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पूजायें
जैन तीर्थ
अयोध्या
श्री ऋषिमण्डल पूजा भाषा
July 22, 2020
पूजायें
jambudweep
श्री ऋषिमण्डल पूजा भाषा
स्थापना-दोहा
चौबिस जिनपद प्रथम नमि, दुतिय सुगणधर पाय।
त्रितिय पंच परमेष्ठि को, चौथे शारद माय।।
मन वच तन ये चरन युग, करहुँ सदा परनाम।
ऋषि मण्डल पूजा रचों, बुधि बल द्यो अभिराम।।
अडिल्ल छंद
चौबिस जिन वसु वर्ग पंच गुरु जे कहे।
रत्नत्रय चव देव चार अवधी लहे।।
अष्ट ऋद्धि चव दोय सूर ह्रीं तीन जू।
अरहंत दश दिग्पाल यंत्र में लीन जू।।
दोहा
यह सब ऋषिमण्डल विषै, देवी देव अपार।
तिष्ठ तिष्ठ रक्षा करो, पूजूँ वसु विधि सार।।
ॐ ह्रीं वृषभादिचौबीसतीर्थंकर, अष्ट वर्ग, अर्हंंतादि पंचपद, दर्शनज्ञानचारित्र- रूपरत्नत्रय, चतुर्निकाय देव, चार प्रकार अवधि धारक श्रमण, अष्ट ऋद्धि, चौबीस सूर, तीन ह्रीं अर्हंत बिम्ब, दश दिग्पाल, यन्त्रसम्बन्धी परमदेव समूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं वृषभादिचौबीसतीर्थंकर, अष्ट वर्ग,अर्हंंतादि पंचपद, दर्शनज्ञानचारित्र- रूपरत्नत्रय, चतुर्निकाय देव, चार प्रकार अवधि धारक श्रमण, अष्ट ऋद्धि, चौबीस सूर, तीन ह्रीं अर्हंत बिम्ब, दश दिग्पाल, यन्त्रसम्बन्धी परमदेव समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं वृषभादिचौबीसतीर्थंकर, अष्ट वर्ग, अर्हंंतादि पंचपद, दर्शनज्ञानचारित्र- रूपरत्नत्रय, चतुर्निकाय देव, चार प्रकार अवधि धारक श्रमण, अष्ट ऋद्धि, चौबीस सूर, तीन ह्रीं अर्हंत बिम्ब, दश दिग्पाल, यन्त्रसम्बन्धी परमदेव समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
(इति स्थापना)
गीता छंद
क्षीर उदधि समान निर्मल तथ मुनि चित सारसो।
भर भृंग मणिमय नीर सुन्दर तृषा तुरित निवारसो।।
जहाँ सुभग ऋषिमण्डल विराजैं पूजि मन वच तन सदा।
तिस मनोवांछित मिलत सब सुख स्वप्न में दु:ख नहिं कदा।।
ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव-विनाशन-समर्थाय यंत्र-सम्बन्धि-परमदेवाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।१।।
(नोट-प्रत्येक द्रव्य चढ़ाते हुए स्थापना के मंत्र को भी पूरा पढ़ा जा सकता है। हमने यहाँ केवल संक्षिप्त मंत्र देकर लिखा है।)
मलय चंदन लाय सुंदर गंध सों अलि झंकरै।
सो लेहु भविजन कुंभ भरिके तप्त दाह सबै हरै।।
जहाँ सुभग ऋषिमण्डल विराजैं पूजि मन वच तन सदा।
तिस मनोवांछित मिलत सब सुख स्वप्न में दु:ख नहिं कदा।।
ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव-विनाशन-समर्थाय यंत्र-सम्बन्धि-परमदेवाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।।२।।
इन्दु किरण समान सुन्दर जोति मुक्ता की हरैं।
हाटक रकेबी धारि भविजन अखय पद प्राप्ती करैं।।
जहाँ सुभग ऋषिमण्डल विराजैं पूजि मन वच तन सदा।
तिस मनोवांछित मिलत सब सुख स्वप्न में दु:ख नहिं कदा।।
ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव-विनाशन-समर्थाय यंत्र-सम्बन्धि-परमदेवाय अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।।३।।
पाटल गुलाब जुही चमेली मालती बेला घने।
जिस सुरभितें कलहंस नाचत फूल गुँथि माला बने।।
जहाँ सुभग ऋषिमण्डल विराजैं पूजि मन वच तन सदा।
तिस मनोवांछित मिलत सब सुख स्वप्न में दु:ख नहिं कदा।।
ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव-विनाशन-समर्थाय यंत्र-सम्बन्धि-परमदेवाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।।४।।
अर्ध चन्द्र समान फेनी मोदकादिक ले घने।
घृत पक्व मिश्रित रस सु पूरे लख क्षुधा डायनि हने।।
जहाँ सुभग ऋषिमण्डल विराजैं पूजि मन वच तन सदा।
तिस मनोवांछित मिलत सब सुख स्वप्न में दु:ख नहिं कदा।।
ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव-विनाशन-समर्थाय यंत्र-सम्बन्धि-परमदेवाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५।।
मणि दीप ज्योति जगाय सुन्दर वा कपूर अनूपकं।
हाटक सुथाली मांहि धरिके वारि जिनपद भूपवकं।।
जहाँ सुभग ऋषिमण्डल विराजैं पूजि मन वच तन सदा।
तिस मनोवांछित मिलत सब सुख स्वप्न में दु:ख नहिं कदा।।
ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव-विनाशन-समर्थाय यंत्र-सम्बन्धि-परमदेवाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।।६।।
चंदन सु कृष्णागरु कपूर मंगाय अग्नि जराइये।
सो धूप धूम्र अकाश लागी मनहुँ कर्म उड़ाइये।।
जहाँ सुभग ऋषिमण्डल विराजैं पूजि मन वच तन सदा।
तिस मनोवांछित मिलत सब सुख स्वप्न में दु:ख नहिं कदा।।
ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव-विनाशन-समर्थाय यंत्र-सम्बन्धि-परमदेवाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।।७।।
दाडिम सु श्रीफल आम्र कमरख और केला लाइये।
मोक्षफल के पायवे की आश धरि करि आइये।।
जहाँ सुभग ऋषिमण्डल विराजैं पूजि मन वच तन सदा।
तिस मनोवांछित मिलत सब सुख स्वप्न में दु:ख नहिं कदा।।
ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव-विनाशन-समर्थाय यंत्र-सम्बन्धि-परमदेवाय फलं निर्वपामीति स्वाहा।।८।।
जल फलादिक द्रव्य लेकर अर्घ सुन्दर कर लिया।
संसार रोग निवार भगवन् वारि तुम पद में दिया।।
जहाँ सुभग ऋषिमण्डल विराजैं पूजि मन वच तन सदा।
तिस मनोवांछित मिलत सब सुख स्वप्न में दु:ख नहिं कदा।।
ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव-विनाशन-समर्थाय यंत्र-सम्बन्धि-परमदेवाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।।९।।
अर्घावली
अडिल्ल छंद
वृषभ जिनेश्वर आदि अंत महावीर जी।
ये चौबिस जिनराज हनों भवपीर जी।।
ऋषिमण्डल बिच ह्रीं विषैं राजै सदा।
पूजूँ अर्घ बनाय होय नहिं दु:ख कदा।।
ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव-विनाशन-समर्थाय वृषभादि-चतुावशतितीर्थंकर- परमदेवाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
आदि कवर्ग सु अन्तजानि शाषासहा।
ये वसुवर्ग महान यंत्र में शुभ कहा।।
जल शुभ गंधादिक वर द्रव्य मँगाय के।
पूजहूँ दोऊ करजोर शीश निज नायके।।
ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव-विनाशन-समर्थाय कवर्गादि शाषासहा हम्ल्व्र्यूं परमयंत्रेभ्य: अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
कामिनी मोहनी छंद
परम उत्कृष्ट परमेष्ठी पद पाँच को।
नमत् शत इंद्र खगवृन्द पद साँच को।।
तिमिर अघनाश करण को तुम अर्क हो।
अर्घ लेय पूज्य पद देत बुद्धि तर्क हो।।
ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव-विनाशन-समर्थाय पंचपरमेष्ठी परमदेवाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
सुन्दरी छंद
सुभग सम्यग्दर्शन ज्ञान जू, कह चारित्र सु धारक मान जू।
अर्घ सुन्दर द्रव्य सु आठ ले, चरण पूजहुँ साज सु ठाठले।।
ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव-विनाशन-समर्थाय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-रूपरत्नत्रयाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
गीता छंद
भवनवासी देव व्यंतर ज्योतिषी कल्पेन्द्र जू।
जिनगृह जिनेश्वर देव राजै रत्नके प्रतिबिम्ब जू।।
तोरण ध्वजा घंटा विराजै चंवर ढरत नवीन जू।
वर अर्घ ले तिन चरण पूजों हर्ष हिय अति लीन जू।।
ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव-विनाशन-समर्थेभ्य: भवनेन्द्र व्यंतरेन्द्र ज्योतिषीन्द्र कल्पेन्द्र चतु:प्रकार देवगृहेषु श्रीजिनचैत्यालयेभ्य: अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा
अवधि चार प्रकार मुनि, धारत जे ऋषिराय।
अर्घ लेय तिन चर्ण जजि, विघन सघन मिटजाय।।
ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव-विनाशन-समर्थेभ्य: चतु:प्रकारअवधिधारकमुनिभ्य: अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
भुजंगप्रयात
कही आठ रिद्धि धरे जे मुनीशं।
महा कार्यकारी बखानी गनीशं।।
जल गंध आदि दे जजों चर्न नेरे।
लहों सुख सबेरे हरो दु:ख फेरे।।
ॐ ह्रीं सर्वोपद्रवविनाशन-समर्थेभ्य: अष्टऋद्धिसहिताय मुनिभ्य: अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
सखी छंद
श्री देवी प्रथम बखानी, इन आदिक चौबीसों मानी।
तत्पर जिन भक्ति विषै हैं, पूजत सब रोग नशैं हैं।।
ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव-विनाशन-समर्थेभ्य: श्री आदि चतुर्विंशतिदेविभ्य: अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
हंसा छंद
यंत्र विषै वरन्यो तिरकोन, ह्रीं तहँ तीन युक्त सुखभोन।
जल फलादि वसु द्रव्य मिलाय, अर्घ सहित पूजूँ शिरनाय।।
ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव-विनाशन-समर्थेभ्य: त्रिकोणमध्ये तीन ह्रीं संयुक्ताय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
तोमर छंद
दस आठ दोष निरवारि, छियालीस महागुण धारि।
वसु द्रव्य अनूप मिलाय, तिन चर्न जजों सुखदाय।।
ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव-विनाशन-समर्थेभ्य: अष्टादशदोष-रहिताय छियालीस-महागुणयुक्ताय अरहंत-परमेष्ठिने अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
सोरठा
दस दिश दस दिग्पाल, दिशा नाम सो नामवर।
तिनगृह श्रीजित आल, पूजों मैं वन्दौं सदा।।
ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव-विनाशन-समर्थेभ्य: दशदिग्पालेभ्य: जिनभक्ति- युक्तेभ्य: अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा
ऋषिमण्डल शुभयंत्र के, देवी देव चितारि।
अर्घ सहित पूजहूँ चरन, दु:ख दारिद्र निवारि।।
ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव-विनाशन-समर्थेभ्य: ऋषिमण्डल-सम्बन्धिदेवीदेवेभ्य: अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला
दोहा
चौबीसों जिन चरण नमि, गणधर नाऊँ भाल।
शारद पद पंकज नमूँ, गाऊँ शुभ जयमाल।।
जय आदीश्वर जिन आदिदेव, शत इंद्र जजैं मैं करहुँ सेव।
जय अजित जिनेश्वर जे अजीत, जे जीत भये भव ते अतीत।।
जय सम्भव जिन भव कूप मांहि, डूबत राखहूँ तुम शर्ण आंहि।
जय अभिनंदन आनंद देत, ज्यों कमलोें पर रवि करत हेत।।
जय सुमति सुमति दाता जिनन्द, जै कुमति तिमिर नाशन दिनन्द।
जय पद्मालंकृत पद्मदेव, दिन रयन करहुँ तव चरन सेव।।
जय श्री सुपार्श्र्व भवपाश नाश, भवि जीवन कूँ दियो मुक्तिवास।
जय चंद्र जिनेश दया निधान, गुण सागर नागर सुख प्रमान।।
जय पुष्पदंत जिनवर जगीश, शत इंद्र नमत नित आत्मशीश।
जय शीतल वच शीतल जिनंद, भवताप नशावत जगत चंद।।
जय जय श्रेयांस जिन अति उदार, भवि कंठ माँहि मुक्ता सुहार।
जय वासुपूज्य वासव खगेश, तुम स्तुति करि नमि हैं हमेश।।
जय विमल जिनेश्वर विमलदेव, मल रहित विराजत करहुँ सेव।
जय जिन अनंत के गुण अनंत, कथनी कथ गणधर लहे न अंत।।
जय धर्म धुरंधर धर्मधीर, जय धर्म चक्र शुचि ल्याय वीर।
जय शांति जिनेश्वर शांतभाव, भव वन भटकत शुभ मग लखाव।।
जय कुंथु कुंथवा जीव पाल, सेवक पर रक्षा करि कृपाल।
जय अरहनाथ अरि कर्म शैल, तपवङ्का खंड लहि मुक्ति गैल।।
जय मल्लि जिनेश्वर कर्म आठ, मल डारे पायो मुक्ति ठाठ।
जय मुनिसुव्रत सुव्रत धरंत, तुम सुव्रत व्रत पालन महंत।।
जय नम्मि नमत सुर वृन्द पाय, पद पंकज निरखत शीश नाय।
जय नेमि जिनेन्द्र दयानिधान, फैलायो जग में तत्त्वज्ञान।।
जय पारस जिन आलस निवारि, उपसर्ग रुद्र कृत जीत धारि।
जय महावीर महा धीरधार, भवकूप थकी जग तैं निकार।।
जय वर्ग आठ सुन्दर अपार, तिन भेद लखत बुध करत सार।
जय परम पूज्य परमेष्ठि सार, सुमरत बरसे आनंद धार।।
जय दर्शन ज्ञान चरित्र तीन, ये रत्न महा उज्ज्वल प्रवीन।
जय चार प्रकार सुदेव सार, तिनके गृह जिन मंदिर अपार।।
वे पूजें वसुविधि द्रव्य ल्याय, मैं इत जजि तुम पद शीश नाय।
जो मुनिवर धारत अवधि चारि, तिन पूजैं भवि भवसिन्धु पार।।
जो आठ ऋद्धि मुनिवर धरंत, ते मौपे करुणा करि महन्त।
चौबीस देवि जिन भक्ति लीन, वंदन ताको सु परोक्ष कीन।।
जे ह्रीं तीन त्रैकोण मांहि, तिन नमत सदा आनंद पांहि।
जय जय जय श्रीअरहंत बिम्ब, तिन पद पूजूँ मैं खोई डिंब।।
जो दस दिग्पाल कहे महान्, जे दिशा नाम सो नाम जान।
जे तिनके गृह जिनराज धाम, जे रत्नमई प्रतिमाभिराम।।
ध्वज तोरण घंटा युक्तसार, मोतिन माला लटके अपार।
जे ता मधि वेदी हैं अनूप, तहाँ राजत हैं जिन राज भूप।।
जय मुद्रा शांति विराजमान, जा लखि वैराग्य बढ़े महान्।
जे देवी देव सु आय आय, पूजें तिन पद मन वचन काय।।
जल मिष्ट सु उज्ज्वल पय समान, चंदन मलियागिरि को महान्।
जे अक्षत अनियारे सुलाय, जे पुष्पन की माला बनाय।।
चरु मधुर विविध ताजी अपार, दीपक मणिमय उद्योतकार।
जे धूप सु कृष्णागरु सुखेय, फल विविध भाँति के मिष्ट लेय।।
वर अर्घ अनूपम करत देव, जिनराज चरण आगे चढ़ेव।
फिर मुखतें स्तुति करते उचार, हो करुणानिधि संसार तार।।
मैं दु:ख सहे संसार ईश, तुमतैं छानी नांही जगीश।
जे इह विध मौखिक स्तुति उचार, तिन नशत शीघ्र संसार भार।।
इह विधि जो जन पूजन कराय, ऋषिमंडल यंत्र सु चित्त लाय।
जे ऋषि मण्डल पूजन करंत, ते रोग शोक संकट हरंत।।
जे राजा रण कुल वृद्धि जान, जल दुर्ग सुजग केहरि बखान।
जे विपत घोर अरु कहि मसान, भय दूर करै यह सकल जान।।
जे राजभ्रष्ट ते राज पाय, पद भ्रष्ट थकी पद शुद्ध थाय।
धन अर्थी धन पावै महान्, या में संशय कछु नाहिं जान।।
भार्या अर्थी भार्या लहन्त, सुत अर्थी सुत पावे तुरंत।
जे रूपा सोना ताम्र पत्र, लिख तापर यंत्र महा पवित्र।।
ता पूजै भागे सकल रोग, जे वात पित्त ज्वर नाशि शोग।
तिन गृह तैं भूत पिशाच जान, ते भाग जांहि संशय न आन।।
जे ऋषिमंडल पूजा करंत, ते सुख पावत कहिं लहै न अंत।
जब ऐसी मैं मन मांहि जान, तब भाव सहित पूजा सुठान।।
वसुविधि के सुन्दर द्रव्य ल्याय, जिनराज चरण आग चढ़ाय।।
फिर करत आरती शुद्ध भाव, जिनराज सभी लख हर्ष आव।
तुम देवन के हो देव देव, इक अरज चित्त में धारि लेव।।
हे दीन दयाल दया कराव, जो मैं दुखिया इह जग भ्रमाय।
जे इस भववन मैं बास लीन, जे काल अनादि गमाय दीन।।
मैं भ्रमत चतुर्गति विपिन मांहि, दुख सहे सुक्ख को लेश नांहि।
ये कर्म महारिपु जोर कीन, जे मनमाने ते दु:ख दीन।।
ये काहुू का नहि डर धराय, इनतैं भयभीत भयो अघाय।
यह एक जन्म की बात जान, मैं कह न सकत हूँ देवमान।।
जब तुम अंनत परजाय जान, दरशायो संसृति पथ विधान।
उपकारी तुम बिन और नांहि, दीखत मोकों इस जगत मांहि।।
तुम सब लायक ज्ञायक जिनंद, रत्नत्रय सम्पति द्यो अमंद।
यह अरज करूँ मैं श्री जिनेश, भव भव सेवा तुम पद हमेश।।
भव भव में श्रावक कुल महान्, भव भव में प्रकटित तत्त्वज्ञान।
भव भव में व्रत हो अनागार, तिस पालन तैं हों भवाब्धि पार।।
ये योग सदा मुझको लहान, हे दीनबंधु करुणा-निधान।
‘‘दौलत आसेरी’’ मित्र दोय, तुम शरण गही हरषित सुहोय।।
घत्ता
जो पूजै ध्यावै, भक्ति बढ़ावै, ऋषिमंडल शुभ यंत्र तनी।
या भव सुख पावै सुजस लहावै परभव स्वर्ग सुलक्ष धनी।।
ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव-विनाशन-समर्थाय रोग-शोक-सर्व-संकट- हराय सर्व-शांतिपुष्टिकराय, श्री वृषभादि चौबीस तीर्थंकर, अष्ट वर्ग अरहंतादि पंच-पद, दर्शनज्ञानचारित्र, चतुर्णिकाय देव, चार प्रकार अवधिधारक श्रमण, अष्ट ऋद्धि संयुक्त ऋषि, बीस चार सूर, तीन ह्रीं, अर्हंतबिम्ब, दशदिग्पाल यंत्र संबंधि परमदेवाय जयमाला-पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा।
आशीर्वाद
ऋषिमंडल शुभ यंत्र को, जो पूजे मन लाय।
ऋद्धि सिद्धि ता घर बसै, विघन सघन मिट जाय।।
विघन सघन मिट जाय, सदा सुख सो नर पावै।
ऋषिमंडल शुभ यंत्र तनी, जो पूज रचावै।।
भाव भक्ति युत होय, सदा जो प्राणी ध्यावै।
या भव में सुख भोग, स्वर्ग की सम्पत्ति पावै।।
या पूजा परभाव मिटे, भव भ्रमण निरन्तर।
यातैं निश्चय मानि करो, नित भाव भक्तिधर।।
।।इत्याशीर्वाद:। पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।
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