सहस्रे नीलाद् द्वे नीलनामा ह्रदस्तत:। कुरुनामा च चन्द्रश्च तस्मादैरावत: परम्।।१४९।।
माल्यवान् दक्षिणो (णे) नद्यां सहस्रार्धान्तराश्च ते। पद्मह्रदसमा मानैरायता दक्षिणोत्तरम्।।१५०।।
निषधादुत्तरस्यां च नद्यां तु निषधो ह्रद:। कुरुनामा च सूर्यश्च सुलसो विद्युदेव च।।१५१।।
रत्नचित्रतटा वङ्कामूलाश्च विपुला ह्रदा:। वसन्ति तेषु नागानां कुमार्य: पद्मवेश्मसु।।१५२।।
अर्धयोजनमुद्विद्धं योजनोच्छ्रयविस्तृतम्। पद्मं गव्यूतिविपुला कर्णिका तावदुच्छ्रिता।।१५३।।
चत्वारिंशच्छतं चैव सहस्राणामुदाहृतम्। शतं पञ्चदशाग्रं च परिवारोऽम्बुजस्य स:।।१५४।।
तटद्वये ह्रदानां च प्रत्येवं दशसंख्यका:। काञ्चनाख्याचला: सन्ति ते हृदाभिमुखस्थिता:।।१५५।।
मेरुगिरिपुव्वदक्खिणपच्छिमये उत्तरम्मि पत्तेक्वं। सीदासीदोदाये पंच दहा केइ इच्छंति।।४।।
ताणं उवदेसेण य एक्केक्कदहस्स दोसु तीरेसु। पण पण कंचणसेला पत्तेक्वं होंति णियमेण।।५।।
सीता-सीतोदा नदी के बीस सरोवरों में कमलों में जिनमंदिर नील पर्वत के दक्षिण में सार्ध दो हजार अर्थात् अढ़ाई हजार (२५००) योजन जाकर नील, कुरु, चन्द्र उसके आगे ऐरावत और माल्यवान् ये पाँच द्रह सीता नदी के मध्य में हैं। ये प्रमाण में पद्मदह के समान होते हुए दक्षिण-उत्तर आयत हैं।। इनके मध्य में पाँच सौ (५००) योजन का अन्तर है।।१४९-१५०।। निषध पर्वत के उत्तरों में सीतोदा नदी के मध्य में निषध, कुरु, सूर्य, सुलस और विद्युत् नाम के पाँच द्रह हैं।।१५१।। इन विशाल द्रहों के तट रत्नों से विचित्र हैं। मूल भाग इनका वज्रमय है। उनके भीतर पद्मभवनों में नागकुमारियाँ रहती हैं।।१५२।। जल से पद्म की ऊँचाई आधा योजन है। वह एक योजन ऊँचा और उतना ही विस्तृत है। उसकी कर्णिका का विस्तार एक कोस तथा ऊँचाई भी उतनी ही है।।१५३।। उस पद्म के परिवार का प्रमाण एक लाख चालीस हजार एक सौ पन्द्रह (१४०११५) कहा गया है।।१५४।। द्रहों के दोनों तटों में से प्रत्येक तट पर दस-दस कांचन पर्वत हैं, जो उक्त द्रहों के अभिमुख स्थित हैं।।१५५।। मेरु पर्वत के पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर इनमें से प्रत्येक दिशा में सीता और सीतोदा नदियों के आश्रित पाँच द्रह हैं, ऐसा कितने ही आचार्य मानते हैं। उनके उपदेश के अनुसार प्रत्येक द्रह के दोनों किनारों पर नियम से पाँच-पाँच कांचन पर्वत स्थित हैं।।४-५।। अर्थात् इस मान्यता के अनुसार सीता-सीतोदा नदी के चारों तरफ ५-५ द्रह होने से बीस द्रह माने जाते हैं।