बहिरन्तस्तपांसि ये, कुर्वन्तो ध्यान बन्हिना। कर्मेन्धनानि संदह्य, सिद्धास्तान् नौमि तान्यपि।।१।।
अर्थ – जिन्होंने बहिरंग और अन्तरंग ऐसे बारह तपों को करते हुए ध्यानरूपी अग्नि के द्वारा कर्मरूपी ईंधन को जलाकर सिद्धपद प्राप्त कर लिया है, उन सिद्ध भगवन्तों को एवं उन बारह तपों को भी नमस्कार करता हूँ। श्री गौतम स्वामी के मुखकमल से निर्गत यति प्रतिक्रमण-पाक्षिक प्रतिक्रमण सर्वत्र दिगम्बर जैन आचार्य, मुनि, आर्यिका आदि साधु-साध्वियों द्वारा प्रत्येक चतुर्दशी या अमावस या पूर्णिमा को पढ़ा जाता है। इस प्रतिक्रमण ग्रन्थ की श्री प्रभाचंद्राचार्य कृत टीका जो कि ‘प्रतिक्रमण ग्रन्थत्रयी’ नाम से छपी है। इनमें बारह तपों में बाह्यतप के १. अनशन, २. अवमौदर्य, ३. वृत्त परिसंख्यान, ४. रसपरित्याग, ५. कायक्लेश एवं ६. विविक्त शयनासन ऐसा क्रम है तथा अन्तरंग तप के-१. प्रायश्चित्त, २. विनय, ३. वैयावृत्य, ४. स्वाध्याय ५. ध्यान और ६. व्युत्सर्ग ऐसा क्रम है। यही क्रम षट्खंडागम ग्रन्थ की पुस्तक तेरहवीं की धवला टीका में है, यही क्रम मूलाचार ग्रन्थ में श्री कुंदकुंदददेव ने लिया है। तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ में बाह्य तप में पाँचवें स्थान पर विविक्तशयनासन एवं छठे स्थान पर कायक्लेश लिया है। ऐसे ही अंतरंग तप में पाँचवें स्थान में व्युत्सर्ग एवं छठे स्थान में ध्यान को लिया है। पाक्षिक प्रतिक्रमण के टीकाकार एवं मूलाचार ग्रन्थ के टीकाकार श्री वसुनंदि सिद्धान्तचक्रवर्ती ने मूल के अनुसार ही टीका की है, क्रम नहीं बदला है। ऐसे ही तत्त्वार्थ सूत्र के टीकाकार श्री अकलंकदेव, श्री पूज्यपाद स्वामी, श्री विद्यानंद महोदय-महान आचार्य एवं श्रुतसागर सूरि आदि ने भी तत्त्वार्थ सूत्र के अनुसार ही क्रम रखा है। आश्चर्य है कि वर्तमान के कुछ विद्वान पाक्षिक प्रतिक्रमण में बहिरंग तप में कायक्लेश को छठे स्थान में एवं ध्यान को छठे स्थान में रखकर तत्त्वार्थ सूत्र के अनुसार क्रम बदल रहे हैं। यह बहुत ही खेद का विषय है। मेरा यही कहना है कि जब उन-उन ग्रन्थों के टीकाकारों ने क्रम नहीं बदले हैं तो हमें और आपको भी तपों में क्रम नहीं बदलना चाहिए। श्री गौतमस्वामी श्री उमास्वामी श्री कुन्दकुन्ददेवादि कथित कथित ६. बाह्य तप ६. बाह्य तप १. अनशन १. अनशन २. अवमौदर्य २. अवमौदर्य ३. वृत्तपरिसंख्यान ३. वृत्तपरिसंख्यान ४. रसपरित्याग ४. रसपरित्याग ५. कायक्लेश ५. विविक्तशय्यासन ६. विविक्तशय्यासन ६. कायक्लेश ६ अंतरग तप ६. अंतरग तप १. प्रायश्चित्त १. प्रायश्चित्त २. विनय २. विनय ३. वैयावृत्य ३. वैयावृत्य ४. स्वाध्याय ४. स्वाध्याय ५. ध्यान ५. व्युत्सर्ग ६. व्युत्सर्ग ६. ध्यान इन-इन आचार्यों के व उनके ग्रंथों के अनुसार ही उन-उन तपों के क्रम को पढ़ना-पढ़ाना, लिखना-लिखाना व कहना चाहिये।