दीक्षाकल्याणकं प्रापु:, तेभ्यस्ताभ्यश्च च मे नम:।।१।।
अर्थ – तीर्थंकरों ने जिन भावनाओं को-द्वादश अनुप्रेक्षाओं को भाकर अपनी आत्मा की सिद्धि के लिए दीक्षा लेने को उद्यमशील हुए-दीक्षाकल्याणक प्राप्त किया है । उन तीर्थंकर भगवन्तों को एवं उन बारह भावनाओं को मेरा नमस्कार होवे ।।१।। श्री कुन्दकुन्ददेव ने समयसार, रयणसार, दर्शनपाहुड़ आदि अनेक ग्रंथ लिखे हैं ।। चौरासी पाहुड़ ग्रंथों का भी कथन आया है किन्तु आज वर्तमान में उनके द्वारा लिखित सोलह ग्रंथ ही उपलब्ध हो रहे हैं ।। उनमें से यह ‘द्वादशानुपे्रक्षा’ नाम से एक स्वतंत्र ग्रंथ है । उनके द्वारा रचित मूलाचार ग्रंथ में भी ये ही द्वादश अनुप्रेक्षाएँ हैं यही क्रम है, फिर भी कतिपय गाथाएँ पृथक् हैं एवं इस ग्रंथ की अपेक्षा कम हैं ।। वर्तमान में प्रचलित बारह भावनाओं से इनका क्रम अलग है । ज्ञानार्णव ग्रंथ में श्री शुभचंद्राचार्य ने बारह भावना नाम से इन्हें लिया है । इनके क्रम में भी अन्तर है । पुन: श्री उमास्वामी विरचित तत्त्वार्थसूत्र में इन बारह अनुप्रेक्षाओं के क्रम में अन्तर है । मूलाचार ग्रंथ के टीकाकार श्री सिद्धान्त चक्रवर्ती वसुनंदि आचार्य ने इन अनुप्रेक्षाओं की टीका लिखते समय जो गाथा में क्रम है वही रखा है । ऐसे ही तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका के कर्ता श्री पूज्यपादस्वामी ने भी यही क्रम रखा है । इसी तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार तत्त्वार्थसार लिखने वाले श्री अमृतचंद्र सूरि ने भी यही क्रम रखा है । वर्तमान में यही क्रम प्रसिद्धि को प्राप्त है । इन आचार्यों ने अपने-अपने ग्रंथों में क्रम बदलने का प्रयास नहीं किया है । ऐसे ही आज के विद्वानों को भी इन अनुप्रेक्षाओं-भावनाओं के क्रम को नहीं बदलना चाहिए। जहाँ जो क्रम है वही रखना व पढ़ना चाहिए।