श्रीजयसेनस्वामी ने तात्पर्यवृत्ति टीका में स्पष्ट कर दिया है । अब आप ‘भूतार्थ’ के विषय में श्री अमृतचंद्रसूरि का अभिप्राय देखिए-ये नवतत्त्व भूतार्थ से जाने गये सम्यग्दर्शन हो जाते हैं । ये अभूतार्थनय से कहे गये नवतत्त्व तीर्थ प्रवृत्ति के लिए हैं फिर भी इन नवतत्त्वों में एकत्व को प्रकट करने वाला जो भूतार्थनय है उसके द्वारा एकत्व का आश्रय लेकर शुद्धनय से व्यवस्थापित जो एक आत्मतत्त्व है उसी की अनुभूति होती है । इस कथन से भी यह स्पष्ट हो जाता है कि यहाँ पर नवतत्त्वों को कहने वाला जो भूतार्थ है उसका यथार्थ अर्थ ही विवक्षित है । चूँकि आगे वे स्वयं कहते हैं कि ये पुण्य, पाप, आस्रव आदि तत्त्व केवल एक जीव से या केवल एक अजीव से उत्पन्न नहीं हुए हैं किन्तु ये जीव-अजीव के मेल से बने हुए हैं अत: जब हम बाह्यदृष्टि से देखते हैं तब ये अनादिकालीन बंध की अपेक्षा से भूतार्थ हैं किन्तु अंतर्दृष्टि से देखने पर एक जीव द्रव्य के स्वभाव की मात्र विवक्षा रहती है तब ये अभूतार्थ हो जाते हैं । अब यहाँ बाह्यदृष्टि और अंतर्दृष्टि का भी क्या अभिप्राय है? बाह्यदृष्टि अर्थात् औपाधिक भावों को ग्रहण करने वाला अशुद्ध निश्चयनय या व्यवहारनय उसकी अपेक्षा से ही ये नवतत्त्व भूतार्थ अर्थात् यथार्थ हैं-
प्रयोजनीभूत हैं किन्तु अंतर्दृष्टि अर्थात् शुद्धनिश्चयनय, उसकी अपेक्षा से मात्र जीव द्रव्य के शुद्धज्ञानदर्शनस्वभाव को देखने पर ये नवतत्त्व स्वयं अभूतार्थ, अयथार्थ, अप्रयोजनीभूत हो जाते हैं । चूँकि इस अंतर्दृष्टि से अर्थात् स्वभावदृष्टि से देखने पर एक ज्ञायक भावमात्र ही जीव है पुन: व्यवहार से विचार करने पर जीव को विकारी-संसारी बनाने वाला अजीव द्रव्य है अत: भावपुण्य, भावपाप, भावआस्रव आदि सात पदार्थ केवल जीव के विकार हैं और द्रव्यपुण्य, द्रव्यपाप, द्रव्यआस्रव आदि जो पौद्गलिक सात पदार्थ हैं वे केवल जीव के विकार में हेतु हैं । इस कथन से भी आचार्य श्री अमृतचंद्रसूरि जीव-अजीव के परस्पर में निमित्त नैमित्तिक संबंध से ही सात पदार्थों की व्यवस्था मानकर उसे यथार्थ कह रहे हैं न कि सर्वथा अयथार्थ, क्योंकि आगे वे स्वयं कहते हैं कि जब जीवद्रव्य के स्वभाव को छोड़कर मात्र स्वपरनिमित्तक जो एकद्रव्य की पर्याये हैं । उनकी अपेक्षा से अनुभव होता है तो ये सभी नवपदार्थ भूतार्थ हैं किन्तु जब मात्र जीवद्रव्य के स्वभाव की अपेक्षा से अर्थात् परमभावग्राहक पारिणामिक भाव की अपेक्षा के देखने पर ये सब नवतत्त्व अभूतार्थ ही हैं इसलिए इन नवतत्त्वों में भूतार्थनय से अर्थात् शुद्ध निश्चयनय से मात्र एक जीवतत्त्व ही प्रकाशित होता है उसी का महामुनिगण शुद्धनय से निर्विकल्पध्यान में अनुभव करते हैं और उनका जो अनुभव है वही आत्मख्याति है, वही सम्यग्दर्शन है । यहाँ पर भी जो सम्यग्दर्शन लिया है वह निश्चय सम्यग्दर्शन है जो कि वीतरागचारित्र के साथ अविनाभूत है । तात्पर्य यही हुआ कि अशुद्धनिश्चयनय से ये नव पदार्थ होते हैं उनको जैसे का तैसा जानना ही सम्यक्त्व है । सातवें, आठवें आदि गुणस्थानों में आरोहण करने पर निर्विकल्प परमसमाधिरूप शुद्धोपयोग में इनका अनुभव नहीं होता है । अत: ये वहाँ पर अभूतार्थ हो जाते हैं किन्तु उसके पहले-पहले अशुद्धनिश्चयनय से ये भूतार्थ हैं, यथार्थ हैं । शुद्ध निश्चयनय से चौथे, पाँचवें और छठे गुणस्थानों तक ‘इनमें एक शुद्ध जीव ही भूतार्थ-यथार्थ हैं, ऐसा श्रद्धान होता है । आगे निर्विकल्पध्यान में मात्र उसी शुद्ध जीव का अनुभव रह जाने से ये अभूतार्थ हो जाते हैं, अप्रयोजनीभूत हो जाते हैं । उसके पहले-पहले प्रयोजनीभूत हैं क्योंकि सारा द्वादशांग इन्हीं नवतत्त्वों पर ही आधारित है ।
भूमिका- अथ कश्चिदासन्नभव्य: पीठिकाव्याख्यानमात्रेणैव हेयोपादेयतत्त्वं परिज्ञाय विशुद्धज्ञान-दर्शनस्वभावं निजस्वरूपं भावयति। विस्तररुचि: पुनर्नवभिर-धिकारै: समयसारं ज्ञात्वा पश्चाद्भावनां करोति। तद्यथा-विस्तररुचिशिष्यं प्रति जीवादिनवपदार्थाधिकारै: समयसारव्याख्यानं क्रियते । उत्थानिका – तत्रादौ नवपदार्थाधिकारगाथाया आत्र्तरौद्रपरित्यागलक्षण-निर्विकल्पसामायिकस्थितानां यच्छुद्धात्मरूपस्य दर्शनमनुभवनमवलोकनमुप-लब्धि: संवित्ति: प्रतीति: ख्यातिरनुभूतिस्तदेव निश्चयनयेन निश्चयचारित्राविनाभावि निश्चयसम्यक्त्वं भण्यते। तदेव च गुणगुण्यभेदरूपनिश्चनयेन शुद्धात्मस्वरूपं भवतीत्येका पातनिका। अथवा नवपदार्था भूतार्थेन ज्ञाता: संतस्त एवाभेदोप-चारेण सम्यक्त्वविषयत्वाद् व्यवहारसम्यक्त्वनिमित्तं भवंति, निश्चयनयेन तु स्वकीयशुद्धपरिणाम एव सम्यक्त्वमिति द्वितीया चेति पातनिकाद्वयं मनसि धृत्वा सूत्रमिदं प्ररूपयति:-
भूदत्थेणाभिगदा, जीवाजीवा य पुण्णपावं च।
आसवसंवरणिज्जर-बंधो मोक्खो य सम्मत्तं।।१५।।
भूतार्थेनाऽभिगता जीवाऽजीवौ च पुण्यपापं च।
आस्रव-संवर-निर्जरा-बंधो मोक्षश्च सम्यक्त्वम्।।१५।।
तात्पर्यवृत्ति – भूदत्थेण भूतार्थेन निश्चयनयेन शुद्धनयेन अभिगदा अभिगता निर्णीता निश्चिता ज्ञाता: संत:। के ते। जीवाजीवा य पुण्यपावं च आसवसंवर-णिज्जरबंधो मोक्खो य जीवाजीवपुण्यपापास्रवसंवर-निर्जराबंधमोक्षस्वरूपा नव पदार्था: सम्मत्तं त एवाभेदोपचारेण सम्यक्त्वविषयत्वात्कारणत्वात्सम्यक्त्वं भवंति। निश्चयेन परिणाम एव सम्यक्त्वमिति। नव पदार्था भूतार्थेन ज्ञाता: संत सम्यक्त्वं भवंतीत्युत्तं भवद्भिस्तत्कीदृशं भूतार्थपरिज्ञानमिति पृष्टे प्रत्युत्तरमाह। यद्यपि नव पदार्था: तीर्थवत्र्तनानिमित्तं प्राथमिकशिष्यापेक्षया भूतार्था भण्यंते तथाप्यभेदरत्नत्रयलक्षणनिर्विकल्पसमाधिकाले अभूतार्था असत्यार्था: शुद्धात्म-स्वरूपं न भवंति। तस्मिन् परमसमाधिकाले नवपदार्थमध्ये शुद्धनिश्चयनयेनैक एव शुद्धात्मा प्रद्योतते प्रकाशते प्रतीयते अनुभूयत इति। या चानुभूति: प्रतीति: शुद्धात्मोपलब्धि: सा चैव निश्चयसम्यक्त्वमिति सा चैवानुभूतिर्गुणगुणि-नोर्निश्चयनयेनाभेदविवक्षायां शुद्धात्मस्वरूपमिति तात्पर्यं। किं च, ये च प्रमाणनयनिक्षेपा: परमात्मादितत्त्वविचारकाले सहकारिकारणभूतास्तेपि सकिवल्पावस्थायामेव भूतार्था:। परमसमाधिकाले पुनरभूतार्थास्तेषु मध्ये भूतार्थेन शुद्धजीव एक एव प्रतीयते। इति नवपदार्थाधिकारगाथा गता।।१५।।
यहाँ से श्रीजयसेनाचार्य ने जीवाधिकार प्रारंभ किया है-
भूमिका- कोई आसन्न भव्य जीव इस पीठिका के व्याख्यानमात्र से ही हेय-उपादेय तत्त्वो को जानकर विशुद्धज्ञानदर्शन स्वभाव वाले अपने स्वरूप की भावना करता है उसका अनुभव करता है किन्तु पुन: विस्ताररुचिवाला कोई शिष्य आगे कहे जाने वाले नव अधिकारों के द्वारा समयसारस्वरूप-अपनी शुद्ध आत्मा को समझकर अनंतर उसकी भावना करता है । उसी विस्तार-रुचि वाले शिष्य के प्रति जीवादि नव पदार्थ के नव अधिकारों से इस समयसार का व्याख्यान किया जा रहा है ।
उत्थानिका –उनमें सर्वप्रथम नवपदार्थ के अधिकाररूप गाथा में आर्त, रौद्रध्यान के परित्याग लक्षण, निर्विकल्पसामायिक में जो स्थित हैं, ऐसे मुनियों के जो शुद्ध आत्मा के स्वरूप का दर्शन है, अनुभवन है, अवलोकन है, उपलब्धि है, संवित्ति है, प्रतीति है, ख्याति है और अनुभूति है वही निश्चयनय से निश्चयचारित्र के साथ अविनाभाव संबंध रखने वाला ऐसा निश्चयसम्यक्त्व या वीतरागसम्यक्त्व कहलाता है और वही सम्यक्त्व गुण-गुणी में अभेद को कहने वाले ऐसे निश्चयनय से शुद्धात्मा का स्वरूप है । इस प्रकार से यह एक पातनिका अर्थात् उत्थानिका हुई। अथवा भूतार्थ से जाने गये जो जीवादि नव पदार्थ हैं वे ही अभेदापचार से सम्यक्त्व का विषय होने से व्यवहारसम्यक्त्व के निमित्त होते हैं, किन्तु निश्चयनय से अपनी आत्मा का शुद्ध परिणाम ही सम्यक्त्व है, इस प्रकार से यह दूसरी उत्थानिका हुई। इस तरह इन दोनों उत्थानिकाओं को मन में रखकर आगे का सूत्र प्ररूपित करते हैं-
अन्वयार्थ – (भूयत्थेण अभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं च आसव-संवरणिज्जर बंधो य मोक्खो सम्मत्तं) भूतार्थ से-अशुद्ध निश्चयनय से जाने गये जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष ये ही सम्यक्त्व हैं ।।१५।।
तात्पर्यवृत्ति –भूतार्थ अर्थात् निश्चयनय या शुद्धनय, इस शुद्धनय के द्वारा निर्णय किये गये-निश्चित किये गये-जाने गये जो जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष ये नव पदार्थ हैं, वे ही अभेद के उपचार के द्वारा सम्यक्त्व होते हैं, क्योंकि ये नव पदार्थ ही सम्यक्त्व के विषय हैं और सम्यक्त्व के लिए कारण हैं । निश्चयनय से आत्मा का श्रद्धानरूप परिणाम ही सम्यक्त्व है ।
प्रश्न- नवपदार्थ भूतार्थ से जाने गये सम्यक्त्व होते हैं ऐसा आपने कहा है तो वह भूतार्थ परिज्ञान कैसा होता है?
उत्तर –यद्यपि तीर्थप्रवृत्ति के लिए प्राथमिकशिष्यों की अपेक्षा से ये नव पदार्थ भूतार्थ कहे जाते हैं फिर भी अभेदरत्नत्रयलक्षण निर्विकल्पसमाधि के काल में अभूतार्थ अर्थात् असत्यार्थ है क्योंकि ये शुद्धात्मा के स्वरूप नहीं है ।
उस परमसमाधि के काल में इन नव पदार्थों में से शुद्धनिश्चयनय से एक शुद्ध आत्मा ही प्रद्योतित होता है-प्रकाशित होता है, प्रतीति में आता है और अनुभव में आता है । जो यह अनुभूति है, प्रतीति है, शुद्धात्मा की उपलब्धि है वह ही निश्चयसम्यक्त्व है । इस प्रकार वह अनुभूति ही गुण और गुणी में निश्चयनय से अभेद की विवक्षा करने पर शुद्धात्मा का स्वरूप है यह अभिप्राय हुआ । उसी प्रकार से जो प्रमाण, नय और निक्षेप हैं वे भी परमात्मा आदि तत्त्वों के विचार के समय सहकारी कारणभूत हैं अत: वे भी सविकल्प अवस्था में ही भूतार्थ हैं किन्तु वे परमसमाधि के काल में अभूतार्थ हैं उन सब में भूतार्थ से एक शुद्ध जीव ही प्रतीति में आता है । इस प्रकार नव पदार्थ के अधिकार की गाथा हुई ।।१५।।
भावार्थ- यहाँ पर तो स्पष्टरूप से जयसेनाचार्य ने कह दिया है कि ये नव पदार्थ अभेदरत्नत्रय लक्षण निर्विकल्पध्यान में अभूतार्थ हैं इसके पहले तक भूतार्थ हैं । इससे इस भूतार्थ का प्रयोजनीभूत यह अर्थ सुघटित हो जाता है और इससे यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि शुद्धोपयोग के पहले-पहले यह निश्चयसम्यक्त्व भी नहीं होता है । यहाँ पर भी जो भूतार्थ को निश्चयनय कहा है उससे अशुद्धनिश्चयनय ही ठीक लगता है क्योंकि शुद्धनिश्चयनय से तो जीव त्रिकाल शुद्ध सिद्ध ही है । ऐसे ही प्रमाण, नय आदि भी छठे गुणस्थान तक प्रयोजनीभूत ही हैं । इसी गाथा को श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने अपने मूलाचार ग्रंथ में लिया है-
भूयत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं च।
आसवसंवरणिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मत्तं।।२०३।।
अवयवार्थपूर्विका वाक्यार्थप्रतिपत्तिरिति कृत्वा तावदवयवार्थो व्याख्यायते। भूदत्थेण-भूतश्चासावर्थश्च भूतार्थस्तेन। यद्यप्ययं भूतशब्द: पिशाचजीवसत्य-पृथिव्याद्यनेकार्र्थे वर्तते तथाप्यत्र सत्यवाची परिगृह्यते, तथार्थशब्दो यद्यपि पदार्थ प्रयोजनस्वरूपाद्यर्थे वर्तते तथापि स्वरूपार्थे वर्तमान: परिगृहीतोऽन्यार्थवाचकेन प्रयोजनाभावात्, भूतार्थेन सत्यस्वरूपेण याथात्म्येन। अभिगदा-अभिगता: अधिगता: स्वेन स्वेन स्वरूपेण प्रतिपन्ना: जीवाश्चेतनलक्षणा ज्ञानदर्शनसुखदु:खा-नुभवनशीला:। तद्व्यतिरिक्ता अजीवाश्च पुद्गलधर्माधर्मास्तिकायाकाशकाला: रूपादिगतिस्थित्यवकाशवर्तनालक्षणा:। पुण्यं-शुभप्रकृतिस्वरूपपरिणतपुद्गलपिंडो जीवाह्लादननिमित्त:। पावं-पापं चाशुभकर्मस्वरूपपरिणतपुद्गलप्रचयो जीवस्या-सुखहेतु:। आसव-आसमन्तात् स्रवत्युपढौकते कर्मानेनास्रव:। संवर-कर्मागमन-द्वारं संवृणोतीति संवरणमात्रं वा संवरोऽपूर्वकर्मागमननिरोध:। णिज्जर-निर्जरणं निर्जरयत्यनया वा निर्जरा जीवलग्नकर्मप्रदेशहानि:। बंधो-बध्यतेऽनेन बन्धनमात्रं वा बन्धो जीवकर्मप्रदेशान्योन्यश्संश्लेषोऽस्वतंत्रीकरणं। मोक्खो-मुच्यतेऽनेन मुक्तिर्वा मोक्षो जीवप्रदेशानां कर्मरहितत्वं स्वतंत्रीभाव:। चशब्द: समुच्च्यार्थ:। सम्मत्तं-सम्यक्त्वं। एतेषां यथाक्रम एव न्याय:, जीवस्य प्राधान्यादुत्तरोत्तराणां पूर्वपूर्वोपकाराय प्रवृत्तत्वाद्वा। न चैतेषामभावो ज्ञानरूपमुपचारो वा धर्मार्थकाम-मोक्षाणाम-भावादाश्रयाभावात्मुख्याभावाच्च प्रमाणप्रमेयव्यवहाराभावाल्लोक-व्यवहाराभावाच्च। जीवाजीवा भूतार्थेनाधिगता: सम्यक्त्वं। तथा पुण्यपापं चाधिगतं सम्यक्त्वं। तथा आस्रवसंवरनिर्जराबन्धमोक्षाश्चाधिगता: सन्त: सम्यक्त्वं भवति। ननुकथमेतेऽधिगता: सम्यक्त्वं यावतैषामधिगतानां यत्प्रधानं तत् सम्यक्त्वमित्युत्तं, नैष दोष:, श्रद्धानरूपैवेयमधिगतिरन्यथा परमार्थाधिगतेरभावात् कारणे कार्योप-चाराद्वा जीवादयोऽधिगता: सम्यक्त्वमित्युत्तं। जीवादीनां परमार्थानां यच्छ्रद्धानं तत्सम्यक्त्वं। अनेन न्यायेनाधिगमलक्षणं दर्शनमुत्तं भवति।।२०३।।
गाथार्थ- सत्यार्थरूप से जाने गये जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष ये ही सम्यक्त्व हैं ।।२०३।।
आचारवृत्ति –अवयवों के अर्थपूर्वक ही वाक्य के अर्थ का ज्ञान होता है, इसलिए पहले अवयव के अर्थ का व्याख्यान करते हैं । अर्थात् पदों से वाक्य रचना होती है इसलिए प्रत्येक पद का अर्थ पहले कहते हैं जिससे वाक्यों का ज्ञान हो सकेगा। भूत और अर्थ इन दो पदों से भूतार्थ बना है । उसमें से यद्यपि भूत शब्द पिशाच, जीव, सत्य, पृथ्वी आदि अनेक अर्थों में विद्यमान हैं फिर भी यहाँ पर सत्य अर्थ में होना चाहिए। उसी प्रकार से अर्थ शब्द यद्यपि पदार्थ, प्रयोजन और स्वरूप आदि अनेक अर्थों का वाचक है फिर भी यहाँ पर स्वरूप अर्थ में लिया गया है क्योंकि यहाँ पर अन्य अर्थ का प्रयोजन नहीं है । तात्पर्य यह है कि जो पदार्थ जिस रूप से व्यवस्थित हैं, वे अपने-अपने स्वरूप से ही जाने गये हैं, सम्यक्त्व हैं । जीव का लक्षण चेतना है । वह चेतना ज्ञान, दर्शन, सुख और दु:ख के अनुभव स्वभाव वाली है । उससे व्यतिरिक्त पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल ये अजीव द्रव्य हैं । रूप, रस, गंध और स्पर्श गुणवाला पुद्गल है । धर्मद्रव्य जीव-पुद्गलों की गति में सहायक होने से गति लक्षण वाला है ।
अधर्मद्रव्य इनकी स्थिति में सहायक होने से स्थितिलक्षण वाला है । आकाश द्रव्य सभी द्रव्यों को अवकाश देने वाला होने से अवकाश लक्षण वाला है और काल द्रव्य वर्तना लक्षण वाला है । शुभ प्रकृति स्वरूप परिणत हुआ पुद्गल पिण्ड पुण्य कहलाता है जो कि जीवों में आल्हादरूप सुख का निमित्त है । अशुभ कर्म स्वरूप परिणत हुआ पुद्गल पिण्ड पापरूप है जो कि जीव के दु:ख का हेतु है । जिससे कर्म आ-सब तरफ से, स्रवति-आते हैं वह आस्रव है अर्थात् कर्मों का आना आस्रव है । कर्म के आगमन-द्वार को जो रोकता है अथवा कर्मों का रुकना मात्र ही संवर है अर्थात् आने वाले कर्मों का आना रुक जाना संवर है । कर्मों का निर्जीर्ण होना अथवा जिसके द्वारा कर्म निर्जीर्ण होते हैं, झड़ते हैुं, वह निर्जरा है । अर्थात् जीव में लगे हुए कर्म प्रदेशों की हानि होना निर्जरा है । यहाँ व्याकरण के लक्षण की व्युत्पत्ति से निर्जरणं अनया निर्जरयति वा इस प्रकार से भाव अर्थ में और करण-साधन में विवक्षित है, जिसका ऐसा अर्थ है कि कर्मों का झड़ना यह तो द्रव्य निर्जरा है और जिन परिणामों से कर्म झड़ते हैं, वे परिणाम ही भावनिर्जरा है । जिसके द्वारा कर्म बंधते हैं, अथवा बंधना मात्र ही बंध का लक्षण है (बध्यतेऽनेन बन्धनमात्रं वा) इस व्युत्पत्ति के अनुसार भी भावबंध और द्रव्यबंध विवक्षित हैं । जीव के प्रदेश और कर्म प्रदेश-परमाणुओं का परस्पर में संश्लेष हो जाना-एकमेक हो जाना बंध है, जो जीव और पुद्गलवर्गणा दोनों की स्वतंत्रता को समाप्त कर उन्हें परतंत्र कर देता है । जिसके द्वारा जीव मुक्त होवे, छूट जाये अथव छूटना मात्र ही मोक्ष है ।
इसमें भी व्युत्पत्ति (मुच्यतेऽनेन मुक्तिर्वा) के लक्षण से भावमोक्ष और द्रव्यमोक्ष विवक्षित है अर्थात् जिन परिणामों से आत्मा कर्म से छूटता है, वह भावमोक्ष है और कर्मों से छूटना ही द्रव्य मोक्ष है, सो ही कहते हैं कि जीव के प्रदेशों का कर्म से रहित हो जाना, जीव की परतंत्र अवस्था समाप्त होकर उसका पूर्ण स्वतंत्र भाव प्रकट हो जाना ही मोक्ष है। इन नव पदार्थों का जो यहाँ क्रम लिया है वही न्यायपूर्ण है, क्योंकि जीव द्रव्य ही प्रधान है अथवा आगे-आगे के पदार्थ पूर्व-पूर्व के उपकार के लिए प्रवृत्त होते हैं ।
शंका –इन पदार्थों का अभाव है अथवा ये पदार्थ ज्ञान रूप ही हैं या ये उपचार रूप ही हैं ? अर्थात् शून्यवादी किसी भी पदार्थ का अस्तित्व नहीं मानते हैं सो वे ही सबका अभाव कहते हैं । विज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध सभी चर-अचर जगत् को एक ज्ञान रूप ही मानते हैं तथा सामान्य बौद्ध या ब्रह्माद्वैतवादी सभी वस्तुओं को उपचार अर्थात् कल्पनारूप ही मानते हैं । उनका कहना है कि यह सम्पूर्ण विश्व अविद्या का ही विलास है । इन सम्प्रदायवादियों की अपेक्षा से ये तीन शंकाएँ उठाई गई हैं ।
समाधान –आप ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि यदि जीव पदाथों को या मात्र जीव को ही न माना जाये, तो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों का अभाव हो जायेगा। अथवा यदि जीव को ज्ञानरूप ही मान लोगे तो ज्ञान तो एक गुण है और जीव गुणी है, ज्ञान गुण के ही मानने से उसके आश्रय का अभाव हो जायेगा अर्थात् आश्रयभूत जीव पदार्थ नहीं सिद्ध हो सकेगा। यदि जीवादि को उपचार कहोगे तो मुख्य का अभाव हो जायेगा और मुख्य के बिना उपचार की प्रवृत्ति भी वैâसे हो सकेगी तथा इन एकान्त मान्यताओं से प्रामण और प्रमेय अर्थात् ज्ञान और ज्ञेय रूप व्यवहार का भी अभाव हो जायेगा और तो और, लोक-व्यवहार का ही अभाव हो जाता है अर्थात् जो कुछ भी लोकव्यवहार चल रहा है, वह सब समाप्त हो जावेगा। सत्यार्थस्वरूप से जने गये ये जीव-अजीव सम्यक्त्व हैं । उसी प्रकार से सत्यार्थ स्वरूप से जाने गये पुण्य और पाप ही सम्यक्त्व हैं । तथैव सत्यार्थ स्वरूप से जाने गये आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष ही सम्यक्त्व हैं ।
शंका – ये जाने गये सभी सम्यक्त्व कैसे हैं ? सत्यार्थरूप से जाने गये इनमें से जो प्रधान है वह सम्यक्त्व है ऐसा कहना तो युक्त हो ही सकता है ?
समाधान – यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यह अधिगति-ज्ञान श्रद्धानरूप ही है अन्यथा-यदि ऐसा नहीं मानोगे, तो परमार्थरूप से जानने का अभाव हो जायेगा। अथवा कारण में कार्य का उपचार होने से जाने गये जीवादि पदार्थों को ही सम्यक्त्व कह दिया है । किन्तु वास्तव में परमार्थरूप जीवादि पदार्थों का जो श्रद्धान है, वह सम्यक्त्व है । इस न्याय से यहाँ पर अधिगम लक्षण सम्यग्दर्शन को कहा गया है-ऐसा समझना ।
णव य पदत्था जीवाजीवा ताणं च पुण्णपावदुगं ।
आसवसंवरणिज्जरबंधा मोक्खो य होंतित्ति ।।६२१।।
जीवदुगं उत्तत्थं जीवा पुण्णा हु सम्मगुण सहिदा ।
वदसहिदा वि य पावा तव्विवरीया हवंतित्ति ।।६२२।।
जीवा अजीवा: तेषां पुण्यपापद्वयं आस्रव: संवरो निर्जरा बन्धो मोक्षश्चेति नवपदार्था भवन्ति।
पदार्थशब्द: सर्वत्र सम्बन्धनीय:,-जीवपदार्थ: इत्यादि: ।।६२१।।
जीवाजीवपदार्थौ द्वौ पूर्व जीवसमासे षड्द्रव्याधिकारे चोक्तार्थौ ।
पुण्यजीवा: सम्यक्त्वगुणयुक्ता व्रतयुक्ताश्च स्यु:।
तद्विपरीतलक्षणा: पापजीवा: खलु-नियमेन ।।६२२।।
तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनमित्युक्तम् ।
अथ किं तत्त्वमित्यत इदमाह-
जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् ।।४।।
तत्र चेतनालक्षणो जीव:। सा च ज्ञानादिभेदादनेकधा भिद्यते। तद्विपर्ययलक्षणोऽजीव:। शुभाशुभकर्मागमद्वाररूपं आस्रव:। आत्म-कर्मणोरन्योऽन्यप्रदेशानुप्रवेशात्मको बन्ध:। आस्रवनिरोधलक्षण: संवर:। एकदेशकर्मसंक्षयलक्षणा निर्जरा। कृत्स्नकर्म वियोगलक्षणो मोक्ष:। एषां प्रपञ्च उत्तरत्र वक्ष्यते। सर्वस्य फलस्यात्माधीनत्वादादौ जीवग्रहणम्। तदुपकारार्थत्वात्तदनन्तरमजीवाभिधानम्। तदुभयविषयत्वात्तदनन्तरमा-स्रवग्रहणम्। तत्पूर्वकत्वातदनन्तरं बन्धाभिधानम्। संवृतस्य बन्धाभावा-त्तत्प्रत्यनीकप्रतिपत्त्यर्य तदनन्तरं संवरवचनम्। संवरे सति निर्जरोपपत्तेस्त-दन्तिके निर्जरावचनम्। अन्ते प्राप्यत्वान्मोक्षस्यान्ते वचनम्। इह पुण्यपापग्रहणं कत्र्तव्यम्। ‘नव पदार्था:’ इत्यन्यैरप्युक्तत्वात्। न कत्र्तव्यम् आस्रवे बंधे चान्तर्भावात्। यद्येवमास्रवादिग्रहणमनर्थवंâ, जीवाजीवयोरन्तर्भावात्। नानर्थकम्। इह मोक्ष: प्रकृत:। सोऽवश्यं निर्देष्टव्य:। स च संसारपूर्वक:। संसारस्य प्रधानहेतुरास्रवो बन्धश्च। मोक्षस्य प्रधानहेतु संवरो निर्जरा च। अत: प्रधानहेतुहेतुमत्फलनिदर्शना-र्थत्वात्पृथगुपदेश: कृत:। दृश्यते हि सामान्येऽन्तर्भूतस्यापि विशेषस्य पृथगुपादानं प्रयोजनार्थम्। क्षत्रिया आयाता: सूरवर्माऽपि इति। तत्त्वशब्दो भाववाचीत्युक्त:। स कथं जीवादिभिद्र्रव्यवचनै: सामानाधिकरण्यं प्रतिपद्यते? अव्यतिरेकात्तद्भावाध्यारोपाच्च सामाना-धिकरण्यं भवति। यथा ‘उपयोग एवात्मा’ इति। यद्येवं तत्त्ल्लिङ्ग-संख्यानुवृत्ति: प्राप्नोति ? विशेषणविशेष्यसंबन्धे सत्यपि शब्दशक्तिव्य-पेक्षया उपात्तलिङ्गसंख्याव्यतिक्रमो न भवति।’ अयं क्रम आदिसूत्रेऽपि योज्य:।
जीवादि पदार्थों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है यह पहले कहे आये हैं ।
जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये तत्त्व हैं ।।४।।
इनमें से जीव का लक्षण चेतना है जो ज्ञानादिक के से अनेक प्रकार की है । जीव से विपरीत लक्षण वाला अजीव है । शुभ और अशुभ कर्मों के आने के द्वार रूप आस्रव है । आत्मा और कर्म के प्रदेशों का परस्पर मिल जाना बंध है । आस्रव का रोकना संवर है । कर्मों का एकदेश अलग होना निर्जरा है और सब कर्मों का आत्मा से अलग हो जाना मोक्ष है । इनका विस्तार से वर्णन आगे करेंगे। सब फल जीव को मिलता है, अत: सूत्र के प्रारंभ में जीव का ग्रहण किया है । अजीव-जीव का उपकारी है यह दिखलाने के लिए जीव के बाद अजीव का कथन किया है । आस्रव जतीव और अजीव दोनों को विषय करता है अत: इन दोनों के बाद आस्रव का ग्रहण किया है । बंध आस्रव पूर्वक होता है, इसलिए आस्रव के बाद बंध का कथन किया है । संवृत जीव के बंध नहीं होता, अत: संवर बंध का उलटा हुआ इस बात का ज्ञान कराने के लिए बंध के बाद संवर का कथन किया है । संवर के होने पर निर्जरा होती है, इसलिए संवर के पास निर्जरा कही है । मोक्ष अन्त में प्राप्त होता है, इसलिए उसका अन्त में कथन किया है ।
शंका – सूत्र में पुण्य और पाप का ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि पदार्थ नौ हैं, ऐसा दूसरे आचार्यों ने भी कथन किया है ?== समाधान – पुण्य और पाप का ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि उनका आस्रव और बंध में अन्तर्भाव हो जाता है । ==शंका – यदि ऐसा है, तो सूत्र में अलग से आस्रव आदि का ग्रहण करना निरर्थक है, क्योंकि उनका जीव और अजीव में अन्तर्भाव हो जाता है ?
समाधान – आस्रव आदि का ग्रहण करना निरर्थक नहीं है, क्योंकि यहाँ मोक्ष का प्रकरण है इसलिए उसका कथन करना आवश्यक है । वह संसारपूर्वक होता है और संसार के प्रधान कारण आस्रव और बंध हैं तथा मोक्ष के प्रधान कारण संवर और निर्जरा है अत: प्रधान हेतु हेतु वाले और उनके फल के दिखलाने के लिए अलग-अलग उपदेश दिया है । देखा भी जाता है कि किसी विशेष का सामान्य में अन्तर्भाव हो जाता है तो भी प्रयोजन के अनुसार उसका अलग से ग्रहण किया जाता है । जैसे क्षत्रिय आये हैं और सूरवर्मा भी। यहाँ यद्यपि सूरवर्मा का क्षत्रियों में अन्तर्भाव हो जाता है, तो भी प्रयोजन के अनुसार उसका अलग से ग्रहणकिया है । इसी प्रकार प्रकृत में जानना चाहिए।
शंका – तत्त्व शब्द भाववाची है यह पहले कह आये हैं, इसलिए उसका द्रव्यवाची जीवादि शब्दों के साथ समानाधिकरण कैसे हो सकता है ?
समाधान – एक तो भाव द्रव्य से अलग नहीं पाया जाता, दूसरे भाव में द्रव्य का अध्यारोप कर लिया जाता है, इसलिए समानाधिकरण बन जाता है । जैसे-‘उपयोग ही आत्मा है’ इस वचन में गुणवाची उपयोग शब्द के साथ द्रव्यवाची आत्मा शब्द का समानाधिकरण है, उसी प्रकार प्रकृत में जानना चाहिए ।
शंका – यदि ऐसा है तो विशेष्य का जो लिंग और संख्या है वही विशेषण को भी प्राप्त होते हैं ?
समाधान – व्याकरण का ऐसा नियम है कि ‘विशेषण-विशेष्य संबंध के रहते हुए भी शब्द शक्ति की अपेक्षा जिसने जो लिंग और संख्या प्राप्त कर ली है, उसका उल्लंघन नहीं होता।’ अत: यहाँ विशेष्य और विशेषण से लिंग और संख्या के अलग-अलग रहने पर भी कोई दोष नहीं है । यह क्रम प्रथम सूत्र में भी लगा लेना चाहिए।
तत्त्वार्थराजवार्तिक के कतिपय अंश-त्रिकालविषयजीवनानुभवनात् जीव: ।।७।।
दशसु प्राणेषु यथोपात्त-प्राणापर्यायेण त्रिषु कालेषु जीवनानुभवनात् ‘जीवति, अजीवीत्, जीविष्यति’ इति वा जीव।तथा सति सिद्धानामपि जीवत्वं सिद्धं जीवितपूर्वत्वात् । संप्रति न जीवन्ति सिद्धा:, भूतपूर्वगत्या जीवत्वमेषाम् इत्यौपचारिकत्वं स्यात्, मुख्यं चेष्यते:, नेष दोष:, भावप्राणज्ञानदर्शनानुभवनात् सांप्रतिकमपि जीवत्वमस्ति। अथवा रूढिशब्दोऽयम्। रूढौ च क्रिया व्युत्पत्त्यर्थेवेति कादाचित्वं जीवनमपेक्ष्य सर्वदा वर्तते गोशब्दवत् । तद्विपर्ययोऽजीव:।।८।।
यस्य जीवनमुक्तलक्षणं नास्त्यसौ तद्विपर्ययाद् अजीव इत्युच्यते । आस्रवत्यनेन आस्रवणमात्रं वा आस्रव:।।९।।
येन कर्मास्रवति यद्वा आस्रवणमात्रं वा स आस्रव: । बध्यतेऽनेन बंधनमात्रं वा बन्ध:।।१०।।
बध्यते येन अस्वतन्त्रीक्रियते येन, अस्वतन्त्रीकरणमात्रं वा बन्ध: । संव्रियतेऽनेन संवरणमात्रं वा संवर:।।११।।
येन संव्रियते येन संरुध्यते, संरोधनमात्रं वा संवर: । निर्जीर्यते यया निर्जरणमात्रं वा निर्जरा।।१२।।
निर्जीर्यते निरस्यते यया, निरसनमात्रं वा निर्जरा । क्ष्यते येन मोक्षणमात्रं वा मोक्ष:।।१३।।
मोक्ष्यते अस्यते येन असनमात्रं वा मोक्ष: ।
त्रैकालिक जीवन का अनुभवन करने वाला होने से जीव है । पाँच इन्द्रिय, मनोबल, वचनबल, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास इन दस प्राणों में से अपनी पर्यायानुसार गृहीत प्राणों के द्वारा तीनों कालों में जीवन का अनुभव करने वाला होने से ‘‘जीता है, जीता था और जीवेगा।’’ इसलिए यह जीव है । ऐसा मानने पर सिद्धों के भी जीवत्व पूर्व होने से जीवत्व सिद्ध होता है । वर्तमान में सिद्ध जीवित नहीं हैं, भूत प्रज्ञापन नय की अपेक्षा जीवत्व होने से सिद्धों में औपचारिक जीवत्व है, मुख्य नहंी, ऐसी आशंका भी नहीं करनी चाहिए। क्योंकि सिद्धों में ज्ञान, दर्शनादि भाव प्राणों का अनुभव वर्तमान में भी है अत: मुख्य ही जीवत्व है । अथवा-जीव शब्द की यह व्युत्पत्ति रूढ़ि से और और रूढ़ि में क्रिया, व्युत्पत्ति अर्थ रहता है-वह कदाचित् जीवन की अपेक्षा से होकर सदा काल रहता है गौ शब्द के समान। अर्थात् ‘‘गच्छतीति गौ, जो चले सो गौ’’ यहाँ बैठी हुई गौ में भी गौ व्यवहार होता है, क्योंकि कभी तो वह चलती थी, उसी प्रकार कभी तो सिद्धों ने द्रव्य प्राणों को धारण किया था। अत: रूढ़िवश उनमें जीव व्यवहार होता रहता है ।।७।।
जीव से विपरीत लक्षणवाला अजीव है, जिसमें जीव का ऊपर कथित लक्षण नहीं पाया जाता है, वह जीव से विपरीत होने से अजीव है ।।८।।
जिसके द्वारा कर्म आते हैं वह या कर्मों का आना मात्र आस्रव है । जिनसे कर्म बँधते है, वह वा कर्मो का बंधना बंध है । कर्म बंधना अर्थात् जिससे आत्मा परतंत्र हो जाता है वा परतंत्र कर दिया जाता है वह बंध है । जिनसे कर्म रुके वह वा रुकना मात्र संवर है । जिनसे आते हुए कर्मों का निरोध किया जाता है वह या कर्मों का आना रुक जाता है, वह संवर तत्त्व है । जिनसे कर्म झड़ते हैं-वह वा उनका झड़ना निर्जरा है । जिनसे कर्म निजरणा कर दिये जाते हैं वह या उनका निरसन हो जाना निर्जरा है । जिससे कर्मों का उच्छेद किया जाता है वह या उच्छेद होता है वह मोक्ष है ।
तादर्थ्यात् परिस्पन्दस्य आदौ जीवग्रहणम् ।।२१।।
योऽयं मोक्षमार्ग-तत्त्वाविष्करणपरिस्पन्द: स आत्मार्थ:, तस्य मोक्षपर्यायपरिणामात्। यो वा जीवाद्युपदेशपरिस्पन्द: स आत्मार्थ: तस्योपयोगस्वाभाव्ये सति ग्राहकत्वात् । अत आदौ जीवग्रहणम् । तदनुग्रहार्थत्वात् तदनन्तरमजीवाभिधानम् ।।२२।।
यत: शरीरवाङ्मन: प्राणापानादिनोपकारेणऽजीव आत्मानमनुगृह्णति, अतस्तदनन्तरमजीवाभिधानम् । तदुभयाधीनत्वात् तत्समीपे आस्रवग्रहणम्।।२३।।
यत आत्मकर्मणो: परस्पराश्लेषे सत्यास्रवप्रसिद्धिर्भवति, अतस्तत्समीपे आस्रवग्रहणम् । तत्पूर्वकत्वाद बन्धस्य तत: परं बन्धवचनम् ।।२४।।
यत आस्रवपूर्वको बन्ध: तत: परं वचनं तस्य क्रियते । संवृतस्य बन्धाभावात् तत्प्रत्यनीकप्रतिपत्त्यर्थ संवरवचनम् ।।२५।।
यत: संवृतस्यात्मनो बन्धो नास्ति ततस्तत्प्रत्यनीकप्रतिपत्त्यर्थं तदनन्तरं संवरवचनम् । संवरे सति निर्जरोपपत्तेस्तदन्तिके निर्जरावचनम् ।।२६।।
यत: संवरपूर्विका निर्जरा ततस्तदन्तिके निर्जरावचनम् । अन्ते प्राप्यत्वात् मोक्षस्यान्ते वचनम् ।।२७।।
निर्जीणेषु कर्मस्वन्ते मोक्ष: प्राप्यत इत्यन्ते वचनम् । पुण्यपापपदार्थोपसंख्यानमिति चेत्; न; आस्रवे बन्धे वा अन्त-र्भावात्।।२८।।
स्यादेतत्-पुण्यपापपदार्थयोरुपसंख्यानं कत्र्तव्यम् अन्यैरप्युक्तत्वादिति; तन्न; विंâ कारणम्? आस्रवे बन्धे वा अन्तर्भावात्, यत आस्रवो बन्धश्च पुण्यपापात्मक:।
परिस्पन्द का तादथ्र्य (जीव के लिए) होने से आदि में जीव ग्रहण किया है । जो यह मोक्षमार्ग के उपदेश आदि का प्रयत्न है वह जीव के लिए किया जाता है । वह जीव ही मोक्षपर्याय रूप परिणत होता है । अथवा जो जीवादि के उपदेश का परिस्पन्द है वह आत्मा के लिए है । क्योंकि उपयोग स्वभाव होने से आत्मा ही उसको ग्रहण कर सकता है । इसलिए तत्त्वों में सर्व प्रथम जीव को स्थान दिया है । जीव का अनुग्रह करने वाला होने से जीव के अनन्तर अजीव को स्थान दिया हैं क्योंकि शरीर, वचन, मन, प्राणापनादि उपकार द्वारा अजीव, आत्मा का अनुग्रह करता है-प्रकृष्ट उपकार करता है; अत: जीव के बाद अजीव को ग्रहण किया है । जीव और पुद्गल के संबंधाधीन होने से दोनों के समीप आस्रव को ग्रहण किया है । जीव और पुद्गल के संबंधाधीन होने से दोनों के समीप आस्रव को ग्रहण किया है । क्योंकि आत्मा और पुद्गलवर्गणा रूप कर्मों का परस्पर संश्लेष (एकक्षेत्रावगाही) होने पर ही आस्रव की प्रसिद्धि होती है इसलिए जीव और अजीव के समीप आस्रव को ग्रहण किया है । आस्रपवूर्पक होने से बंध को आस्रव के बाद ग्रहण किया है । क्योंकि बंध आस्रवपूर्वक होता है, अत: आस्रव के बंध को स्थान दिया है ।।२१-२४।।
संवृत्त के बंध नहीं होता है, बंध की प्रत्यनीकता का ज्ञान कराने के लिए संवर वचन है । क्योंकि संवृत-सुरक्षित व्यक्ति के बंध नहीं होता है अत: बंध के प्रत्यनीक (विपरीतता) का ज्ञान करानेद के लिए बंध के समीप संवर वचन लिखा है । संवर होने पर निर्जरा होती है, इसलिए संवर के समीप निर्जरा का कथन है। निर्जरा संवरपूर्वक ही होती है इसलिए संवर के निकट निर्जरा को स्थान दिया है। अंत में, मोक्ष प्राप्य होने से मोक्ष का स्थान अंत में है । सर्व कर्मों के निर्जरण होने पर अन्त में मोक्ष होता है, इसलिए अन्त में मोक्ष को स्थान दिया है ।।२५-२७।।
प्रश्न-इन सात तत्त्वों में पुण्य-पाप को भी ग्रहण करना चाहिए।
उत्तर – ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि आस्रव और बंध में ही पुण्य-पाप का अन्तर्भाव हो जाता है । ==शंका – अन्य ग्रंथों में कथित पुण्य-पाप को भी तत्त्वों में ग्रहण करना चाहिए ?
समाधान – ऐसा नहीं है, पुण्य-पाप का आस्रव और बंध में अन्तर्भाव हो जाता है, क्योंकि आस्रव और बंध पुण्य-पापात्मक हैं । द्रव्यसंग्रह में देखिए-
जीवो उवओगमओ, अमुत्तिकत्ता सदेहपरिमाणो ।
भोत्ता संसारत्थो, सिद्धो सो विस्ससोड्ढगई ।।२।।
–शंभुछंद-
जो जीता है सो जीव कहा, उपयोगमयी वह होता है ।
मूर्ती विरहित कर्ता स्वदेह, परिमाण कहा औ भोक्ता है ।।
संसारी है औ सिद्ध कहा, स्वाभाविक ऊध्र्वगमनशाली।
इन नौ अधिकारों से वर्णित, है जीव द्रव्य गुणमणिमाली।।२।।
अर्थ – प्रत्येक प्राणी जीव है, उपयोगमयी है, अमूर्तिक है, कर्ता है, स्वदेह परिमाण रहने वाला है, भोक्ता है, संसारी है, सिद्ध है और स्वभाव से ऊध्र्वगमन करने वाला है । ये जीव के नव विशेष लक्षण हैं ।
अज्जीवो पुण णेओ, पुग्गल धम्मो अधम्म आयासं।
कालो पुग्गल मुत्तो, रूवादिगुणो अमुत्ति सेसादु।।१५।।
पुद्गल औ धर्म, अधर्म तथा, आकाश काल ये हैं अजीव।
इन पाँचों में पुद्गल मूर्तिक, रूपादि गुणों से युत सदीव।।
बाकी के चार अमूर्तिक हैं, स्पर्श वर्ण रस गंध रहित।
चैतन्य प्राण से शून्य अत:, ये द्रव्य अचेतन ही हैं नित।।१५।।
अर्थ — पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये अजीव द्रव्य पाँच प्रकार का है ऐसा जानो। इनमें से पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है क्योंकि वह रूप, रस, गंध और स्पर्श गुण वाला है, बाकी शेष द्रव्य अमूर्तिक हैं ।
आसव बंधणसंवर-णिज्जरमोक्खा सपुण्णपावा जे।
जीवाजीव-विसेसा, तेवि समासेण पभणामो।।२८।।
हैं जीव अजीव इन्हीं दो के, सब भेद विशेष कहे जाते।
वे आस्रव बंध तथा संवर, निर्जरा मोक्ष हैं कहलाते।।
ये सात तत्त्व हो जाते हैं, इनमें जब मिलते पुण्य पाप।
तब नौ पदार्थ होते इनको, संक्षेप विधि से कहूँ आज।।२८।।
अर्थ – जीव और अजीव के विशेष भेद रूप आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष होते हैं । ये पुण्य और पाप से सहित भी हैं । इन सबको हम संक्षेप से कहते हैं ।
भावार्थ – जीव और अजीव के ही विशेष भेद आस्रव आदि रूप हैं जो कि सात तत्त्व हैं । उनमें पुण्य-पाप मिलाने से नव पदार्थ हो जाते हैं । इस प्रकार से यहाँ मैंने विभिन्न ग्रंथों के आधार से नौ पदार्थों/तत्त्वों का विषय प्रस्तुत किया है । आप सभी इन तत्त्वों का अध्ययन-चिंतन-मनन करके क्रम परम्परा से मोक्षतत्त्व को प्राप्त करें, यही मंगल कामना है ।