श्री कुंदकुंद आचार्य द्वारा रचित बारसणुपेक्खा नामके ग्रन्थ से यहाँ द्वादश अनुप्रेक्षाओं का वर्णन प्रस्तुत किया जा रहा है ।
मंगलाचरण और प्रतिज्ञावाक्य
णमिऊण सव्वसिद्धे झाणुत्तमखविददीहसंसारे ।
दस दस दो दो व जिणे दस दो अणुपेहणं बोच्छे ।।१।।
जिन्होंने उत्तम ध्यान के द्वारा दीर्घ संसार का नाश कर दिया है ऐसे समस्त सिद्धों तथा चौबीस तीर्थंकरों को नमस्कार कर बारह अनुप्रेक्षाओं को कहूँगा।।१।।
बारह अनुप्रेक्षाओं के नाम
अद्ध्रुवमसरणमेगत्तमण्णसंसारलोगमसुचित्तं ।
आसवसंवरणिज्जर धम्मं बोिंह च चिन्तेज्जो ।।२।।
अध्रुव, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म और बोधि इन बारह अनुप्रेक्षाओं का िंचतन करना चाहिए ।।२।।
अध्रुव अनुप्रेक्षा
वरभवणजाणवाहणसयणासणदेवमणुवरायाणं ।
मादुपिदुसजणभिच्चसंबंधिणो य पिदिवियाणिच्चा ।।३।।
उत्तम भवन, यान, वाहन, शयन, आसन, देव, मनुष्य, राजा, माता, पिता, कुटुम्बी और सेवक आदि सभी अनित्य तथा पृथक् हो जाने वाले हैं ।।३।।
सामिंग्गदियरूवं आरोग्गं जोव्वणं बलं तेजं ।
सोहग्गं लावण्णं सुरधणुमिव सस्सयं ण हवे ।।४।।
सब प्रकार की सामग्री-परिग्रह, इन्द्रियाँ, रूप, निरोगता, यौवन, बल, तेज, सौभाग्य और सौन्दर्य ये सब इन्द्रधनुष के समान शाश्वत् रहने वाले नहीं हैं अर्थात् सब नश्वर हैं ।।४।।
जलबुब्बुदसक्कधणुखणरुचिघणसोहमिव थिरं ण हवे।
अहिंमदट्ठाणाइं बलदेवप्पहुदिपज्जाया ।।५।।
अहमिन्द्र के पद और बलदेव आदि की पर्यायें जल के बबूले, इन्द्रधनुष, बिजली और मेघ की शोभा के समान स्थिर रहने वाली नहीं हैं ।।५।।
जीवणिबद्धं देहं खीरोदयमिव विणस्सदे सिग्घं ।
भोगोपभोगकारणदव्वं णिच्चं कहं होदि ।।६।।
जब दूध और पानी की तरह जीव के साथ मिला हुआ शरीर शीघ्र नष्ट हो जाता है तब भोगोपभोग का कारणभूत द्रव्य-स्त्री आदि परिकर नित्य कैसे हो सकता है ?।।६।।
परमट्ठेण दु आदा देवासुरमणुवरायविभवेिंह ।
वदिरित्तो सो अप्पा सस्सदमिदि चितए णिच्चं ।।७।।
परमार्थ से आत्मा देव, असुर और नरेन्द्रों के वैभवों से भिन्न है और वह आत्मा शाश्वत है ऐसा निरन्तर चिन्तन करना चाहिए ।।७।।
अशरणानुप्रेक्षा
मणिमंतोसहरक्खा हयगयरहओ य सयलविज्जाओ ।
जीवाणं ण हि सरणं तिसु लोए मरणसमयम्हि ।।८।।
मरण के समय तीनों लोकों में मणि, मन्त्र, औषधि, रक्षक सामग्री, हाथी, घोड़े, रथ और समस्त विद्याएँ जीवों के लिये शरण नहीं हैं अर्थात् मरण से बचाने में समर्थ नहीं हैं ।।८।।
सग्गो हवे हि दुग्गं भिच्चा देवा य पहरणं वज्जं ।
अइरावणो गइंदो इंदस्स ण विज्जदे सरणं ।।९।।
स्वर्ग ही जिसका किला है, देव सेवक हैं, वङ्का शस्त्र है और ऐरावत गजराज है उस इन्द्र का भी कोई शरण नहीं है-उसे भी मृत्यु से बचाने वाला कोई नहीं है ।।९।।
णवणिहि चउदहरयणं हयमत्तगइंदचाउरंगबलं ।
चक्केसस्स ण सरणं पेच्छंतो कद्दये कालो ।।१०।।
नौ निधियाँ, चौदह रत्न, घोड़े, मत्त हाथी और चतुरङ्गिणी सेना चक्रवर्ती के लिये शरण नहीं हैं । देखते-देखते काल उसे नष्ट कर देता है ।।१०।।
जाइजरामरणरोगभयदो रक्खेदि अप्पणो अप्पा ।
तम्हा आदा सरणं बंधोदयसत्तकम्मवदिरित्तो ।।११।।
जिस कारण आत्मा ही जन्म, जरा, मरण, रोग और भय से आत्मा की रक्षा करता है उस कारण बन्ध, उदय और सत्तारूप अवस्था को प्राप्त कर्मों से पृथक् रहने वाला आत्मा ही शरण है-आत्मा की निष्कर्म अवस्था ही उसे जन्म, जरा आदि से बचाने वाली है ।।११।।
अरुहा सिद्धाइरिया उवझाया साहु पंचपरमेट्ठी ।
ते वि हु चिट्ठदि आदे तम्हा आदा हु मे सरणं ।।१२।।
अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पाँच परमेष्ठी हैं । चूँकि ये परमेष्ठी भी आत्मा में निवास करते हैं अर्थात् आत्मा स्वयं पञ्चपरमेष्ठीरूप परिणमन करता है इसलिये आत्मा ही मेरा शरण है ।।१२।।
सम्मत्तं सण्णाणं सच्चारित्तं च सत्तवो चेव ।
चउरो चिट्ठदि आदे तम्हा आदा हु मे सरणं ।।१३।।
चूँकि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप ये चारों भी आत्मा में स्थित हैं इसलिये आत्मा ही मेरा शरण है ।।१३।।
एकत्वानुप्रेक्षा
एक्को करेदि कम्मं एक्को िंहडदि य दीहसंसारे ।
एक्को जायदि मरदि य तस्य फलं भुंजदे एक्को ।।१४।।
जीव अकेला ही कर्म करता है, अकेला ही दीर्घ संसार में भ्रमण करता है, अकेला ही जन्म लेता है, अकेला ही मरता है और अकेला ही कर्म का फल भोगता है ।।१४।।
एक्को करेदि पावं विसयणिमित्तेण तिव्वलोहेण ।
णिरयतिरियेसु जीवो तस्स फलं भुंजदे एक्को ।।१५।।
विषयों के निमित्त तीव्र लोभ से जीव अकेला ही पाप करता है और नरक तथा तिर्यञ्चगति में अकेला ही उसका फल भोगता है ।।१५।।
एक्को करेदि पुण्णं धम्मणिमित्तेण पत्तदाणेण ।
मणुवदेवेसु जीवो तस्स फलं भुंजदे एक्को ।।१६।।
धर्म के निमित्त पात्रदान के द्वारा जीव अकेला ही पुण्य करता है और मनुष्य तथा देवों में अकेला ही उसका फल भोगता है ।।१६।।
पात्र के तीन भेदों तथा अपात्र का वर्णन
उत्तमपत्तं भणियं सम्मत्तगुणेण संजुदो साहू ।
सम्मादिट्ठी सावय मज्झिमपत्तो हु विण्णेओ ।।१७।।
णिद्दिट्ठो जिणसमये अविरदसम्मो जहण्णपत्तो त्ति ।
सम्मत्तरयणरहिओ अपत्तमिदि संपरिक्खेज्जो ।।१८।।
सम्यक्त्वरूपी गुण से युक्त साधु को उत्तम पात्र कहा है, सम्यग्दृष्टि श्रावक को मध्यम पात्र जानना चाहिये, जिनागम में अविरत सम्यग्दृष्टि को जघन्य पात्र कहा गया है और जो सम्यग्दर्शनरूपी रत्न से रहित है वह अपात्र है । इस प्रकार पात्र और अपात्र की अच्छी तरह परीक्षा करनी चाहिए ।।१७-१८।।
दंसणभट्टा भट्टा दंसणभट्टस्य णत्थि णिव्वाणं ।
सिज्झंति चरियभट्टा दंसणभट्टा ण सिज्झंति ।।१९।।
जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं वे ही भ्रष्ट हैं, सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट मनुष्य का मोक्ष नहीं होता। जो चारित्र से भ्रष्ट हैं वे तो (पुन: चारित्र धारण कर लेने पर) सिद्ध हो जाते हैं परन्तु जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं वे सिद्ध नहीं हो सकते।
भावार्थ-जो मनुष्य सम्यग्दृष्टि तो है परन्तु चारित्रमोह का तीव्र उदय आ जाने के कारण चारित्र से भ्रष्ट हो गया है वह पुन: चारित्र को धारण कर मोक्ष प्राप्त कर लेता है परन्तु जो सम्यग्दर्शन से भी भ्रष्ट हो गया है उसका मोक्ष प्राप्त करना सरल नहीं है ।।१९।।
एक्कोहं णिम्ममो सुद्धो णाणदंसणलक्खणो ।
सुद्धेयत्तमुपादेयमेवं चिंतेइ संजदो ।।२०।।
मैं अकेला हूँ, ममत्व से रहित हूँ, शुद्ध हूँ तथा ज्ञान दर्शनरूप लक्षण से युक्त हूँ इसलिये शुद्ध एकत्वभाव ही उपादेय है-ग्रहण करने के योग्य है । इस प्रकार संयमी साधु को सदा विचार करते रहना चाहिए ।।२०।।
अन्यत्वानुप्रेक्षा
मादापिदरसहोदरपुत्तकलत्तादिबंधुसंदोहो ।
जीवस्स ण संबंधो णियकज्जवसेण वट्टंति ।।२१।।
माता, पिता, सगा भाई, पुत्र तथा स्त्री आदि बन्धुजनों-इष्टजनों का समूह जीव से सम्बन्ध रखने वाला नहीं है । ये सब अपने कार्य के वश जीव के साथ रहते हैं ।।२१।।
अण्णो अण्णं सोयदि मदो त्ति मम णाहगो त्ति मण्णंतो।
अप्पाणं ण हु सोयदि संसारमहण्णवे बुड्डं ।।२२।।
यह मेरा स्वामी था, यह मर गया इस प्रकार मानता हुआ अन्य जीव अन्य जीव के प्रति शोक करता है परन्तु संसाररूपी महासागर में डूबते हुए अपने आपके प्रति शोक नहीं करता।।२२।।
अण्णं इमं सरीरादिगं पि होज्ज बाहिरं दव्वं ।
णाणं दंसणमादा एवं चिन्त्तेहि अण्णत्तं ।।२३।।
यह जो शरीरादिक बाह्य द्रव्य है वह सब मुझसे अन्य है, ज्ञान दर्शन ही आत्मा है अर्थात् ज्ञान, दर्शन ही मेरे हैं, इस प्रकार अन्यत्व भावना का चिन्तन करो।।२३।।
संसारानुप्रेक्षा
पंचविहे संसारे जाइजरामरणरोगभयपउरे ।
जिणमग्गमपेच्छंतो जीवो परिभमदि चिरकालं ।।२४।।
जिन भगवान् के द्वारा प्रणीत मार्ग की प्रतीति को नहीं करता हुआ जीव चिरकाल से जन्म, जरा, मरण, रोग और भय से परिपूर्ण पाँच प्रकार के संसार में परिभ्रमण करता रहता है । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव ये पाँच परिवर्तन ही पाँच प्रकार का संसार कहलाते हैं ।।२४।।
द्रव्य परिवर्तन का स्वरूप
सव्वे वि पोग्गला खलु एगे भुत्तुज्झिया हु जीवेण ।
असयं अणंतखुत्तो पुग्गलपरियट्टसंसारे ।।२५।।
पुद्गल परिवर्तन (द्रव्य परिवर्तन) रूप संसार में इस जीव ने अकेले ही समस्त पुद्गलों को अनन्त बार भोगकर छोड़ दिया है ।।२५।।
क्षेत्र परिवर्तन का स्वरूप
सव्वम्हि लोयखेत्ते कमसो तं णत्थि जं ण उप्पण्णं ।
उग्गाहणेण बहुसो परिभमिदो खेत्तसंसारे ।।२६।।
समस्त लोकरूपी क्षेत्र में ऐसा कोई स्थान नहीं है जहाँ यह क्रम से उत्पन्न न हुआ हो। समस्त अवगाहनाओं के द्वारा इस जीव ने क्षेत्र संसार में अनेक बार परिभ्रमण किया है ।
भावार्थ-क्षेत्र परिवर्तन के स्वक्षेत्र परिवर्तन और परक्षेत्र परिवर्तन की अपेक्षा दो भेद हैं । समस्त लोकाकाश में क्रम से उत्पन्न हो लेने में जितना समय लगता है वह स्वक्षेत्र परिवर्तन है और क्रम से जघन्य अवगाहना से लेकर उत्कृष्ट अवगाहना तक धारण करने में जितना समय लगता है उतना परक्षेत्र परिवर्तन है । इस गाथा में दोनों प्रकार के क्षेत्र परिवर्तनों की चर्चा की गयी है ।।२६।।
काल परिवर्तन का स्वरूप
अवसप्पिणिउस्सप्पिणिसमयावलियासु णिरवसेसासु ।
जादो मुदो य बहुसो परिभमिदो कालसंसारे ।।२७।।
यह जीव अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल की समस्त समयावलियों में उत्पन्न हुआ है तथा मरा है । इस तरह इसने काल संसार में अनेक बार परिभ्रमण किया है ।।२७।।
भव परिवर्तन का स्वरूप
णिरयाउजहण्णादिसु जाव दु उवरिल्लया दु गेवेज्जा ।
मिच्छत्तसंसिदेण दु बहुसो वि भवट्ठिदी भमिदो ।।२८।।
मिथ्यात्व के आश्रय से इस जीव ने नरक की जघन्य आयु से लेकर उपरिम ग्रैवेयक तक की भव स्थिति को धारण कर अनेक बार भ्रमण किया है ।
भावार्थ-नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवगति में जघन्य से लेकर उत्कृष्ट आयु तक को क्रम से प्राप्त कर लेने में जितना समय लगता है उतने समय को भव परिवर्तन कहते हैं । नरकगति की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागर की है । मनुष्य और तिर्यञ्चगति की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्य की है तथा देवगति की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागर की है परन्तु मिथ्यादृष्टि जीव की उत्पत्ति देवगति में इकतीस सागर की आयु से युक्त उपरिम ग्रैवेयक तक ही होती है इसलिये देवगति में भव स्थिति की अन्तिम सीमा ग्रैवेयक तक ही बतलाई गयी है ।।२८।।
भाव परिवर्तन का स्वरूप
सव्वे पयडिट्ठिदिओ अणुभागपदेसबंधठाणाणि ।
जीवो मिच्छत्तवसा भमिदो पुण भावसंसारे ।।२९।।
इस जीव ने मिथ्यात्व के वश समस्त कर्मप्रकृतियों की सब स्थितियों, सब अनुभागबन्ध स्थानों और सब प्रदेशबन्ध स्थानों को प्राप्त कर बार-बार भाव संसार में परिभ्रमण किया है ।
भावार्थ –ज्ञानावरणादि समस्त कर्मप्रकृतियों के जघन्य स्थितिबन्ध से लेकर उत्कृष्ट स्थितिबन्ध तक के योग्य समस्त कषायाध्यवसायस्थान, समस्त अनुभागाध्यवसाय स्थान और समस्त योग स्थानों को प्राप्त कर लेना भाव संसार है । ये पाँचों परिवर्तन ही पाँच प्रकार के संसार हैं । इन संसारों में जीव का परिभ्रमण मिथ्यात्व के कारण होता है ।।२९।।
पुत्तकलत्तणिमित्तं अत्थं अज्जयदि पापबुद्धीए ।
परिहरदि दयादाणं सो जीवो भमदि संसारे ।।३०।।
जो जीव पुत्र तथा स्त्री के निमित्त पापबुद्धि से धन कमाता है और दयादान का परित्याग करता है वह संसार में भ्रमण करता है ।।३०।।
मम पुत्तं मम भज्जा मम धणधण्णो त्ति तिव्वकंखाए।
चइऊण धम्मबुिंद्ध पच्छा परिपडदि दीहसंसारे ।।३१।।
जो जीव, यह मेरा पुत्र है, यह मेरी स्त्री है, यह मेरा धनधान्य है, इस प्रकार की तीव्र आकांक्षा से धर्मबुद्धि को छोड़ता है वह पीछे दीर्घ संसार में पड़ता है ।।।३१।।
मिच्छोदयेण जीवो िंणदंतो जोण्हभासियं धम्मं ।
कुधम्मकुिंलगकुतित्थं मण्णंतो भमदि संसारे ।।३२।।
मिथ्यात्व के उदय से यह जीव जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कथित धर्म की निन्दा करता हुआ तथा कुधर्म, कुिंलङ्ग और कुतीर्थ को मानता हुआ संसार में भ्रमण करता है ।।३२।।
हंतूण जीवरािंस महुमंसं सेविऊण सुरयाणं ।
परदव्ववरकलत्तं गहिऊण य भमदि संसारे ।।३३।।
जीवराशि का घात कर, मधु, माँस और मदिरापान का सेवन कर तथा परद्रव्य और परस्त्री को ग्रहण कर यह जीव संसार में भ्रमण करता है ।।३३।।
जत्तेण कुणइ पावं विसयणिमित्तं च अहणिसं जीवो।
मोहंधयारसहिओ तेण दु परिपडदि संसारे ।।३४।।
मोहरूपी अन्धकार से सहित जीव विषयों के निमित्त यत्नपूर्वक पाप करता है और उससे संसार में पड़ता है ।।३४।।
णिच्चिदरधादुसत्तय तरुदसवियिंलदिएसु छच्चेव ।
सुरणिरयतिरियचउरो चोद्दस मणुए सदसहस्सा ।।३५।।
नित्य निगोद, इतर निगोद, पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक और वायुकायिक इन छह प्रकार के जीवों में प्रत्येक की सात-सात लाख, प्रत्येक वनस्पतिकायिक की दस लाख, विकलेन्द्रियों की छह लाख, देव, नारकी तथा पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों में प्रत्येक की चार-चार लाख और मनुष्यों की चौदह लाख इस प्रकार सब मिलाकर चौरासी लाख योनियाँ हैं, जिनमें संसारी जीव भ्रमण करता है ।।३५।।
संजोगविप्पजोगं लाहालाहं सुहं च दुक्खं च ।
संसारे भूदाणं होदि हु माणं तहावमाणं च ।।३६।।
संसार में जीवों को संयोग-वियोग, लाभ-अलाभ, सुख-दु:ख तथा मान-अपमान प्राप्त होते हैं ।।३६।।
कम्मणिमित्तं जीवो हिंडदि संसारघोरकंतारे ।
जीवस्स ण संसारो णिच्चयणयकम्मविम्मुक्को ।।३७।।
कर्मों के निमित्त से यह जीव संसाररूपी भयानक वन में भ्रमण करता है किन्तु निश्चयनय से जीव कर्मों से रहित है इसलिये उसका संसार भी नहीं है ।
भावार्थ-जीव के संसारी और मुक्त भेद व्यवहारनय से बनते हैं, निश्चयनय से नहीं बनते क्योंकि निश्चयनय से जीव और कर्म दोनों भिन्न-भिन्न द्रव्य हैं ।।३७।।
संसारमदिक्वंतो जीवोवादेयमिति विंचतेज्जो ।
संसारदुहक्वंतो जीवो सो हेयमिति वििंचतेज्जो ।।३८।।
संसार से छूटा हुआ जीव उपादेय है ऐसा विचार करना चाहिये और संसार के दु:खों से आक्रान्त जीव छोड़ने योग्य है ऐसा चिन्तन करना चाहिए ।।३८।।
लोकानुप्रेक्षा
जीवादिपयट्ठाणं समवाओ सो णिरुच्चए लोगो ।
तिविहो हवेइ लोगो अहमज्झिमउड्ढभेएण ।।३९।।
जीव आदि पदार्थों का जो समूह है वह लोक कहा जाता है । अधोलोक, मध्यलोक और ऊध्र्वलोक के भेद से लोक तीन प्रकार का होता है ।।३९।।
णिरया हवंति हेट्ठा मज्झे दीवंबुरासयो संखा ।
सग्गो तिसट्ठिभेओ एत्तो उड्ढं हवे मोक्खो ।।४०।।
नीचे नरक हैं, मध्य में असंख्यात द्वीप समुद्र हैं, ऊपर त्रेसठ भेदों से युक्त स्वर्ग हैं और इनके ऊपर मोक्ष है ।।४०।।
सौधर्म और ऐशान कल्प में इकतीस, सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्प में सात, ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर कल्प में चार, लान्तव और कापिष्ठ कल्प में दो, शुक्र और महाशुक्र कल्प में एक, शतार और सहस्रार कल्प में एक तथा आनत, प्राणत, आरण और अच्युत इन अन्त के चार कल्पों में छह इस तरह सोलह कल्पों में कुल ५२ पटल हैं । इनके आगे अधोग्रैवेयक, मध्यमग्रैवेयक और उपरिमग्रैवेयकों के त्रिक में प्रत्येक के तीन-तीन अर्थात् नौ ग्रैवेयकों के नौ, अनुदिशों का एक और अनुत्तरविमानों का एक पटल है इस तरह सब मिलाकर ऋतु आदि त्रेसठ पटल हैं ।।४१।।
असुहेण णिरयतिरियं सुहउवजोगेण दिविजणरसोक्खं ।
सुद्धेण लहइ सिंद्ध एवं लोयं विंचतिज्जो ।।४२।।
अशुभोपयोग से नरक और तिर्यञ्चगति प्राप्त होती है । शुभोपयोग से देव और मनुष्यगति का सुख मिलता है और शुद्धोपयोग से जीव मुक्ति को प्राप्त होता है-इस प्रकार लोक का विचार करना चाहिए ।।४२।।
अशुचित्वानुप्रेक्षा
अट्ठीिंह पडिबद्धं मंसविलित्तं तएण ओच्छण्णं ।
किमिसंकुलेिंह भरियमचोक्खं देहं सयाकालं ।।४३।।
यह शरीर हड्डियों से बना है, माँस से लिपटा है, चर्म से आच्छादित है, कीट-समूहों से भरा है और सदा मलिन रहता है ।।४३।।
दुग्गंधं बीभच्छं कलिमलभरिदं अचेयणं मुत्तं ।
सडणप्पडणसहावं देहं इदि चितए णिच्चं ।।४४।।
यह शरीर दुर्गन्ध से युक्त है, घृणित है, गन्दे मल से भरा हुआ है, अचेतन है, मूर्तिक है तथा सड़ना और गलना स्वभाव से सहित है, ऐसा सदा चिन्तन करना चाहिए ।।४४।।
रसरुहिरमंसमेदट्ठीमज्जसंकुलं पुत्तपूयकिमिबहुलं ।
दुग्गंधमसुचि चम्ममयमणिच्चमचेयणं पडणं ।।४५।।
यह शरीर रस, रुधिर, माँस, चर्बी, हड्डी तथा मज्जा से युक्त है, मूत्र, पीब और कीड़ों से भरा हुआ है, दुर्गन्धित है, अपवित्र है, चर्ममय है, अनित्य है, अचेतन है और पतनशील है-नश्वर है ।।४५।।
देहादो वदिरित्तो कम्मविरहिओ अणंतसुहणिलयो ।
चोक्खो हवेइ अप्पा इदि णिच्चं भावणं कुज्जा ।।४६।।
आत्मा इस शरीर से भिन्न है, कर्मरहित है, अनन्त सुखों का भण्डार है तथा श्रेष्ठ है, इस प्रकार निरन्तर भावना करनी चाहिए ।।४६।।
आस्रवानुप्रेक्षा
मिच्छत्तं अविरमणं कसायजोगा य आसवा होंति ।
पण पण चउतियभेदा सम्मं परिकित्तिदा समए ।।४७।।
मथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये आस्रव हैं । उक्त मिथ्यात्व आदि आस्रव क्रम से पाँच, पाँच, चार और तीन भेदों से युक्त हैं, आगम में इनका अच्छी तरह वर्णन किया गया है ।।४७।।
मिथ्यात्व तथा अविरति के पाँच भेद
एयंतविणयविवरियसंसयमण्णाणमिदि हवे पंच ।
अविरमणं हिंसादी पंचविहो सो हवइ णियमेण ।।४८।।
एकान्त, विनय, विपरीत, संशय और अज्ञान यह पाँच प्रकार का मिथ्यात्व है तथा िंहसा आदि के भेद से पाँच प्रकार की अविरति नियम से होती है ।।४८।।
चार कषाय और तीन योग
कोहो माणो माया लोहो वि य चउव्विहं कसायं खु ।
मण वचिकाएण पुणो जोगो तिवियप्पमिदि जाणे ।।४९।।
क्रोध, मान, माया और लोभ यह चार प्रकार की कषाय है तथा मन, वचन और काय के भेद से योग के तीन भेद हैं, यह जानना चाहिए ।।४९।।
असुहेदरभेदेण दु एक्केकं वण्णिदं हवे दुविहं ।
आहारादी सण्णा असुहमणं इदि विजाणेहि ।।५०।।
मन, वचन, काय इन तीनों योगों में से प्रत्येक योग अशुभ और शुभ के भेद से दो प्रकार का कहा गया है । आहार आदि संज्ञाओं का होना अशुभ मन है ऐसा जानो।।५०।।
कृष्णादि तीन लेश्याएँ, इन्द्रियजन्य सुखों में तीव्र लालसा, ईष्र्या तथा विषादभाव अशुभ मन है, ऐसा जिनेन्द्रदेव जानते हैं ।।५१।।
रागो दोसो मोहो हास्सादिणोकसायपरिणामो ।
थूलो वा सुहुमो वा असुहमणो त्ति य जिणा वेंति ।।५२।।
राग, द्वेष, मोह तथा हास्यादिक नोकषायरूप परिणाम चाहे स्थूल हों चाहे सूक्ष्म, अशुभ मन हैं ऐसा जिनेन्द्रदेव जानते हैं ।।५२।।
भत्तित्थिरायचोरकहाओ वयणं वियाण असुहमिदि ।
बंधणछेदणमारणकिरिया सा असुहकायेत्ति ।।५३।।
भक्तकथा, स्त्रीकथा, राजकथा तथा चोरकथा अशुभ वचन है, ऐसा जानो तथा बन्धन, छेदन और मारण रूप जो क्रिया है, वह अशुभ काय है ।।५३।।
मोत्तूण असुहभावं पुव्वुत्तं णिरवसेसदो दव्वं ।
वद समिदिसीलसंजमपरिणामं सुहमणं जाणे ।।५४।।
पहले कहे हुए अशुभ भाव तथा शुभ द्रव्य को सम्पूर्ण रूप से छोड़कर व्रत, समिति, शील और संयमरूप परिणामों का होना शुभ मन है, ऐसा जानो।।५४।।
संसारछेदकारणवयणं सुहवयणमिदि जिणुद्दिट्ठं ।
जिणदेवादिसु पूजा सुहकायं त्ति य हवे चेट्ठा ।।५५।।
जो वचन संसार का छेद करने में कारण है वह शुभ वचन है ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है तथा जिनेन्द्रदेव आदि की पूजा रूप जो चेष्टा-शरीर की प्रवृत्ति है वह शुभकाय है ।।५५।।
जम्मसमुद्दे बहुदोस बीचिये दुक्खजलचराकिण्णे ।
जीवस्स परिब्भमणं कम्मासवकारणं होदि ।।५५।।
अनेक दोषरूपी तरङ्गों से युक्त तथा दु:खरूपी जलचर जीवों से व्याप्त संसाररूपी समुद्र में जीव का जो परिभ्रमण होता है वह कर्मास्रव के कारण होता है अर्थात् कर्मास्रव के कारण ही जीव संसार समुद्र में परिभ्रमण करता है ।।५६।।
कम्मासवेण जीवो बूडदि संसारसागरे घोरे ।
जं णाणवसं किरिया मोक्खणिमित्तं परंपरया ।।५७।।
कर्मास्रव के कारण जीव संसाररूपी भयंकर समुद्र में डूब रहा है । जो क्रिया ज्ञानवश होती है वह परम्परा से मोक्ष का कारण होती है ।।५७।।
आसवहेदू जीवो जम्मसमुद्दे णिमज्जदे खिप्पं ।
आसवकिरिया तम्हा मोक्खणिमित्तं ण िंचतेज्जो ।।५८।।
आस्रव के कारण जीव संसाररूपी समुद्र में शीघ्र डूब जाता है इसलिये आस्रवरूप क्रिया मोक्ष का निमित्त नहीं है, ऐसा विचार करना चाहिए ।
भावार्थ-अशुभास्रवरूप क्रिया तो मोक्ष का कारण है ही नहीं परन्तु शुभास्रवरूप क्रिया भी मोक्ष का कारण नहीं है, ऐसा चिन्तन करना चाहिए ।।५८।।
पारंपज्जाएण दु आसवकिरियाए णत्थि णिव्वाणं ।
संसारगमणकारणमिदि णदं आसवो जाण ।।५९।।
परम्परा से भी आस्रवरूप क्रिया के द्वारा निर्वाण नहीं होता। आस्रव संसारगमन का ही कारण है इसलिये निन्दनीय है, ऐसा जानो।।५९।।
पुव्वुत्तासवभेदा णिच्छयणयएण णत्थि जीवस्स ।
उहयासवणिम्मुक्वं अप्पाणं चिंतए णिच्चं ।।६०।।
पहले जो आस्रव के भेद कहे गये हैं वे निश्चयनय से जीव के नहीं हैं इसलिये आत्मा को दोनों प्रकार के आस्रवों से रहित ही निरन्तर विचारना चाहिए ।।६०।।
चल, मलिन और अगाढ दोष को छोड़कर सम्यक्त्वरूपी दृढ़ कपाटों के द्वारा मिथ्यात्वरूपी आस्रवद्वार का निरोध हो जाता है ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है ।
भावार्थ-चल, मलिन और अगाढ ये सम्यग्दर्शन के दोष हैं । इनका अभाव हो जाने पर सम्यग्दर्शन में दृढ़ता आती है । मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये चार आस्रव हैं । यहाँ मिथ्यात्व के निमित्त से होने वाले आस्रव को द्वार की तथा सम्यग्दर्शन को सुदृढ़ कपाट की उपमा दी गयी है और उस उपमा के द्वारा कहा गया है कि सम्यग्दर्शनरूपी सुदृढ़ कपाटों से मिथ्यात्व के निमित्त से होने वाले आस्रवरूप द्वार का निरोध हो जाता है । आस्रव का रुक जाना ही संवर कहलाता है ।।६१।।
पंचमहव्वयमणसा अविरमणणिरोहणं हवे णियमा ।
कोहादि आसवाणं दाराणि कसायरहियपल्लगेहि ।।६२।।
पञ्च महाव्रतों से युक्त मन से अविरतिरूप आस्रव का निरोध नियम से हो जाता है और क्रोधादि कषायरूप आस्रवों के द्वार कषाय के अभावरूप फाटकों से रुक जाते हैं-बन्द हो जाते हैं ।।६२।।
सुहजोगस्स पवित्ती संवरणं कुणदि असुहजोगस्स ।
सुहजोगस्स णिरोहो सुद्धुवजोगेण संभवदि ।।६३।।
शुभयोग की प्रवृत्ति, अशुभयोग का संवर करती है और शुद्धोपयोग के द्वारा शुभयोग का निरोध हो जाता है ।।६३।।
सुद्धुवजोगेण पुणो धम्मं सुक्वं च होदि जीवस्स ।
तम्हा संवरहेदू झाणो त्ति वििंचतए णिच्चं ।।६४।।
शुद्धोपयोग से जीव के धर्मध्यान और शुक्लध्यान होते हैं इसलिये ध्यान संवर का कारण है ऐसा निरन्तर विचार करना चाहिए ।।६४।।
जीवस्स ण संवरणं परमट्ठणएण सुद्धभावादो ।
संवरभावविमुक्वं अप्पाणं िंचतए णिच्चं ।।६५।।
परमार्थनय-निश्चयनय से जीव के संवर नहीं है क्योंकि वह शुद्ध भाव से सहित है अतएव आत्मा को सदा संवरभाव से रहित विचारना चाहिए ।।६५।।
निर्जरानुप्रेक्षा
बंधपदेसग्गलणं णिज्जरणं इदि जिणेहि पण्णत्तं ।
जेण हवे संवरणं तेण दु णिज्जरणमिदि जाण ।।६६।।
बँधे हुए कर्मप्रदेशों का गलना निर्जरा है ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है । जिस कारण से संवर होता है उसी कारण से निर्जरा होती है ।।६६।।
सा पुण दुविहा णेया सकालपक्का तवेण कयमाणा ।
चदुगदियाणं पढमा वयजुत्ताणं हवे विदिया ।।६७।।
फिर वह निर्जरा दो प्रकार की जाननी चाहिये-एक अपना उदयकाल आने पर कर्मों का स्वयं पककर झड़ जाना और दूसरी तप के द्वारा की जाने वाली। इनमें पहली निर्जरा तो चारों गतियों के जीवों के होती है और दूसरी निर्जरा व्रती जीवों के होती है ।।६७।।
धर्मानुप्रेक्षा
एयारसदसभेयं धम्मं सम्मत्तपुव्वयं भणियं ।
सागारणगाराणं उत्तमसुहसंपजुत्तेिंह ।।६८।।
उत्तम सुख से सम्पन्न जिनेन्द्र भगवान ने कहा है कि गृहस्थों तथा मुनियों का वह धर्म क्रम से ग्यारह और दस भेदों से युक्त है तथा सम्यग्दर्शनपूर्वक होता है ।
भावार्थ-आत्मा की निर्मल परिणति को धर्म कहते हैं । वह धर्म गृहस्थ और मुनियों के भेद से दो प्रकार का होता है । गृहस्थ धर्म के दर्शन प्रतिमा आदि ग्यारह भेद हैं और मुनिधर्म के उत्तम क्षमा आदि दस भेद हैं । इन दोनों प्रकार के धर्मों के पहले सम्यग्दर्शन का होना आवश्यक है उसके बिना धर्म का प्रारम्भ नहीं होता।।६८।।
गृहस्थ के ग्यारह धर्म
दंसणवयसामाइयपोसहसच्चित्तरायभत्ते य ।
बम्हारंभपरिग्गह अणुमणमुद्दिट्ठ देसविरदेदे ।।६९।।
दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्त त्याग, रात्रिभक्तव्रत, ब्रह्मचर्य, आरम्भत्याग, परिग्रहत्याग, अनुमतित्याग और उद्दिष्टत्याग ये ग्यारह देशविरत अर्थात् गृहस्थ धर्म के भेद हैं ।।६९।।
मुनिधर्म के दस भेद
उत्तमखममद्दवज्जवसच्चसउच्चं च संजमं चेव ।
तवचागमिंकचण्हं बम्हा इदि दसविहं होदि ।।७०।।
उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम सत्य, उत्तम शौच, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिञ्चन्य और उत्तम ब्रह्मचर्य ये मुनिधर्म के दस भेद हैं ।।७०।।
यदि क्रोध की उत्पत्ति का साक्षात् बहिरङ्ग कारण हो फिर भी जो कुछ भी क्रोध नहीं करता उसके क्षमा धर्म होता है ।।७१।।
मार्दव धर्म का लक्षण
कुलरूवजादिबुद्धिसु तपसुदसीलेसु गारवं किंचि ।
जो ण वि कुव्वदि समणो मद्दवधम्मं हवे तस्स ।।७२।।
जो मुनि कुल, रूप, जाति, बुद्धि, तप, श्रुत तथा शील के विषय में कुछ भी गर्व नहीं करता, उसके मार्दव धर्म होता है ।।७२।।
आर्जव धर्म का लक्षण
मोत्तू ण कुडिलभावं णिम्मलहिदएण चरदि जो समणो ।
अज्जवधम्मं तइयो तस्स दु संभवदि णियमेण ।।७३।।
जो मुनि कुटिल भाव को छोड़कर निर्मल हृदय से आचरण करता है उसके नियम से तीसरा आर्जव धर्म होता है ।।७३।।
सत्य धर्म का लक्षण
परसंतावयकारणवयणं मोत्तूण सपरहिदवयणं ।
जो वददि भिक्खु तुरियो तस्स दु धम्मो हवे सच्चं ।।७४।।
दूसरों को संताप करने वाले वचन को छोड़कर जो भिक्षु स्वपरहितकारी वचन बोलता है उसके चौथा सत्यधर्म होता है ।।७४।।
शौच धर्म का लक्षण
कंखाभावणिवित्तिं किच्चा वेरग्गभावणाजुत्तो ।
जो वट्टदि परममुणी तस्स दु धम्मो हवे सोच्चं ।।७५।।
जो उत्कृष्ट मुनि काङ्क्षाभाव से निवृत्ति कर वैराग्यभाव से युक्त रहता है, उसके शौचधर्म होता है ।।७५।।
संयम धर्म का लक्षण
वदसमिदिपालणाए दंडच्चाएण इंदियजएण ।
परिणममाणस्स पुणो संजमधम्मो हवे णियमा ।।७६।।
मन, वचन, काय की प्रवृत्तिरूप दण्ड को त्यागकर तथा इन्द्रियों को जीतकर जो व्रत और समितियों के पालनरूप प्रवृत्ति करता है उसके नियम से संयम धर्म होता है ।।७६।।
विषय और कषाय के विनिग्रहरूप भाव को करके जो ध्यान और स्वाध्याय के द्वारा आत्मा की भावना करता है उसके नियम से तप होता है ।।७७।।
णिव्वेगतियं भावइ मोहं चइऊण सव्वदव्वेसु ।
जो तस्स हवे चागो इदि भणिदं जिणविंरदेिंह ।।७८।।
जो समस्त द्रव्यों के विषय में मोह का त्याग कर तीन प्रकार के निर्वेद की भावना करता है उसके त्याग धर्म होता है, ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है ।।७८।।
आकिञ्चन्य धर्म का लक्षण
होऊण य णिस्संगो णियभावं णिग्गहित्तु सुहदुहदं ।
णिद्दंदेण दु वट्टदि अणयारो तस्स िंकचण्हं ।।७९।।
जो मुनि नि:सङ्ग-निष्परिग्रह होकर सुख और दु:ख देने वाले अपने भावों का निग्रह करता हुआ निद्र्वन्द्व रहता है अर्थात् किसी इष्ट-अनिष्ट के विकल्प में नहीं पड़ता है उसके आकिञ्चन्य धर्म होता है ।।७९।।
ब्रह्मचर्य धर्म का लक्षण
सव्वंगं पेच्छंतो इत्थीणं तासु मुयदि दुब्भावं ।
सो बम्हचेरभावं सक्कदि खलु दुद्धरं धरिदुं ।।८०।।
जो स्त्रियों के सब अंगों को देखता हुआ उनमें खोटे भाव को छोड़ता है अर्थात् किसी प्रकार के विकार भाव को प्राप्त नहीं होता है वह निश्चय से अत्यन्त कठिन ब्रह्मचर्य धर्म को धारण करने के लिये समर्थ होता है ।।८०।।
सावयधम्मं चत्ता जदिधम्मे जो हु वट्टए जीवो ।
सो णय वज्जदि मोक्खं धम्मं इदि चिंतए णिच्चं ।।८१।।
जो जीव श्रावक धर्म को छोड़कर मुनि धर्म धारण करता है वह मोक्ष को नहीं छोड़ता है अर्थात् उसे मोक्ष की प्राप्ति अवश्य होती है इस प्रकार निरन्तर धर्म का चिन्तन करना चाहिए ।
भावार्थ-गृहस्थ धर्म परम्परा से मोक्ष का कारण है और मुनिधर्म साक्षात् मोक्ष का कारण है इसलिये यहाँ गृहस्थ के धर्म को गौण कर मुनिधर्म की प्रभुता बतलाने के लिये कहा गया है कि जो गृहस्थ धर्म को छोड़कर मुनिधर्म में प्रवृत्त होता है वह मोक्ष को नहीं छोड़ता अर्थात् उसे मोक्ष अवश्य प्राप्त होता है ।।८१।।
णिच्छयणएण जीवो सागारणगारधम्मदो भिण्णो ।
मज्झत्थभावणाए सुद्धप्पं चिंतए णिच्चं ।।८२।।
निश्चयनय से जीव गृहस्थ धर्म और मुनि धर्म से भिन्न है इसलिये दोनों धर्मों में मध्यस्थ भावना रखते हुए निरन्तर शुद्ध आत्मा का चिन्तन करना चाहिए ।
भावार्थ-मोह और लोभ से रहित आत्मा की निर्मल परिणति को धर्म कहते हैं । गृहस्थ धर्म तथा मुनि धर्म उस निर्मल परिणति के प्रकट होने में सहायक होने से धर्म कहे जाते हैं, परमार्थ से धर्म नहीं हैं इसलिये दोनों में मध्यस्थ भाव रखते हुए शुद्ध आत्मा के चिन्तन की ओर आचार्य ने यहाँ प्रेरणा दी है ।।८२।।
बोधिदुर्लभ भावना
उपज्जदि सण्णाणं जेण उवाएण तस्सुवायस्स ।
चिंता हवेइ बोहो अच्चंतं दुल्लहं होदि ।।८३।।
जिस उपाय से सम्यग्ज्ञान उत्पन्न होता है उस उपाय की चिन्ता बोधि है, यह बोधि अत्यन्त दुर्लभ है ।
भावार्थ-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को बोधि कहते हैं, इसकी दुर्लभता का विचार करना सो बोधिदुर्लभ भावना है ।।८३।।
कम्मुदयजपज्जायां हेयं खाओवसमियणाणं तु ।
सगदव्वमुवादेयं णिच्छयत्ति होदि सण्णाणं ।।८४।।
कर्मोदय से होने वाली पर्याय होने के कारण क्षायोपशमिक ज्ञान हेय है और आत्मद्रव्य उपादेय है ऐसा निश्चय होना सम्यग्ज्ञान है ।।८४।।
मूलुत्तरपयदीओ मिच्छत्तादी असंखलोगपरिमाणा ।
परदव्वं सगदव्वं अप्पा इदि णिच्छयणएण ।।८५।।
मिथ्यात्व को आदि लेकर असंख्यात लोक प्रमाण जो कर्मों की मूल तथा उत्तर प्रकृतियाँ हैं वे परद्रव्य हैं और आत्मा स्वद्रव्य है ऐसा निश्चयनय से कहा जाता है ।
भावार्थ-ज्ञायक स्वभाव से युक्त आत्मा स्वद्रव्य है और उसके साथ लगे हुए जो नोकर्म, द्रव्यकर्म तथा भावकर्म हैं वे सब परद्रव्य हैं ऐसा निश्चयनय से जानना चाहिए ।।८५।।
एवं जायदि णाणं हेयमुवादेय णिच्छये णत्थि ।
चिंतिज्जइ मुणि बोिंह संसारविरमणट्ठे य ।।८६।।
इस प्रकार स्वद्रव्य और परद्रव्य का चिन्तन करने से हेय और उपादेय का ज्ञान होता है अर्थात् परद्रव्य हेय है और स्वद्रव्य उपादेय है । निश्चयनय में हेय और उपादेय का विकल्प नहीं है । मुनि को संसार का विराम करने के लिये बोधि का विचार करना चाहिए ।।८६।।
वारस अणुवेक्खाओ पच्चक्खाणं तहेव पडिक्कमणं ।
आलोयणं समािंह तम्हा भावेज्ज अणुवेक्खं ।।८७।।
ये बारह अनुप्रेक्षाएं ही प्रत्याख्यान, प्रतिक्रमण, आलोचना और समाधि हैं इसलिये इन अनुप्रेक्षाओं की निरन्तर भावना करनी चाहिए ।।८७।।
रत्तिदिवं पडिकमणं पच्चक्खाणं समािंह सामइयं ।
आलोयणं पकुव्वदि जदि विज्जदि अप्पणो सत्ती ।।८८।।
यदि अपनी शक्ति है तो रात दिन प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, समाधि, सामायिक और आलोचना करनी चाहिए ।।८८।।
मोक्खगया जे पुरिसा अणाइकालेण वारअणुवेक्खं ।
परिभाविऊण सम्मं पणमामि पुणो पुणो तेिंस ।।८९।।
जो पुरुष अनादिकाल से बारह अनुप्रेक्षाओं का अच्छी तरह चिन्तन कर मोक्ष गये हैं मैं उन्हें बारम्बार प्रणाम करता हूँ।।८९।।
कि पलविएण बहुणा, जे सिद्धा णरवरा गये काले ।
सिज्झिहदि जेवि भविया तं जाणह तस्स माहप्पं ।।९०।।
बहुत कहने से क्या लाभ है ? भूतकाल में जो श्रेष्ठ पुरुष सिद्ध हुए हैं और जो भविष्यत् काल में सिद्ध होवेंगे उसे अनुप्रेक्षाओं का ही माहात्म्य जानो।।९०।।
इदि णिच्छयववहारं जं भणियं कुन्दकुन्दमुणिणाहे ।
जो भावइ सुद्धमणो सो पावइ परमणिव्वाणं ।।९१।।
इस प्रकार कुन्दकुन्द मुनिराज ने निश्चय और व्यवहार का आलम्बन लेकर जो कहा है शुद्ध हृदय होकर जो उसकी भावना करता है वह परम निर्वाण को प्राप्त होता है ।।९१।।