बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा
एक आध्यात्मिक प्रवचन
(ज्ञानमती की अमृतवाणी)
(पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी ने ९ जनवरी २००५ को एशिया के प्रथम पंक्ति के विश्वविद्यालयों में से मुख्य विश्वप्रसिद्ध बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के मालवीय भवन में विश्वविद्यालय परिवार एवं जैन समाज के सैकड़ों प्रबुद्धजनों को आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी रचित समयसार एवं जैनधर्म के मूलभूत सिद्धान्तों का जो अध्यात्म-पीयूष पिलाया, वह सभी के मन-मस्तिष्क पर अमिट छाप छोड़ गया।
पूज्य माताजी के मुखारविंद से प्रवाहित होती हुई धर्मामृत की अविरल धारा अपने आप में अत्यन्त अनुपम थी एवं सभी के ऊपर उसका विलक्षण प्रभाव दृष्टव्य हुआ । मालवीय भवन में रविवासरीय गीता प्रवचन के अंतर्गत पूज्य माताजी ने समयसार की दृष्टि से अत्यन्त मार्मिक आध्यात्मिक प्रवचन प्रस्तुत किया ।
भव्यात्माओं! हमारी और आपकी आत्मा सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी है परन्तु कर्मरूपी रज से आच्छादित होने के कारण यह सब कुछ जानने में समर्थ नहीं हो पा रही है। जिस प्रकार बादलों से ढ़ककर सूर्य का अस्तित्व धूमिल हो जाता है, उसी प्रकार कर्मरूपी बादल आत्मा के सर्वज्ञ स्वरूप को धूमिल कर देते हैं। सारी उपासना का एकमात्र सार यही है कि हम अपने उस सर्वज्ञ-सर्वदर्शी स्वरूप को उपलब्ध कर लें।
जिन महान आत्माओं ने अपने समस्त कर्ममल को विनष्ट कर दिया, वे ही चिच्चैतन्यमयी सिद्ध-आत्मा के रूप में सदैव के लिए सिद्धशिला पर जाकर विराजमान हो गये। हम जैसे समस्त संसारी प्राणियों का भी एकमात्र वही शाश्वत लक्ष्य होना चाहिए। सभी महान आचार्यों ने जो ‘सारों में भी सार’ बताया है, वह है ध्यान अर्थात् योग अर्थात् समाधि क्योंकि ध्यान के बल पर ही हम अपने ज्ञान को परिपूर्ण केवलज्ञान बना सकते हैं।
समयसार में आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है कि आत्मा एक है, शाश्वत है एवं ज्ञान-दर्शन लक्षण वाला है। ज्ञान-दर्शन जिसमें घटित होता है वही जीव कहलाता है और जिसमें घटित नहीं होता है, उसे अजीव कहते हैं। समय का अर्थ है आत्मा और आत्मा का सार है-पूर्ण ज्ञान की अवस्था। देह अर्थात् शरीर को अपना मानना अथवा ‘शरीर ही मैं हूँ’ ऐसा मानना अथवा शरीर के जन्म और मरण के साथ अपना जन्म और मरण मानना, यही संसार के मूल कारण हैं।
अर्थात् शरीर को आत्मा मान लेना ही सांसारिक परिभ्रमण का आधारभूत कारण है, जिसे बहिरात्मपने की संज्ञा भी दी जाती है। यदि हम अपनी आत्म शक्ति को अनुभव कर लें तो बाह्य संसार की कोई भी शक्ति हमें प्रभावित नहीं कर सकती। साधुगण शरीर से मोह छोड़ने के लिए कठोर साधना करते हैं ताकि वे चैतन्य धातु से निर्मित अशरीरी बन जावें। जीव अर्थात् आत्मा में वर्ण, गंध, रस, रूप, संस्थान, संहनन इत्यादि कुछ भी नहीं है, वास्तव में ये सभी पुद्गल शरीर के ही गुण विशेष हैं।
आत्मा शक्तिरूप में सदाशिव है एवं कर्ममल से अस्पृष्ट होने पर इसका यह स्वरूप प्रकट हो जाता है। संसार में मोह एवं अज्ञान ही सबसे बड़ा अंधकार है, जिसके वशीभूत होकर जीव वस्तु-स्वरूप को न समझते हुए चतुर्गति परिभ्रमण किया करता है। धर्म, सम्प्रदाय, वर्ग, जाति इत्यादि सब भिन्न-भिन्न अवयव हैं। इनमें से धर्म का स्थान सबसे ऊँचा हैं। धर्म और सम्प्रदाय कभी एक नहीं हो सकते हैं। धर्म सदैव सम्प्रदायातीत है। वास्तव में जो उत्तम सुख में धरे, वही धर्म है।
धर्म शाश्वत है जबकि सम्प्रदाय क्षणिक है। धर्म अभेद को उत्पन्न करके सबको जोड़ता है जबकि सम्प्रदाय आपस में बांटने का कार्य करता है अत: जीवन के शाश्वत सिद्धान्तों को समझते हुए सम्प्रदाय से ऊपर उठकर धर्म को ग्रहण करना चाहिए। जैन शासन को ‘शम-दम’ शासन कहा गया है क्योंकि क्रोध, मान, माया, लोभरूपी कषायों से स्वयं को क्रमश: पृथक् कर देने (शम) एवं इन्द्रियों के निरोध (दम) का उपदेश तीर्थंकर भगवन्तों ने विशेषरूप से दिया है।
क्रोधरूपी कषाय को क्षमारूपी जल से शांत करने हेतु संसार में सबसे बड़ा उदाहरण है भगवान पार्श्वनाथ का, जो २८८० वर्ष पूर्व इसी वाराणसी नगर में जन्मे थे। दश भवों तक कमठ के जीव ने भगवान पार्श्वनाथ के जीव पर हर संभव उपसर्ग किया परन्तु क्षमा एवं सहिष्णुता की प्रतिमूर्ति भगवान पार्श्वनाथ के जीव ने सदैव ही इसे अपने कर्मों का ही प्रतिफल जानते हुए पूर्ण शांति को धारण किए रखा और इस प्रकार एक हाथ से ताली बजने एवं एकतरफा वैर का यह उदाहरण दृष्टव्य हुआ।
वस्तुत: सच्चे तापसी अपनी तपस्या द्वारा कषायरूपी परम शत्रुओं को ही तपाकर वास्तविक अर्थ की सिद्धि किया करते हैं। कषाय और तपस्या का पूर्णत: अन्तर्विरोध रहता है। हमारी भारतीय संस्कृति में नारी के सतीत्व की अनेकों गौरव गाथाएँ भरी पड़ी हैं। शील नारी का सबसे बड़ा आभूषण हैं और शीलहरण संसार में सबसे बड़ा पाप है। सीता के मन में रावण के प्रति अणुमात्र भी राग नहीं था, एकमात्र रावण के मन में ही सीता के प्रति रागयुक्त आसक्ति थी।
यद्यपि सीता की इच्छा के विरुद्ध रावण ने उनका शीलहरण नहीं किया तथापि गलत भावना मात्र से ही आज तक संसार में रावण का पुतला जलाया जाता है एवं कोई भी अपने बालक का नाम रावण नहीं रखता। एकदेश ब्रह्मचर्यव्रत अर्थात् शीलव्रत अर्थात् अपने पति/पत्नी में पूर्ण संतोष रखना अथवा पूर्ण ब्रह्मचर्यव्रत भारतीय संस्कृति का ठोस आधार है।
स्वप्न में भी बदला लेने की भावना नहीं रखना
जैन चर्या का मूलभूत सिद्धान्त है। आत्मा के कल्याण के अभिलाषी पुरुष किसी अन्य द्वारा उपसर्ग किए जाने पर यही विचार करते हैं कि यह मेरा परम उपकारी है जो कि मुझे मेरे कटु कर्म से मुक्ति दिलाने में निमित्त बन रहा है। मेरे अपने कर्मफल के अतिरिक्त किसी में भी मेरा घात करने की क्षमता नहीं है। आत्मकल्याणरूपी धर्म की रक्षा करते हुए भले ही शरीर छूट जाए परन्तु वैर भाव करना उचित नहीं है। यदि बदला लेने की भावना हृदय में है तो इसका अर्थ है कि साधक की दृष्टि अभी समीचीन नहीं हो पाई है। क्रूरता, क्रोध, दोष, विकृतियाँ इत्यादि आत्मा की सच्ची विभूति नहीं हैं, इनके माध्यम से तो हम अपना ही घात करते हैं। अंगारा पहले फेंकने वाले के हाथ को जलाता है, पुन: ही दूसरे का घात कर सकता है अथवा नहीं भी।
यदि सामने वाले का पुण्य क्षीण होगा तो ही उसकी हानि होगी अथवा नहीं परन्तु अंगारा फेंकने वाला तो निश्चितरूप से जल ही जायेगा। निश्चय हमको करना है कि हमें क्या बनना है-भगवान पार्श्वनाथ अथवा कमठ। भगवान पार्श्वनाथ जिन्होंने क्षमा एवं सहनशीलता का आश्रय लेकर स्वयं को तीर्थंकर बना लिया अथवा कमठ जिसने हर भव में वैर, बदला लेने की भावना, हिंसा आदि के आश्रय से स्वयं को नरक एवं पशुगति के अपार दु:खों में डाला।
हमारे एक हाथ में चिंतामणि रत्न हैं और दूसरे हाथ में खली का टुकड़ा है, अब हमारे ऊपर निर्भर है कि हम किसे अपनाते हैं। मनुष्य पर्याय और शाश्वत धर्म की धारा चिंतामणि रत्न हैं जबकि विषयासक्ति, क्रोध-मान-माया-लोभ इत्यादि कषाय खली के टुकड़े हैं। यदि इस कलिकाल में भी हमको धर्मरूपी रत्न की प्राप्ति हो गई है तो हमारे लिए यह काल भी अत्यन्त उत्तम है। हमें इस उत्तमता पर महान गौरव होना चाहिए कि हमको मनुष्य भव एवं धर्म के रूप में महान निधि अथवा सबकुछ मिल गया है।
जो आत्मा जन्म और मरण के चक्र में उलझा हुआ है, वही अहिंसारूपी परम धर्म को अपनाकर भगवान आत्मा बन सकता है। जब पाषाण में संस्कारों को आरोपित करके उसे भगवान की प्रतिमा के रूप में पूज्य बना दिया जाता है, तब तो चैतन्य आत्मा पर संस्कार डालते रहने से वह भगवान-आत्मा क्यों नहीं बन जायेगा। इस विश्वप्रसिद्ध काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले विद्यार्थीगण यहाँ से इस प्रकार के संस्कार लेकर समाज में आगे आएं कि जिससे भारतीय संस्कृति का गौरव सम्पूर्ण विश्व को आश्चर्यचकित कर सके, यही मेरी मंगल भावना है।