दीप अढ़ाई मेरु पण, अरु तीर्थंज्र्र बीस।
तिन सबकी पूजा करूँ, मनवचतन धरि शीस।।
ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थंकरा:! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थंकरा:! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थंकरा:! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
इन्द्र फणीन्द्र नरेन्द्र, वंद्य पद निर्मल धारी, शोभनीक संसार, सार गुण हैं अविकारी।
क्षीरोदधि सम नीरसों (हो), पूजों तृषा निवार, सीमंधर जिन आदि दे स्वामी, बीस विदेह मँझार।
श्री जिनराज हो, भव तारण तरण जहाज।।१।।
ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य: जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।१।।
(इस पूजा के बीस पुंज करना हो तो प्रत्येक द्रव्य चढ़ाते समय इस प्रकार बोलना चाहिये)
ॐ ह्रीं सीमंधर, युगमंधर, बाहु, सुबाहु, संजात, स्वयंप्रभ, ऋषभानन, अनन्तवीर्य, सूरप्रभ, विशालकीर्ति, वङ्काधर, चन्द्रानन, चंद्रबाहु, भुजंगम, ईश्वर, नेमिप्रभ, वीरसेन, महाभद्र, देवयशोऽजितवीर्येतिविंशतिविद्यमानतीर्थंकरेभ्य: जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।१।।
तीन लोक के जीव, पाप आताप सताये, तिनको साता दाता, शीतल वचन सुहाये।
बावन चंदनसों जजूँ, (हो) भ्रमन-तपन निरवान।।
सीमंधर जिन आदि दे स्वामी, बीस विदेह मँझार।
श्री जिनराज हो, भव तारण तरण जहाज।।२।।
ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य: संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।।२।।
यह संसार अपार, महासागर जिनस्वामी, तातैं तारें बड़ी, भक्ति-नौका जग नामी।
तन्दुल अमल सुगंधसों (हो) पूजों तुम गुणसार।।
सीमंधर जिन आदि दे स्वामी, बीस विदेह मँझार।
श्री जिनराज हो, भव तारण तरण जहाज।।३।।
ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य: अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।।३।।
भविक-सरोज विकाश, निंद्यतमहर रविसे हो, जति श्रावक आचार, कथन को तुम ही बड़े हो।
फूल सुवास अनेकसों (हो), पूजों मदन प्रहार।।
सीमंधर जिन आदि दे स्वामी, बीस विदेह मँझार।
श्री जिनराज हो, भव तारण तरण जहाज।।४।।
ॐ विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य: कामवाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।।४।।
काम नाग विषधाम, नाशको गरुड़ कहे हो, क्षुधा महादवज्वाल, तासको मेघ लहे हो।
नेवज बहुघृत मिष्टसों (हो), पूजों भूख विडार।।
सीमंधर जिन आदि दे स्वामी, बीस विदेह मँझार।
श्री जिनराज हो, भव तारण तरण जहाज।।५।।
ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य: क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५।।
उद्यम होन न देत, सर्व जग माँहि भर्यो है, मोह महातम घोर, नाश परकाश कर्यो है।
पूजों दीप प्रकाशसों (हो), ज्ञान ज्योति करतार।।
सीमंधर जिन आदि दे स्वामी, बीस विदेह मँझार।
श्री जिनराज हो, भव तारण तरण जहाज।।६।।
ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य: मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।।६।।
कर्म आठ सब काठ, भार विस्तार निहारा, ध्यान अगनि कर प्रकट, सरव कीनो निरवारा।
धूप अनूपम खेवतें (हो), दु:ख जलैं. निरधार।।
सीमंधर जिन आदि दे स्वामी, बीस विदेह मँझार।
श्री जिनराज हो, भव तारण तरण जहाज।।७।।
ॐ विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य:अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।।७।।
मिथ्यावादी दुष्ट, लोभऽहंकार भरे हैं, सबको छिन में जीत, जैन के मेरु खरे हैं।
फल अति उत्तमसों जजों (हो), वांछित फलदातार।।
सीमंधर जिन आदि दे स्वामी, बीस विदेह मँझार।
श्री जिनराज हो, भव तारण तरण जहाज।।८।।
ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य:मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।।८।।
जल फल आठों द्रव्य, अरघ कर प्रीतिधरी है, गणधर इंद्रनहूतैं, थुति पूरी न करी है।
द्यानत सेवक जानके (हो), जगतैं लेहु निकार।।
सीमंधर जिन आदि दे स्वामी, बीस विदेह मँझार।
श्री जिनराज हो, भव तारण तरण जहाज।।९।।
ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य: अनर्घपदप्राप्तये अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९।।
सोरठा
ज्ञानसुधाकर चंद, भविक खेतहित मेघ हो,
भ्रम-तम-भान अमंद, तीर्थंज्र्र बीसों नमो।
चौपाई (१६ मात्रा)
सीमंधर सीमंधर स्वामी, जुगमंधर जुगमंधर नामी।
बाहु बाहु जिन जग जन तारे, करम सुबाहु बाहुबल दारे।।१।।
जात सुजात सुकेवलज्ञानं, स्वयंप्रभु प्रभु स्वयं प्रधानं।
ऋषभानन ऋषिभानन दोषं, अनंतवीरज वीरजकोषं।।२।।
सौरीप्रभ सौरीगुणमालं, सुगुण विशाल विशाल दयालं।
वङ्काधार भवगिरि वज्जर हैं, चंद्रानन चंद्रानन वर हैं।।३।।
भद्रबाहु भद्रनि के करता, श्रीभुजंग भुजंगम हरता।
ईश्वर सब के ईश्वर छाजैं, नेमिप्रभु जस नेमि विराजैं।।४।।
वीरसेन वीरं जग जाने, महाभद्र महाभद्र बखाने।
नमों जसोधर जसधरकारी, नमों अजितवीरज बलधारी।।५।।
धनुष पाँचसै काय विराजै, आयु कोड़ि पूरब सब छाजै।
समवशरण शोभित जिनराजा, भव-जल तारनतरन जिहाजा।।६।।
सम्यकरत्नत्रय निधिदानी, लोकालोकप्रकाशक ज्ञानी।
शतइंद्रनि कर वंदित सोहैं, सुर नर पशु सबके मन मोहैं।।७।।
दोहा
तुमको पूजैं वंदना, करैं धन्य नर सोय।
द्यानत सरधा मन धरै, सो भी धरमी होय।।
ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य: महाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।