तं जहा—कन्नइत्तिणे पुव्वे वच्छो वह दहिणे धणाइतिगे।
पश्छिमदिसि मीणतिगे मिहुणतिगे उत्तरे हवइ।।१९।।
जब सूर्य कन्या, तुला और वृश्चिक राशि का होवे तब वत्स का मुख पूर्व दिशा में, धनु, मकर और कुम्भ राशि का सूर्य होवे तब वत्स का मुख दक्षिण दिशा में, मीन, मेष और वृष राशि का सूर्य होवे तब वत्स का मुखपश्चिम दिशा में, मिथुन, कर्क और सिंह राशि का सूर्य होवे तब वत्स का मुख उत्तर दिशा में रहता है।।१९।। जिस दिशा में वत्स का मुख होवे उस दिशा में खात प्रतिष्ठा द्वार प्रवेश आदि का कार्य करना शास्त्र में मना किया है, किन्तु वत्स प्रत्येक दिशा में तीन २ मास रहता है तो तीन २ मास तक उक्त कार्य रोकना ठीक नहीं, इसिलये विशेष स्पष्ट रूप से कहते हैं-
गिहभूमिसत्तभाए पण दह-तिहि-तीस-तिहि-दहक्खकमा।
इअ दिणसंखा चउदिसि सिरपुच्छसमंकि वच्छठिई।।२०।।
घर की भूमि का प्रत्येक दिशा में सात २ भाग समान कीजे, इनमें क्रम से प्रथम भाग में पाँच दिन, दूसरे में दश, तीसरे में पंद्रह, चोथे में तीस, पांचवें में पंद्रह, छट्ठे में दश और सातवें भाग में पाँच दिन वत्स रहता है। इसी प्रकार दिन संख्या चारों ही दिशा में समझ लेना चाहिये और जिस अंक पर वत्स का शिर हो उसी के सामने का बराबर अंक पर वत्स की पूंछ रहती है इस प्रकार वत्स की स्थिति है।।२०।। पूर्व दिशा में खात आदि का कार्य करना है उसमें यदि सूर्य कन्या राशि में हो तो प्रथम पाँच दिन तक प्रथम भाग में ही खात आदि मुहुर्त देखकर कर सकते हैं। उसके आगे दश दिन तक दूसरे भाग को छोड़कर अन्य जगह उक्त कार्य कर सकते हैं। उसके आगे का पंद्रह दिन तीसरे भाग को छोड़कर काम करें। यदि तुला राशि का सूर्य हो तो पूरे तीन दिन मध्य भाग में द्वार आदि का शुभ काम नहीं करें। वृश्चिक राशि के सूर्य का प्रथम पंद्रह दिन पाँचवां भाग को, आगे का दश दिन छट्ठा भाग को और अंतिम पाँच दिन सातवां भाग को छोड़कर अन्य जगह कार्य कर सकते हैं। इसी प्रकार चारों ही दिशा के भाग को दिन संख्या समझ लेना चाहिए।
अग्गिमओ आउहरी धणवखयं कुणइ पच्छिमो वच्छो।
वामो य दाहिणो वि य सुहावहो हवइ नायव्वो।।२१।।
सम्मुख वत्स हो तो आयुष्य का नाशकारक है, पश्चिम (पीछाड़ी) वत्स हो तो घन का क्षय करता है, बांयी ओर अथवा दाहिनी ओर वत्स हो तो सुखकारक जानना।।२१।। प्रथम खात करने के समय शेषनाग चक्र (राहुचक्र) को देखते हैं, उसको भी प्रसंगोपात लिखता हूँ, इसको विश्वकर्मा ने इस प्रकार बतलाया है-
‘‘ईशानत: सर्पति कालसर्पो,
विहाय सृष्टिं गणयेद् विदिक्षु। शेषस्य वास्तोर्मुखमध्यपुच्छं,
त्रयं परित्यज्य खनेच्च तुर्यम्।।
प्रथम ईशान कोण से शेषनाग (राहु) चलता है। सृष्टि मार्ग को छोड़कर विपरीत विदिशा में उसका मुख, मध्य (नाभि) और पूंछ रहता है अर्थात् ईशान कोण में नाग का मुख, वायव्य कोण में मध्य भाग (पेट) और नैर्ऋत्य कोण में पूंछ रहता है। इन तीनों कोण को छोड़कर चौथा अग्नि कोण जो खाली है, इसमें प्रथम खात करना चाहिए। मुख नाभि और पूंछ के स्थान पर खात करें तो हानिकारक है, दैवज्ञवल्लभ ग्रंथ में कहा है कि—
‘शिर: खनेद् मातृपितृन् निहन्यात्, खनेच्च नाभौ भयरोगपीड़ा:।
पुच्छं खनेत् स्त्रीशुभगोत्रहानि: स्पीपुत्ररत्नान्नवसूनि शून्ये।।’’
यदि प्रथम खात मस्तक पर करें तो माता—पिता का विनाश, मध्य भाग नाभि के स्थान पर करें तो राजा आदि का भय और अनेक प्रकार के रोग आदि की पीड़ा होवे। पूंछ के स्थान पर खात करें तो स्त्री, सौभाग्य और वंश (पुत्रादि) की हानि होवे खाली स्थान पर करें तो स्त्री पुत्र रत्न अन्न और द्रव्य की प्राप्ति होवे। यह शेष नाग चक्र बनाने की रीति इस प्रकार है—मकान आदि बनाने की भूमि के ऊपर बराबर समचोरस आठ आठ कोठे प्रत्येक दिशा में बनावे अर्थात् क्षेत्रफल ६४ कोठे बनावे। पीछे प्रत्येक कोठे में रविवार आदि वार लिखे। और अंतिम कोठे में आद्य कोठे का वार लिखे। इनमें इस प्रकार नाग की आकृति बनावे कि शनिवार और मंगलवार के प्रत्येक कोठे में स्पर्श करती हुई मालूम पड़े, जहाँ-जहाँ नाग की आकृति मालूल पड़े अर्थात् जहाँ जहाँ शनि मंगलवार के कोठ हों वहाँ खात आदि न करें। नाग के मुख को जानने के लिए मुहूर्त चिन्तामणि में इस प्रकार कहा है कि-
‘‘देवालये गेहविधौ जलाशये, राहोर्मुखं शंभुदिशो विलोमत:।
मीनार्वसिंहार्वमृगार्वतस्त्रिभे, खाते मुखात् पृष्ठविंदिक् शुभा भवेत्।।’’
देवालय के प्रारंभ में राहु (नाग) का मुख, मीन मेष और वृषभ राशि के सुर्य के ईशान कोण में, मिथुन कर्कâ और सिंह राशि के सूर्य में वायव्य कोण में, कन्या तुला और वृश्चिक राशि के सूर्य में नैऋत्य कोण में, धन मकर और कुम्भ राशि के सूर्य में आग्नेय दिशा में रहता है। घर के प्रारंभ में राहु (नाग) का मुख, सिंह कन्या और तुला राशि के सूर्य में ईशान कोण में, वृश्चिक धन और मकर राशि के सूर्य में वायव्य कोण में, कुंभ मीन और मेष के सूर्य में नैऋत्य कोण में, वृष मिथुन और कर्क राशि के सूर्य में अग्नि कोण में रहता है। कुआं बावड़ी तलाब आदि जलाशय के आरंभ में राहु का मुख, मकर कुम्भ और मीन के सूर्य में ईशान कोण में, मेष वृष और मिथुन के सूर्य में वायव्य कोण में कर्क सिंह और कन्या के सूर्य में नैर्ऋत्य कोण में, तुला वृश्चिक और धन के सूर्य में अग्नि कोण में रहता है। मुख में पिछले भाग में खात करना। मुख ईशान कोण में होवे तब उसका पिछला कोण अग्नि कोण में प्रथम खात करना चाहिए। यदि मुख वायव्य कोण में होवे तो खात ईशान कोण में, नैर्ऋत्य कोण में मुख होवे तो खात वायव्य कोण में और मुख अग्नि कोण में हो तो खात नैर्ऋत्य कोण में करना चाहिए। हीरकलश मुनि ने कहा है कि—
वसहाय गिणिय वेई चेइअमिणाइं गेहसिंहाइ।
जलमयर दुग्गि कन्ना कम्मेण ईसानकुणलियं।।
विहाह आदि में जो वेदी बनाई जाती है उसके प्रारंभ में वृषभ आदि, चैत्य (देवालय) के प्रारंभ में मीन आदि, गृहारंभ में सिंह आदि, जलाशय में मकर आदि और किला (गढ़) के प्रारंभ में कन्या आदि तीन तीन संक्रांतियों में राहु का मुख ईशान आदि विदिशा में विलोम क्रम से रहता है।
‘‘गेहाद्यारंभेऽर्वमभाद्वत्सशीर्षे, रामैर्दाहो वेदभिरग्रपादे।
शून्यं वेदैयं: पृष्ठपादे स्थिरत्वं, रामैं: पृष्ठे श्रीर्युगैर्दक्षकुक्षौ।।१।।
लायो रानै: पुच्छगै; स्वामिनाशो, वैदैलैसव्यं बाषकृक्षौ मुखस्यै:।
रामै: पीडा संततं चार्वघिष्ण्या-दश्वैरूदैर्दिग्भिरुत्तं ह्यसत्सत्।।२।।’’
गृह और प्रासाद आदि के आरंभ में वृषवास्तु चक्र देखना चाहिये। जिस नक्षत्र पर सूर्य हो उस नक्षत्र से चंद्रमा के नक्षत्र तक गिनती करना। प्रथम तीन नक्षत्र वृषभ के शिर पर समझना, इन नक्षत्रों में गृहादिक का आरंभ करें तो अग्नि का उपद्रव होवे। इनके आगे चार नक्षत्र वृषभ के अगले पांव पर, इनमें आरंभ करें तो मनुष्यों का वास न रहे, शून्य रहे। इनके आगे चार नक्षत्र पिछले पांव पर, इनमें आरंभ करें तो गृह स्वामी का स्थिर वास रहे। इनके आगे तीन नक्षत्र पीठ भाग पर, इनमें आरंभ करे तो लक्ष्मी की प्राप्ति होवे। इनके आगे चार नक्षत्र दक्षिण कोख (पेट ) पर, इनमें आरंभ करें तो अनेक प्रकार का लाभ और शुभ होवें। इनके आगे तीन नक्षत्र पूंछ पर, इनमें आरंभ करें तो स्वामी का विनाश होवे, इनके आगे चार नक्षत्र बांयी कोख (पेट) पर, इनमें आरंभ करें तो गृह स्वामी को दरिद्र बनावे। इनके आगे तीन नक्षत्र मुख पर, इनमें आरंभ करें तो निरन्तर कष्ट रहे। सामान्य रूप से कहा है कि-सूर्य नक्षत्र से चंद्रमा के नक्षत्र तक गिनना, इनमें प्रथम सात नक्षत्र अशुभ हैं, इनके आगे ग्यारह अर्थात् आठ से अठारह तक शुभ हैं और इनके आगे दश अर्थात् उन्नीस से अट्ठाइस तक के नक्षत्र अशुभ हैं।
धनमीणमिहुणकण्णा संवंतीए न करीए गेहं।
तुलविाच्छयमेसविसे पुव्वावर सेसे-सेस दिसे।।२२।।
धन मीन मिथुन और कन्या इन राशियों के पर सूर्य होवे तब घर का आरंभ नहीं करना चाहिए। तुला वृश्चिक मेष और वृष इन चार राशियों में से किसी भी राशि का सूर्य होवे तब पूर्व और पश्चिम दिशा में द्वारवाला घन न बनवाये, किन्तु दक्षिण या उत्तर दिशा के द्वारवाले घर का आरंभ करें। तथा बाकी की राशियों (कर्क, सिंह, मकर और कुम्भ) के पर सूर्य होवे तब दक्षिण और उत्तर दिशा के द्वार वाला घर न बनावें, किन्तु पूर्व और पश्चिम दिशा के द्वार वाले का घर का आरंभ करें।।२२।। मुहूत्र्तचिन्तामणि अ. १२ श्लो. १५ की टीका में श्रीर्पात का कथन है—
कर्किनक्तहरिकुम्भगतेर्वे, पूर्वपश्चिममुखनि गृहाणि।
तौलिमेषवृषवृश्चिकयाते, दक्षिणोत्तरमुखानि च कुर्यात्।।
अन्यथा यदि करोलि दुर्मति-व्र्याधिशोकधननाशमश्नुते।
मीनचापमियुनाङ्गनागते, कारयेसु गृहमेव भास्करे।।
कर्क, मकर, सिंह और कुंभ राशि का सूर्य होवे तब पूर्व अथवा पश्चिम दिशा के द्वार वाले घर का आरंभ करें। तुला, मेष, वृष और वृश्चिक राशि का सूर्य होवे तब दक्षिण अथवा उत्तर दिशा के द्वार वाले घर का आरंभ करें। इनसे विपरीत आरंभ करें तो तथा मीन, धनु, मिथुन और कन्या राशि का सूर्य होवे तब आरंभ करें तो व्याधि और शोक होता है और धन का नाश होता है। नारद मुनि के बारह राशियों का फल इस प्रकार कहा है—
‘‘गृहसंस्थापनं सूर्ये मेषस्थे शुभदं भवेत्।
वृषस्थे धनवृद्धि: स्याद् मिथुने मरणं ध्रुवम्।।
कर्कटे शुभदं प्रोत्तं सिंहे भृत्यविवद्र्धनम्।
कन्या रोगं सौख्यं वृश्चिके धनवद्र्धनम्।।
कार्मुके तु महाहानि-र्मकरे स्याद् धनागम:।
कुंभे तु रत्नलाभ: स्याद् मीने सद्मभयावहम्।।
घर की स्थापना यदि मेष राशि के सूर्य में करें तो शुभदायक है, वृष राशि के सूर्य में धन वृद्धि कारक है, मिथुन के सूर्य में निश्चय से मृत्यु कारक है, कर्क के सूर्य में शुभदायक कहा है, सिंह के सूर्य में सेवक-नौकरों की वृद्धि कारक, कन्या के सूर्य में रोगकारक, तुला के सूर्य में सुखकारक, वृश्चिक के सूर्य में धन वृद्धिकारक, धन के सूर्य में महा हानि कारक, मकर के सूर्य में धन की प्राप्ति कारक, कुंभ के सूर्य में रत्न का लाभ और मीन के सूर्य में भयदायक है।
सोय-धण-मिच्चु-हाणी अत्थं सुन्नं च कलह-उव्वसियं।
पूया-संपय-अग्गी सुहं च चित्ताइमासफलं।।२३।।
घर का आरंभ चैत्र मास में करें तो शोक, वैशाख में धन प्राप्ति, ज्येष्ठ में मृत्यु, आषाढ़ में हानि, श्रावण में अर्थ प्राप्ति, भाद्रपद में गृह शून्य, आश्विन में कलह, कात्र्तिक में उजाड़, मागसिर में पूजा-सम्मान, पौष में सम्पदा प्राप्ति, माघ में अग्नि भय और फाल्गुन में किया जाय तो सुखदायक है।।२३।। हीरकशल मुनि ने कहा है कि—
‘‘कत्तिय-माह-भद्दवे चित्त आसो य जिट्ठ आसाढे।
गिहआरंभ न कीरइ अवरे कल्लणमंगलं।।’’
कात्र्तिक, माघ, भाद्रपद, चैत्र, आसोज, जैठ और आषाढ़ इन सात महिनों में नवीन घर का आरंभ नहीं करें और बाकी के-मार्गशिर, पौष, फाल्गुन, वैशाख और श्रावण इन पाँच महीनों में घर का आरंभ करना मंगल-दायक है।
वइसाहे मग्गसिरे सावणि फग्गुणि मयंतरे पोसे।
सियपक्खे सुहदिवसे कए गिहे हवइ सुहरिद्धी।।२४।।
वैशाख, मार्गशिर, श्रावण, फाल्गुन और मतान्तर से पौष भी इन पाँच महीनों में शुक्ल पक्ष और अच्छे दिनों में घर का आरंभ करें तो सुख और ऋद्धि की प्राप्ति होती है।।२४।। पीयूष धारा टीका अ. १२ श्लो.१५ में जगन्मोहन का कहना है कि—
‘‘पाषाणेष्ट्यादिगेहादि निंद्यमासे न कारयेत्।
तृणा दारूगृहारंभे मासदोषो न विद्यते।।’’
पत्थर र्इंट आदि के मकान आदि को निंदनीय मास में नहीं करना चाहिए। किन्तु घास और लकड़ी आदि के माकन बनाते में मास आदि का दोष नहीं है।
सुहलग्गे चंदबले खणिज्ज नीमीउ अहोमुहे रिक्खे।
उड्ढमुह नक्खते चिणिज्ज सुहलग्गि चंदबले।।२५।।
शुभ लग्न और चंद्रमा का बल देख कर अधोमुख नक्षत्रों में खात मुहूर्त करना तथा शुभ लग्न और चंद्रमा बलवान देखकर ऊध्र्व संज्ञक नक्षत्रों में शिला का रोपण (स्थापना) करना चाहिए।।२५।। पीयूषधरा टीका अ.१२ श्लो. १९ में माण्डव्य ऋषि ने कहा है कि—
‘‘अधोमुखैर्भैर्विदधीत खातं, शिलास्तथा चोध्र्वमुखैश्च पट्टम्।
तिर्यङ्मुखैद्र्वारकपाटयानं, गृहप्रवेशो मुदृभिध्र्रु वक्र्षै:।।
अधोमुख नक्षत्रों में खात करना, उध्र्वमुख नक्षत्रों में शिला तथा पाटड़ा का स्थापन करना, तिर्यङ्मुख नक्षत्रों के द्वार, कपाट, सवारी (वाहन) बनवाना तथा मृदुसंज्ञक (मृगसिर, रेवती, चित्रा और अनुराधा) तथा ध्रुवसंज्ञक (उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपदा और रोहिणी) नक्षत्रों में घर में प्रवेश करना।
सवण-द्द-पुस्सु-रोहिणी तिउत्तरा-सय-धणिट्ठ उड्ढमुहा।
भरणिऽसलेस-तिपुव्वा-मू-म-वि-कित्ती अहोवयणा।।२६।।
श्रवण, आद्र्रा, पुष्य, रोहिणी, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपदा, शतभिषा और घनिष्ठा ये नक्षत्र ऊध्र्वमुख संज्ञक हैं। भरणी, आश्लेषा, पूर्वाफाल्गुनी पूर्वाषाढा, पूर्वाभाद्रपदा, मूल, मघा, विशाखा और कृतिका ये नक्षत्र अधोमुख संज्ञक हैं।।२६।।
‘‘अधोमुखानि पूर्वा: स्युर्मूलाश्लेषामघास्तथा।
भरणीकृत्तिकाराधा: सिद्धयै खातादिकर्मणाम्।।
तिर्यङ्मुखानि चादित्यं मैत्रं ज्येष्ठा करत्रयम्।
अश्विनी चान्द्रपौष्णानि कृषियात्रादिसिद्धये।।
ऊध्र्वास्यास्त्र्युत्तरा: पुष्यो रोहिणी श्रवणत्रयम्।
आद्र्रा च स्युध्र्वजछत्राभिषेकतरूकर्मसु।।’’
पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढा, पूर्वाभाद्रपदा, मूल, आश्लेशा, मघा, भरणी, कृतिका और विशाखा ये नव अधोमुख संज्ञक नक्षत्र खात आदि कार्य की सिद्धि के लिये हैं। पुनर्वसु, अनुराधा, ज्येष्ठा, हस्त, चित्रा, स्वाति, अश्विनी, मृगशिर और रेवती ये नव तिर्यक्मुख संज्ञक नक्षत्र ध्वजा खेती यात्रा आदि की सिद्धि के लिये हैं। छत्र राज्याभिषेक और वृक्ष रोपन आदि कार्य के लिए शुभ उत्तराफाल्गुनी उत्तराषाठा उत्तराभाद्रपदा, पूष्य, रोहिणी, श्रवण, घनिष्ठा, रातभिषा और आद्र्रा ये नव उघ्र्वमुख मंज्ञक नउण ध्वजा छत्र राज्याभिषेक और दक्ष—रोपन आदि कार्य के लिये शुभ हैं।
‘‘पुष्पध्रु वेन्दुहरिसर्पजलै: सजीवै—
स्तद्वासरेण च कृतं सुतराज्यदं स्यात्।
द्वीशाश्वितक्षिवसुपाशिशिवै: सशुव्रै—
र्वारे सितस्य च गृहं धनधान्यदं स्यात’’।।२६।।
पुष्य, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा, उत्तराभाद्रपदा, रोहिणी, मृगशिरा, श्रवण, आश्लेषा और पूर्वाषाढा इन नक्षत्रों में से कोई नक्षत्र पर गुरु होवे तब, गुरुवार के दिन का आरंभ करें तो यह घर पुत्र और राज्य देने वाला होता है। विशाखा, अश्विनी, चित्रा, धनिष्ठा, शतभिषा और आद्र्रा इन नक्षत्रों में से कोई नक्षत्र पर शुक्र होवे तब, शुक्रवार के दिन घर का आरंभ करें तो धन और धान्य की प्राप्ति होवे।
‘‘सारै: करेज्यान्त्यमघाम्बुमूलै: कौजेऽह्नि वेश्माग्नि सुतार्दितं स्यात्।
सज्ञै: कदास्रार्यमतक्षहस्तै—ज्र्ञस्यैव वारे सुखपुत्रदं स्यात्’’।।२७।।
हस्त, पुष्प, रेवती, मघा, पूर्वाषाढा और मूल इन नक्षत्रों पर मंगल होवे तब, मंगलवार के दिन का आरंभ करें तो घर अग्नि से जल जाय और पुत्र को पीड़ा कारक होता है। रोहिणी, आश्विनी, उत्तराफाल्गुनी, चित्रा और हस्त इन नक्षत्रों पर बुध होवे तब, बुधवार के दिन घर का आरंभ करे तो सुख कारक और पुत्रदायक होता है।
‘‘अजैकपादहिर्बुध्न्य-शक्रमित्रानिलान्तवै:।
समन्दैर्मन्दवारे स्याद् रक्षोभूतयुतं गृहम्’’।।२७।।
पूर्वाभाद्रपदा, उत्तराभाद्रपदा, ज्येष्ठा, अनुराधा, स्वाती और भरणी इन नक्षत्रों पर शनि होवे तब, शनिवार के दिन घर का आरंभ करें तो यह घर राक्षस और भूत आदि के निवास वाला होता है।
‘‘अग्निनक्षत्रगे सूर्ये चन्द्रेवा संस्थिते यदि।
निर्मितं मंदिरं नून-मग्निना दह्यतेऽचिरात्।।’’
कृत्तिका नक्षत्र के ऊपर सूर्य अथवा चंद्रमा होवे तब घर का आरंभ करें तो शीघ्र ही वह घर अग्नि से भस्म हो जाय।
पुव्वुत्तर नीमतले घिय अक्खय रयणपंचगं ठविउं।
सिलानिवेसं कीरइ सिप्पीण सम्माणणापुव्वं।।२७।।
पूर्व और उत्तर के मध्य ईशान कोण में नीव (खात) में प्रथम घी अक्षत (चावल) और पाँच जाति के रत्न रख करके (वास्तु पूजन करके) तथा शिल्पियों का सन्मान करके, शिला की स्थापना करनी चाहिए।।२७।। अन्य शिल्प ग्रंथों में भी प्रथम शिला की स्थापना अग्नि कोण में अथवा ईशान कोण में करने को भी कहा है।
भिगु लग्गे बुहु दसमे दिणयरू लाहे बिहप्फई किंदे।
जइ गिहनीमारंभे ता वरिससयाउयं हवइ।।२८।।
शुक्र लग्न में, बुध दशम स्थान में, सूर्य ग्यारहवें स्थान में और बृहस्पति केन्द्र (१-४-७-१० स्थान) में होवे, ऐसे लग्न में यदि नवीन घर का खात करें तो सौवर्ष का आयु उस घर का होता है।।२८।।
दसमचउत्थे गुरुससि सणिकुजलाहेअ अलच्छिवरिस असी।
इगति चउ छ मुणि कमसो गुरुसणिभिगुरविबुहम्मि सयं।।२९।।
दसवें और चौथे स्थान मे बृहस्पति और चंद्रमा होवे, तथा ग्यारहवें स्थान में शनि और मंगल होवे, ऐसे लग्न में गृह का आरंभ करें तो उस घर में लक्ष्मी अस्सी (८०) वर्ष स्थिर रहे। बृहस्पति लग्न में (प्रथम स्थान में), शनि तीसरे, शुक्र चौथे, रवि छट्ठे और बुध सातवें स्थान में होवे, ऐसे लग्न में आरंभ किये हुए घर में सौ वर्ष लक्ष्मी स्थिर रहे।।२९।।
सुक्कुदए रवितइए मंगलि छट्ठे अ पंचमे जीवे।
इअ लग्गकए शेहे दो वरिससयाउयं रिद्धी।।३०।।
शुक्र लग्न में, सूर्य तीसरे, मंगल छट्ठे और गुरु पांचवें स्थान में होवे, ऐसे लग्न में घर का आरंभ किया जाय तो दो सौ वर्ष तक यह घर समृद्धियों से पूर्ण रहे।।३०।।
सगिहत्थो ससि लग्गे गुरुविंदे बलजुओ सुविद्धिकरो।
वूरट्ठम-अइअसुहा सोमा मज्झिम गिहारंभे।।३१।।
स्वगृही चंद्रमा लग्न में होवे अर्थात् कर्क राशि का चंद्रमा लग्न में होवे और बृहस्पति केन्द्र (१-४-७-१० स्थान) में बलवान होकर रहा हो, ऐसे लग्न के समय घर का आरंभ करें तो उस घर की प्रतिदिन वृद्धि हुआ करें। गृहारंभ के समय लग्न से आठवें स्थान के व्रूर ग्रह होवे तो बहुत अशुभ कारक है और सौम्यग्रह रहा हो तो मध्यम है।।३१।।
इक्केवि गहे णिच्छइ परगेहि परंसि सत्त-बारसमे।
गिहसामिवष्णनाहे अबले परहत्थि होइ गिहं।।३२।।
यदि कोई भी एक ग्रह नीच स्थान का, शत्रु स्थान का अथवा शत्रु के नवांशक का होकर सातवें स्थान में अथवा बारहवें स्थान में रहा होवे तथा गृहपति के वर्ण का स्वामी निर्बल होवे, ऐसे समय में प्रारंभ किया हुआ घर दूसरे शत्रु के हाथ में निश्चय से चला जाता है।।३२।।
बंभण-सुक्कबिहप्फइ रविकुज-खत्तिय मयंअवइसो अ।
बुहु सुद्दु मिच्छसणितमु गिहसामियवण्णनाह इमे।।३३।।
ब्राह्मण वर्ण के स्वामी शुक्र और बृहस्पति, क्षत्रिण वर्ण के स्वामी रवि और मंगल, वेश्य वर्ण का स्वामी चंद्रमा, शूद्र वर्ण का स्वामी बुध तथा म्लेच्छ वर्ण के स्वामी शनि और राहु हैं। ये गृहस्वामी के वर्ण के स्वामी हैं।।३३।।
सयलसुहजोयलग्गे नीमारंभे य गिहपवेसे अ।
जइ अट्ठमो आ वूरो अवस्स गिहसामि मारेइ।।३४।।
खात के आरंभ के समय और नवीन गृह प्रवेश (घर में प्रवेश) करते समय लग्न में समस्त शुभ योग होने पर भी आठवें स्थान में यदि ग्रह होवे तो घर के स्वामी का अवश्य विनाश होता है।।३४।।
चित्त-अणुराह-तिउत्तर रेवइ-मिय रोहिणी अ विद्धिकरो।
मूल-द्दा-असलेसा-जिट्ठा-पुत्तं विणासेइ।।३५।।
चित्रा, अणुराधा, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा, उत्तराभाद्रपदा, रेवती, मृगशिर और रोहिणी इन नक्षत्रों में घर का आरंभ अथवा घर में प्रवेश करें तो वृद्धि कारक है। मूल, आद्र्रा, आश्लेषा और ज्येष्ठा इन नक्षत्रों में गृहारंभ अथवा गृह प्रवेश करें तो पुत्र का विनाश होवे है।।३५।।
पुव्वतिगं महभरणी गिहसामिवहं विसाहत्थीनासं।
कित्तिय अग्गि समत्ते गिहप्पवेसे अ ठिइ समए।।३६।।
यदि घर का आरंभ तथा घर में प्रवेश तीनों पूर्वा (पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढा, पूर्वाभाद्रपदा), मघा और भरणी इन नक्षत्रों में करें तो घर के स्वामी का विनाश होवे। विशाखा नक्षत्र में करें तो स्त्री का विनाश होवे और कृत्तिका नक्षत्र में करें तो अग्नि का भय होवे।।३६।।
तिहिरित्त वारकुजरवि चरलग्ग विरुद्धजोअ दिणचंदं।
वज्जिज्ज गिहपवेसे सेसा तिहि-वार-लग्ग-सुहा।।३७।।
रिक्ता तिथि, मंगल और रविवार, चर लग्न (मेष कर्क और मकर लग्न), कंटकादि, विरुद्ध योग, क्षिण चंद्रमा अथवा नीच का अथवा व्रूरग्रह युक्ता चंद्रमा ये सब घर में प्रवेश करने में अथवा प्रारंभ में छोड़ देने चाहिए। इनसे दूसरे बाकी के तिथि वार लग्न शुभ हैं।।३७।।
किंदुदुअडंतकूरा असुहा तिछगारहा सुहा भणिया।
किंदुतिकोणतिलाहे सुहया सोमा समा सेसे।।३८।।
यदि व्रूरग्रह केन्द्र (१-४-७-१०) स्थान में, तथा दूसरे आठवें अथवा बारहवें स्थान में हो तो अशुभ फलदायक हैं, किन्तु तीसरे छट्ठे अथवा ग्यारहवें स्थान में होवे तो शुभ फल दायक हैं। शुभग्रह केन्द्र (१-४-७-१०) स्थान में, त्रिकोण (नवम-पंचम) स्थान में, तीसरे और ग्यारहवें में होवे तो शुभ कारक हैं, किन्तु बाकि के स्थान में होवे तो समान फलदायक हैं।।३८।। ग्रह प्रवेश और गृहारंभ में शुभाशुभग्रह यंत्र—
गिहरिक्खं चउगुणिअं नवभत्तं लद्धु भुत्तरासीओ।
गिहरासि सामिरासी सडठ्ठ दु दुवालसं असुहं।।५९।।
घर के नक्षत्र को चार से गुणा करके नौ से भाग दो, जो लब्धि आवे यह घर की भुक्तराशि समझना चाहिये। यह घर की भुक्त राशि और घर के स्वामी की राशि परस्पर छट्ठी और आठवीं हो अथवा दूसरी और बारहवीं हो तो अशुभ है।।५९।।
‘‘अश्विन्यादित्रयं मेषे सिंहे प्रोत्तं मघात्रयम्।
मूलादित्रितयं चापे शेषभेषु द्वयं द्वयम्।।’’
अश्विनी आदि तीन नक्षत्र मेषराशि के मघा आदि तीन नक्षत्र सिंह राशि के और मूल आदि तीन नक्षत्र धनराशि के हैं। अन्य नौ राशियों के दो दो नक्षत्र हैं। वास्तुशास्त्र में नक्षत्र के चरण भेद से राशि नहीं मानी है। विशेष नीचे के गृहराशि यंत्र में देखो। गृह राशि यंत्र—
यथा— अग्गे अलिंदतियगं इक्किक्वं वामदाहिणोवरयं।
थंभजुअं च दुसालं तस्स य नामं हवइ सूरं।।९७।।
जिस द्विशाल घर के आगे तीन अलिन्द होवे तथा बांयी और दाहिनी तरफ एक एक शाला स्तंभयुक्त होवे तो यह ‘सूर्य’ नाम का घर कहा जाता है।।९७।।
वयणो य चउ अलिंदा उभयदिसे इक्कु इक्कु ओवरओ।
नामेण वासवं तं जुगअंतं जाव वसइ धुवं।।९८।।
जिस दिलाल घर के आगे चार अलिंद होवे तथा बांयी ओर दाहिनी तरफ एक एक शाला होवे तो यह ‘वासव’ नाम का घर कहा जाता है। इस में रहने वाले युगान्त तक स्थिर रहते हैं।।९८।।
मुहि ति अलिंद दुपच्छइ दाहिणवामे अ हवइ इक्किक्वं।
तं गिहनामं वीयं हियच्छियं चउसु वन्नाणं।।९९।।
जिस द्विशाल घर के आगे तीन अलिन्द, पीछेकी तरफ दो, अलिंद, तथा दाहिनी और बांयी तरफ एक एक अलिंद होवे तो उस घर का नाम ‘वीर्य’ कहा जाता है। यह चारों वर्णों का हितचिन्तक है।।९९।।
दो पच्छइ दो पुरओ अलिंद तक दाहिणे हवइ इक्को।
कालक्खं तं गेहं अकालिदंडं कुणाइ नूणं।।१००।।
जिस द्विशाल घर के आगे और पीछे दो दो अलिंद तथा दाहिनी ओर एक अलिंद होवे तो यह‘काल’ नाम का घर कहा जाता है। यह निश्चय से अकालदंड (दुर्भिक्षता) करता है।।१००।।
अलिंद तिन्नि वयणे जुअलं जुअलं च वामदाहिणए।
एगं पिट्ठि दिसाए बुद्धी संबुद्धिड्ढणयं।।१०१।।
जिस द्विशाल घर के आगे तीन अलिंद तथा बांयी ओर दक्षिण तरफ दो दो अलिंद और पीछे की तरफ एक अलिंद होवे ऐसे घर को ‘बुद्धि’ नाम का घर कहा जाता है। यह सद्बुद्धि को बढ़ाने वाला है।।१०१।।
दु अलिंद चउदिसेहिं सुववयनामं च सव्वसिद्धिकरं।
पुरओ तिन्नि अलिंदा तिदिसि दुगं तं च पासायं।।१०२।।
जिस द्विशाल घर के चारों ओर दो दो अलिंद होवे तो यह ‘सुव्रत’ नाम का घर कहा जाता है, यह सब तरह से सिद्धिकारक है। सिज द्विशाल घर के आगे तीन आलिंद और तीनों दिशाओं में दो दो अलिंद हो तो यह ‘प्रासाद’ नाम का घर कहा जाता है।।१०२।।
चउरि अलिंदा पुरओ पिट्ठि तिगं तं गिर्ह दुवेहक्खं।
इह सूराई गेहा अट्ठ वि नियनामसरिसफला।।१०३।।
जिस द्विशाल घर के आगे चार अलिंद और पीछे की तरफ तीन अलिंद होवे उसको ‘द्विवेध’ नाम का घर कहा जाता है। ये सूर्य आदि आठ घर कहे हैं वे उनके नाम सदृश फलशयक है।।१०३।।
विमलाइ सुंदराई हंसाइ अलंकियाइ पभवाई।
पम्मोय सिरिभवाई चूडामणि कलसमाई य।।१०४।।
एमाइआसु सव्वे सोलस सोलस हवंति गिहतत्तो।
इक्किक्काओ चउ चउ दिसिभेअ-अलिंदभेएहिं।।१०५।।
तिअलोयसुंदराई चउसट्ठि गिहाइहुंति रायाणो।
ते पुण अवट्ठ संपइ मिच्छा ण च रज्जभावेण।।१०६।।
विमलादि, सुंदराहि, हंसादि, अलंकृतादि, प्रभवादि, प्रमोदादि, सिरिभवादि चूड़ामणि और कलश आदि ये सब सूर्यादि घर के एक से चार चार दिशाओं के और अलिंद के भेदों से सोलह सोलह भेद होते हैं। त्रैलोक्यसुंदर आदि चौसठ घर राजाओं के लिए हैं। इस समय गोल घर बनाने का रिवाज नहीं है, किन्तु राज्यभाव से मना नहीं है अर्थात् राजा लोग गोल मकान भी बना सकते हैं।।१०४ से १०६।।
पुव्वे सीहदुवारं अग्गीइ रसोइ दाहिणे सयणं।
नेरइ नीहारठिई भोयणठिइ पच्छिमे भणियं।।१०७।।
वायव्वे सव्वाउह कोसुत्तर धम्मठाणु ईसाणे।
पुव्वाई विणिद्देसो मूलग्गिहदारविक्खाए।।१०८।।
मकान की पूर्व दिशा में सिंह द्वार बनाना चाहिये, अग्निकोण में रसोई बनाने का स्थान, दक्षिण में शयन (निद्रा) करने का स्थान, नैऋत्य कोण में निहार (पाखाने) का स्थान, पश्चिम में भोजन करने का स्थान, वायव्य कोण में सब प्रकार के आयुध का स्थान, उत्तर में धन का स्थान, और ईशान में धर्म का स्थान बनाना चाहिये। इन सब का घर के मूलद्वार की अपेक्षा से पूर्वादिक दिशा का विभाग करना चाहिए अर्थात् जिस दिशा में घर का मुख्य का द्वार होवे उसी ही दिशा को पूर्व दिशा मान कर उपरोक्त विभाग करना चाहिए।।१०७ से १०८।।
पुव्वाइ विजयबारं जमबारं दाहिणाइ नायव्वं।
अवरेण मयरबारं कुबेरबारं उईचीए।।१०९।।
नामसमं फलमेसिं बारं न कयावि दाहिणे कुज्जा।
जइ होइ कारणेणं ताउ चउदिसि अट्ठ भाग कायव्वा।।११०।।
सुहबारु अंसमज्झे चउसुं पि दिसासु अट्ठभागासु।
चउ तिय दुन्निछ पण तिय पण तिय पुव्वाइ सुकम्मेण।।१११।।
पूर्व दिशा के द्वार को विजय द्वार, दक्षिण दिशा के द्वार को यमद्वार, पश्चिम द्वार को मगर द्वार और उत्तर के द्वार को कुबेर द्वार कहते हैं। ये सब द्वार अपने नाम के अनुसार फल देने वाले हैं। इसलिये दक्षिण दिशा में कभी भी द्वार नहीं बनाना चाहिये। कारणवश दक्षिण में द्वार बनाना ही पड़े तो मध्य भाग में नहीं बना कर नीचे बतलाये हुए भाग के अनुसार बनाना सुखदायक होता है। जैसे मकान बनाये जानेवाली भूमि की चारों दिशाओं में आठ आठ भाग बनाना चाहिए। पीछे पूर्व दिशा के आठों भागों में से चौथे या तीसरे भाग में, दक्षिण दिशा के आठों भागों में से दूसरे या छट्ठे भाग में, पश्चिम दिशा के आठों भागों में से तीसरे या पाँचवें भाग में तथा उत्तर दिशा के आठों भागों में से तीसरे या पाँचवें भाग में द्वार बनाना अच्छा होता है।।१०९ से १११।।
बाराउ गिहपवेसं सोवाण करिज्ज सिट्ठिमग्गेणं।
पयठाणं सुरमुहं जलवुंभ रसोइ आसन्नं।।११२।।
द्वार से घर में जाने के लिये सृष्टिमार्ग से अर्थात् दाहिनी और से प्रवेश होवे उसी प्रकार सीढ़ियाँ बनवाना चाहिए………।।११२।। समरांगण में शुभाशुभ गृहप्रवेश इस प्रकार कहा है कि—
‘‘उत्सङ्गो हीनबाहुश्च पूर्णबाहुस्तथापर:।
प्रत्यक्षायश्चतुर्थश्च निवेश: परिकीत्र्तित:।।’’
गृहद्वार में प्रवेश करने के लिए प्रथम ‘उत्संगे’ प्रवेश, दूसरा ‘हीनबाहु’ अर्थात् ‘सव्य’ प्रवेश, तीसरा पूर्णबाहु अर्थात् ‘अपसव्य’ प्रवेश और चौथा ‘प्रत्यक्ष’ अर्थात् ‘पृष्ठभंग’ प्रवेश ये चार प्रकार के प्रवेश माने हैं। इनका शुभाशुभ फल क्रमश: अब कहते हैं।
‘‘उत्संग एकदिक्काभ्यां द्वाराभ्यां वास्तुवेश्मनो:।
स सौभाग्यप्रजावृद्धि-धनधान्याजयप्रद:।।’’
वास्तुद्वार अर्थात् मुख्य घर का द्वार और प्रवेश द्वार एक ही दिशा में होवे अर्थात् घर के सम्मुख प्रवेश होवे उसको ‘उत्संग’ प्रवेश कहते हैं। ऐसा प्रवेश द्वारा सौभाग्य कारक, संतान वृद्धि कारक, धनधान्य देने वाला और विजय करने वाला है।
‘‘यत्र प्रवेशतो वास्तु-गृहं भवति वामत:।
तद्धीनबाहुवं वास्तु निन्दितं वास्तुचिन्तवै:।।
तस्मिन् वसन्नल्पवित्त: स्वल्पमित्रोऽल्पबांधव:।
स्त्रीजितश्च भवेन्नित्यं विविधव्याधिपीडित:।।’’
यदि मुख्य घर का द्वार प्रवेश करते समय बायीं और होवे अर्थात् प्रथम प्रवेश् करने के बाद बांयी ओर जाकर मुख्य घर में प्रवेश होवे उसको ‘हीनबाहु’ प्रवेश कहते हैं। ऐस प्रवेश को वास्तुशास्त्र जानने वाले विद्वानों ने निन्दित माना है। ऐसे प्रवेश वाले घर में रहने वाला मनुष्य अलप धनवाला तथा थोड़े मित्र बंधव वाला और स्त्रीजित होता है तथा अनेक प्रकार की व्याधियों से पीड़ित होता है।
‘वास्तुप्रवेशतो यत् तु गृहं दक्षिणतो भवेत्।
प्रदक्षिणप्रवीशत्वात् तद् विद्यात् पूर्णबाहुकम्।।
तत्र पुत्रांश्च पौत्रांश्च धनधान्यसुखानि च।
प्राप्तुवन्ति नरा नित्यं वसन्तो वास्तुनिध्रुवम्।।
यदि मुख्य घर का द्वार प्रवेश करते समय दाहिनी ओर होवे अर्थात् प्रथम प्रवेश करने के बाद दाहिनी ओर जाकर मुख्य घर में प्रवेश होवे तो उसका ‘पूर्णबाहु’ प्रवेश कहते हैं। ऐसे प्रवेश वाले घर में रहने वाला मनुष्य पुत्र, पौत्र, धन, धान्य और सुख को निरंतर प्राप्त करता है।
‘‘गृहपृष्ठं समाश्रित्य वास्तुद्वारं यदा भवेत्।
प्रत्यक्षायस्त्वसौ निन्द्यो वामावत्र्तप्रवेशवत्।।’’
यदि मुख्य घर की दीवार घूमकर मुख घर के द्वार में प्रवेश होता हो तो ‘प्रत्यक्ष’ अर्थात् ‘पृष्ठ भंग’ प्रवेश कहा जाता है। ऐसे प्रवेशवाला घर हीनबाहु प्रवेश की तरह निंदनीय है। घर और दुकान कैसे बनाना चाहिये—
सगडमुहा वरगेहा कायव्वा तहध हट्ट वग्धमुहा।
बाराउ गिहकमुच्चा हट्टच्चा पुरउ मज्झ समा।।११३।।
गाड़ी के अग्र भाग के समान घर होवे तो अच्छा है, जैसे गाड़ी के आगे का हिस्सा सकड़ा और पीछे चौड़ा होता है, उसी प्रकार घर द्वार के आगे का भाग सकड़ा और पीछे चौड़ा बनाना चाहिए। तथा दुकान के आगे का भाग सिंह के मुख जैसे चौड़ा बनाना अच्छा है। घर के द्वार भाग के पीछे का भाग ऊँचा होना अच्छा है। तथा दुकान के आगे का भाग ऊँचा और मध्य में समान होना अच्छा है।११३।। द्वार के उदय (ऊँचाई) और विस्तार (चौड़ाई) का मान राजवल्लभ अ.पृ. श्लो.१५ में इस प्रकार है-
सष्ट्या वाथ शताद्र्धसप्ततियुतै-व्र्यासस्य हस्ताङ्गुलै-
द्र्वारस्योदयको भवेच्च भवने मध्य; कनिष्ठोत्तमौ।
दैध्र्याद्र्धेन च विस्तर; शशिकला-भागोधिक:
शस्यते, दैघ्र्यात् त्र्यंशविहीनमद्र्धरहितं मध्यं कनिष्ठं क्रमात्।।’’
घर की चौड़ाई जितने हाथ की होवे उतने ही अंगुल मानकर उसमें साठ अंगुल और मिला देना चाहिये। ये कुल मिलकर जितने अंगुल होवे उतनी ही द्वार की ऊँचाई बनाना चाहिए, यह ऊँचाई मध्यम नाप की है। यदि उसी संख्या में पचास अंगुल मिला दिये जांये और उतने द्वार की ऊँचाई होवे तो वह कनिष्ठ मान की ऊँचाई जानना चाहिये। यदि उसी संख्या में सत्तर अंगुल मिला देने से जो संख्या होती है उतनी दरवाजे की ऊँचाई होवे तो वह ज्येष्ठ मान का उदय जानना चाहिये। दरवाजे की ऊँचाई जितने अंगुल की होवे उसके आधे भाग में ऊँचाई के सोलहवें भाग की संख्या को मिला देने से जो कुल नाप होती है, उनती ही दरवाजे की चौड़ाई की जाय तो वह श्रेष्ठ है। दरवाजे की कुल ऊँचाई के तीन भाग बराबर करके उसमें से एक भाग अलग कर देना चाहिये। बाकी के दो भाग जितनी दरवाजे की चौड़ाई की जाय तो वह मध्यम द्वार कहा जाता है। यदि दरवाजे की ऊँचाई के आधे भाग जितनी चौड़ाई की जाय तो वह कनिष्ठ मानवाला द्वार जानना चाहिये।
‘‘गृहोत्सेधेन वा त्र्यंशहीनेन स्यात् समुच्छ्रि ति:।
तदद्र्धेन तु विस्तारो द्वारस्येत्यपरो विधि:।।
घर की ऊँचाई के तीन भाग करना उसमें से एक भाग अलग करके बाकी दो भाग जितनी द्वारा की ऊँचाई करना चाहिये। और ऊँचाई से आधे द्वार का विस्तार करना चाहिए। यह द्वार के उदय और विस्तार का दूसरा प्रकार है।
पुव्वुच्चं अत्थहरं दाहिण उच्चघरं धणसमिद्धं।
अवरच्चं विद्धिकरं उव्वसियं उत्तराउच्चं।।११४।।
पूर्व दिशा में घर ऊँचा होवे तो लक्ष्मी का नाश, दक्षिण दिशा में घर ऊँचा होवे तो धन समृद्धियों से पूर्ण, पश्चिम दिशा में घर ऊँचा होवे तो धन धान्यादि की वृद्धि करने वाला और उत्तर तरफ घर ऊँचा होवे तो उजाड़ (बस्ती रहित) होता है।।११४।। घर का आरंभ प्रथम कहां से करना चाहिए यह बतलाते हैं—
मूलाओं आरंभो कीरइ पच्छा कमे कमे कुज्जा।
सव्वं गणिय, विसुद्धं वेहो सव्वत्थ वज्जिज्जा।।११५।।
सब प्रकार के भूमि आदि के दोषों को शुद्ध करके जो मुख्य शाला (घर) है, वहाँ से प्रथम का आरंभ करना चाहिये। पश्चात् क्रम से दूसरी दूसरी जगह कार्य शुरू करना चाहिए। किसी जगह आय व्यय आदि के क्षेत्रफल में दोष नहीं आना चाहिए, एवं वेध तो सर्वथा छोड़ना ही चाहिये।।११५।।
तलवेह-कोणवेहं तालुयवेहं कवालवेहं च।
तह थंभ-तुलावेहं दुवारवेहं च सत्तमयं।।११६।।
तलवेध, कोणवेध, तालुवेध, कपालवेध, स्तंभवेध, तुलावेध और द्वारवेध, ये सात प्रकार के वेध हैं।।११६।।
समविसमभूमि वुंभिअ जलपुरं परगिहस्स तलवेहो।
वूणसमं जइ वूणं न हवइ ता वूणवेहो अ।।११७।।
घर की भूमि कहीं सम कहीं विषय होवे द्वार के सामने कुंभी (तेल निकालने की धानी, पानी की अरहट अथवा ईख पीसने का कोल्हू) होवे कूए या दूसरे के घर का रास्ता होवे तो ‘तलवेध’ जानना चाहिए। तथा घर के कोने बराबर न होवे तो ‘कोणवेध’ समझना।।११७।।
इक्कखणे नीचुच्चं पीढं तं मुणह तालुयावेहं।
बारस्सुवरिमपट्टे गब्भे पीढं च सिरवेहं।।११८।।
एक ही खंड में पीढे नीचे ऊंचे होवे तो उसको ‘तालुवेध’ समझना चाहिए। द्वार के ऊपर की पटरी पर गर्भ (मध्य) भाग में पीढा आवे तो ‘शिरवेध’ जानना चाहिये।।११८।।
गेहस्स मज्झि भाए थंभेगं तं मुणेह उरसल्लं।
अह अनलो विनलाइं हविज्ज जा थंभवेहो सो।।११९।।
घर के मध्य भाग में एक होवे अथवा अग्नि अथवा जल का स्थान होवे तो यह हृदय शल्य अर्थात् स्तंभवेध जानना चाहिए।।११९।।
हिट्ठिम उवरि खणाणं हीणहियपीढ तं तुलावेहं।
पीढा समसंखाओ हवंति जइ तत्थ नहु दोसो।।१२०।।
घर के नीचे अथवा ऊपर के खंड में पीढे न्यूनाधिक होवे तो ‘तुलावेध’ होता है। परन्तु पीढे की संख्या समान होवे तो दोष नहीं है।।१२०।।
दूम-कूव थंभ-कोणय-किलाविद्धे दुवारवेहो य।
गेहुच्चबिउणभूमी तं न विरुद्धं बुहा बिंति।।१२१।।
जिस घर के द्वार के सामने अथवा बीच के वृक्ष, आ, खंभा, कोना अथवा कीला (खूंटा) होवे तो ‘द्वारवेध’ होता है। किन्तु घर की ऊँचाई से द्विगुनी (दूनी) भूमि छोड़ने के बाद उपरोक्त कोई वेध होवे तो विरूद्ध नहीं अर्थात् वेधों का दोष नहीं है, ऐसा पंडित लोग कहते हैं।।१२१।। वेध का परिहार आचारदिनकर में कहा है कि—
‘‘उच्छ्रायभूमिं द्विगुणां त्यक्वा चैत्यं चतुर्गुणाम्।
वेधादिदोषो नैवं स्याद् एवं त्वष्ट्टमतं यथा।।’’
घर की ऊँचाई से दुगुनी और मंदिर की ऊँचाई से चार गुनी भूमि को छोड़ कर कोई वेध आदि का दोष होवे तो य दोष नहीं माना जाता है, ऐसा विश्वकर्मा का मत है।
तलवेहि कुट्ठरोओ हवंति उच्चेय कोणवेहम्मि।
तालुअवेहेण भयं कुलक्खयं थंभवेहेण।।१२२।।
कावालु तुलावेहे धणनासो हवइ रोरभावो अ।
इअ वेहफलं नाउं सुद्धं गेहं करेअव्वं।।१२३।।
तलवेध से कुष्ठरोग, कोनवेध से उच्चाटन, तालुवेध से भय, स्तंभवेध से कुल का क्षय, कपाल (शिर) वेध और तुलावेध से धन का विनाश और क्लेश होता है। इस प्रकार वेध के फल को जानकर शुद्ध घर बनाना चाहिए।।१२२-१२३।।
‘‘रथ्याविद्धं द्वारं नाशाय कुमारदोषद तरुणा।
पंकद्वारे शोको व्ययोऽम्बुनि:स्राविणि प्रोक्त:।।
वूपेनापस्मारो भवति विनाशश्च देवताविद्धे।
स्तंभेन स्त्रीदोषा: कुलनाशो ब्रह्मणाभिमुखे।।’’
दूसरे के घर का रास्ता अपने द्वार से जाता होवे ऐसे रास्ते का वेध विनाश कारक होता है। वृक्ष का वेध होवे तो बालकों के लिए दोषकारक है। कादे वा कीचड़ का हमेशा वेध रहता होवे तो शोककारक है। पानी निकलने के नाले का वेध होवे तो घन का विनाश होता है। वूए का वेध होवे तो अपस्मार का रोग (वायु विकार) होता है। महादेव सूर्य आदि देवों का वेध होवे तो गृहस्वामी का विनाश करने वाला है। स्तंभ का वेध होते तो स्त्री का दोष रूप है और ब्रह्मा के सामने द्वार होवे तो कुल का नाश करने वाला है।
इगवेहेण य कलहो कमेण हाणिं च जत्थ दो हुंति।
तिहु भूआणनिवासो चउहिं खओ पंचहिं मारा।।१२४।।
एक वेध से कलह, दो वेध से क्रमश: हानि, तीन वेध होवे तो घर में भूतों का वास, चार वेध होवे तो घर का क्षय और पाँच वेध होवे तो महामारी का रोग होता है।।१२४।। वसुनंदिकृत प्रतिष्ठासार में इक्यासी पद का वास्तुपूजन इस प्रकार बतलाया है कि—
‘‘विधाय मसृणं क्षेत्रं वास्तुपूजां विधापयेत्।।
रेखाभिस्तिर्यगूध्र्वाभि र्वङ्काागा्रभि: सुमण्डलम्।
चूर्णेन पंचवर्णेन सैकाशांतिपदं लिखेत्।।
तेष्वष्टदलपद्मानि लिखित्वा मध्यकोष्टके।
अनादिसिद्धमंत्रेण पूजयेत् परमेष्ठिन:।।
तद्बहि:स्थाष्टकोष्टेषु जयाद्या देवता यजेत्।
तत: षोडशपत्रेषु विद्यादेवीश्च संजयेत्।
चतुा\वशतिकोष्ठेषु यजेच्छासनदेवता:।
द्वात्तिंशत्कोष्ठपद्मेषु देवेन्द्रान् क्रमशो यजेत्।।
स्वमंत्रोच्चारणं कृत्वा गंधपुष्पाक्षतं वरं।
दीपधूपफलार्घाणि दत्वा सम्यक् समर्चयेत्।।
लोकपालांश्च यक्षांश्च समभ्यच्र्य यथाविधि:।
जिनबिम्बाभिषेवं च तथाष्टविधमच्र्चनम्।
प्रथम भूमि को पवित्र करके पीछे वास्तुपूजा करना चाहिऐ। अग्रभाग में व्रजाकृतिवाली तिरछी और खड़ी दश दश रेखाएँ खींचना चाहिए। उसके ऊपर पंचइक्यासी पद वाला अच्छा मंडल बनाना चाहिए। मध्य के नव कोठे में आठ पांखड़ीवला कमल बनाना चाहिए। कमल के मध्य में परमेष्ठी अरिहंतदेव को नमस्कार मंत्र पूर्वक स्थापित करके पूजन करना चाहिए। कमल की पांखड़ियों में जया देवियों की पूजा करना अर्थात् कमल के कोने वाली चार पांखड़ियों में जया, विजया, जयंता और अपराजिता इन चार देवियों को स्थापित करके चार दिशावाली पांखड़ियों में सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु को स्थापन कर पूजन करना चाहिए। कमल के ऊपर के सोलह कोठे में सोलह विद्या देवियों को, इनके ऊपर चौबीस कोठे में शासन देवता को और इनके ऊपर बत्तीस कोठे में ‘इंद्रों को क्रमश: स्थापित करना चाहिए। तदनन्तर अपने अपने देवों के मंत्राक्षर पूर्वक गंध, पुष्प, अक्षत, दीप, धूप, फल और नैवेद्य आदि चढ़ा कर पूजन करना चाहिये। दश दिग्पाल और चौबीस यक्षों की भी यथाविधि पूजा करना चाहिए। जिनबिंब के ऊपर अभिषेक और अष्टप्रकारी पूजा करना चाहिए।
फलियतरु कुसुमवल्ली सरस्सई नवनिहाणजुअलच्छी।
कलसं वद्धावणयं सुमिणावलियाइ-सुहचित्तं।।१३९।।
फलवाले वृक्ष, पुष्पों की लता, सरस्वतीदेवी, नवनिधानयुक्त लक्ष्मीदेवी कलश, स्वस्तिकादि मांगलिक चिन्ह और अच्छे-अच्छे स्वप्नों की पंक्ति ऐसे चित्र बनाना बहुत अच्छा है।।१३९।।
देवगुरु-वण्हि-गोधण-संमुह चरणो न कीरए सयणं।
उत्तरसिरं न कुज्जा न नग्गदेहा न अल्लपया।।१५५।।
देव, गुरु, अग्नि, गौ और धन इनके सामने पैर रख कर, उत्तर में मस्तक रख कर, नंगे होकर और गीले पैर कभी शयन नहीं करना चाहिए।।१५५।।
धुतामच्चासन्ने परवत्थुदले चउप्पहे न गिहं।
गिहदेवलपुव्विल्लं मूलदुवारं न चालिज्जा।।१५६।।
धूत्र्त और मंत्री के समीप, दूसरे की वास्तु की हुई भूमि में और चौक में घर नहीं बनाना चाहिये। विवेकविलास में कहा है कि—
‘‘दु:खं देवकुलासन्ने गृहे हानिश्चतुष्पो।
धूत्र्तामात्यगृहान्याशे स्यग्तां सुतधनक्षयो।।
घर देवमंदिर के पास होवे तो दु:ख, चौक में होवे तो हानि, धूत्र्त और मंत्री के घर के पास होवे तो पुत्र और धन का विनाश होता है। घर अथवा देवमंदिर का जीर्णोद्धार कराने की आवश्यकता होवे तब इनके मुख्य द्वार को चलायमान नहीं करना चाहिये। अर्थात् प्रथम का मुख्य द्वार जिस दिशा में जिस स्थान पर जिस माप का होवे, उसी प्रकार उसी दिशा में उस स्थान पर उसी माप का रखना चाहिये।।१५६।।
गो-वसह सगडठाणं दाहिणए वामए तुरंगाण।
गिहबाहिर भूमीए संलग्गा सलए ठाणं।।१५७।।
गौ, बैल और गाड़ी इनको रखने का स्थान दक्षिण ओर, तथा घोड़े का स्थान बांयीं ओर घर के बाहर भूमि में बनवायी हुई शाला में रखना चाहिए।।१५७।।
गेहाउ वामदाहिण-अग्गिम भूमी गहिज्ज जइ कज्जं।
पच्छा कहवि न लिज्जइ इअ भणियं पुव्वनाणीहिं।।१५८।।
इति श्रीपरमजेनचद्राङ्गज-ठक्कुर ‘पेरुे’ विरचिते गृहवास्तु सारे गृहलक्षणनाम प्रथमप्रकरणम्। यदि कोई कार्य विशेष से अधिक भूमि लेना पड़े तो घर के बायीं अथवा दक्षिण तरफ की और आगे की भूमि लेना चाहिए। किन्तु घर के पीछे की भूमि कभी भी नहीं लेना चाहिए, ऐसा पूर्व के ज्ञानी प्राचीन आचार्यों ने कहा है।।१५८।।