जिनमें अथवा जिनके द्वारा जीवों की मार्गणा—खोज की जावे उन्हें मार्गणा कहते हैं। ३४३ राजू प्रमाण लोकाकाश में अक्षय अनन्त जीव राशि भरी हुई है उसे खोजने अथवा उन पर विचार करने के साधनों में मार्गणा का स्थान सर्वोपरि है। यह मार्गणाएँ चौदह प्रकार की होती है— १. गति २. इन्द्रिय ३. काय ४. योग ५. वेद ६. कषाय ७. ज्ञान ८. संयम ९. दर्शन १०. लेश्या ११. भव्यत्व १२. सम्यक्त्व १३. संज्ञित्व और १४. आहार।
सान्तरमार्गणा—सामान्य रूप से सभी मार्गणाएं सदा विद्यमान रहती हैं परन्तु मार्गणाओं के प्रभेद रूप उत्तर मार्गणाओं की अपेक्षा विचार करने पर १ उपशम सम्यक्त्व, २ सूक्ष्मसांपराय संयम, ३. आहारककाय—योग, ४ आहारक मिश्र काययोग, ५. वैक्रियिक मिश्र काययोग, ६ अपर्याप्तक मनुष्य, ७ सासादन सम्यक्त्व और ८ मिश्र—सम्यक् मिथ्यात्व…..इन आठ मार्गणाओं का कदाचित् कुछ समय तक अभाव भी हो जाता है इसलिये इन्हें सान्तर मार्गणाएं कहते हैं। इनमें उपशमसम्यक्त्व का उत्कृष्ट अन्तर काल सात दिन, सूक्ष्म सांपराय का छह माह, आहारक काययोग का पृथक्त्व वर्ष, आहारक मिश्र काययोग का पृथक्त्व वर्ष, वैक्रियिक मिश्र काययोग का बारह मुहूर्त, अपर्याप्त मनुष्य का पल्य के असंख्यातवें भाग तथा सासादन और मिश्र का भी उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्य के असंख्यातवें भाग है अर्थात् इतने समय के बीतने पर कोई न कोई जीव इन मार्गणाओं का धारक नियम से होता है। उपर्युक्त आठों सान्तर मार्गणाओं का जघन्य अन्तर काल एक समय ही है। इस संदर्भ में इतनी विशेषता और ध्यान में रखना चाहिये कि प्रथमोपशम सम्यक्त्व से सहित पञ्चम गुणस्थान का उत्कृष्ट विरह काल चौदह दिन का तथा छठवें और सातवें गुणस्थान का पन्द्रह दिन है। मार्गणाओं का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है—
गतिमार्गणा — गति नाम कर्म के उदय से प्राप्त हुई जीव की अवस्था विशेष को गति कहते हैं। इसके नरकगति, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति और देवगति ये चार भेद हैं।
नरकगति — नरकगति नाम कर्म के उदय से जो अवस्था होती है उसे नरकगति कहते हैं। इस गति के जीव निरन्तर दु:खी रहते हैं, रञ्चमात्र के लिये भी इन्हें रत—सुख की प्राप्ति नहीं होती इसलिये इन्हें नरत भी कहते हैं। इन जीवों का निवास रत्नप्रभा, शर्वराप्रभा, बालुकाप्रभ, पज्र्प्रभा, धूमप्रभा, तम:प्रभा और महातम:प्रभा इन सात भूमियों में हैं। इन भूमियों में क्रम से ३० लाख, २५ लाख, १५ लाख, १० लाख, ३ लाख, पांच कम एक लाख और ५ बिल हैं। उन्हीं बिलों में नारकियों का निवास है। प्रथम नरक की अपर्याप्तिक अवस्था में पहला और चौथा गुणस्थान होता है तथा पर्याप्तक अवस्था में प्रारम्भ के चार गुणस्थान होते हैं। द्वितीय को आदि लेकर नीचे की छह पृथिवियों में अपर्याप्तक अवस्था में मात्र मिथ्यादृष्टि नामक पहला गुणस्थान होता है और पर्याप्तक अवस्था में प्रारम्भ के चार गुणस्थान होते हैं। नरकगति की अपर्याप्तक दशा में सासादन और मिश्र गुणस्थान नहीं होते। क्योंकि सासादन गुणस्थान में मरा हुआ जीव नरकगति में उत्पन्न नहीं होता और मिश्र गुणस्थान में किसी का मरण होता ही नहीं है, इसलिये यह नरकगति ही क्यों सभी गतियों की अपर्याप्तक अवस्था में नहीं होता।
नरकगति के विविध दु:खों का दिग्दर्शन — उपर्युक्त नरकों के स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द अत्यन्त भयावह है। वहाँ की भूमि का स्पर्श होते ही उतना दु:ख होता है जितना कि एक हजार बिच्छुओं के एक साथ काटने पर भी नहीं होता। यही दशा वहाँ के रस आदि की है। नरकों में कृष्ण, नील और कापोत ये तीन अशुभ लेश्याएँ होते हैं। पहली और दूसरी भूमि में कापोता लेश्या है, तीसरी भूमि में ऊपर के पटलों में कापोता लेश्या और नीचे के पटलों में नील लेश्या है। चौथी भूमि में नील लेश्या है, पांचवी भूमि में ऊपर के पटलों में नील लेश्या है, और नीचे के पटलों में कृष्ण लेश्या है। छठवीं पृथिवी में कृष्ण लेश्या है और सातवीं में परम कृष्ण लेश्या है। इन नारकियों का शरीर अत्यन्त विरूप आकृति तथा हुण्डक संस्थान से युक्त होता है। प्रथम भूमि के नारकियों का शरीर सात धनुष, तीन हाथ और छह अंगुल ऊँचा है। द्वितीयादि भूमियों में दूना—दूना होता जाता है। पहली, दूसरी तीसरी और चौथी भूमि में उष्ण वेदना है, पांचवीं भूमि में ऊपर के दो लाख विलों में उष्ण वेदना और नीचे के एक लाख विलों में तथा छठवीं और सातवीं भूमि में शीत वेदना है। जिन नरकों में उष्ण वेदना है उनमें मेरु पर्वत के बराबर लोहे का गोला यदि पहुँच सके तो वह क्षण मात्र में गलकर पानी हो जावेगा और जिनमें शीत वेदना है उनमें फटकर क्षार क्षार हो जावेगा। वहाँ की विक्रिया भी अत्यन्त अशुभ होती है। नारकियों के अपृथक््â विक्रिया होती है अर्थात् वे अपने शरीर में ही परिणमन कर सकते हैं। पृथक््â नहीं। वे अच्छी विक्रिया करना चाहते हैं पर अशुभ विक्रिया ही होती है। इन उपर्युक्त दु:खों से ही उनका दु:ख शान्त नहीं होता किन्तु तीसरी पृथिवी तक असुर कुमार जाति के देव जाकर उन्हें परस्पर लड़ाते हैं। इन नरकों में क्रम में एक, तीन, सात, दश, सत्तरह, बाईस और तेतीस सागर की उत्कृष्ट आयु होती है।
असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय पहली पृथिवी तक, सरीसृप दूसरी पृथिवी तक, पक्षी तीसरी पृथिवी तक, सर्प चौथी पृथिवी तक, िंसह पाचंवीं पृथिवी तक, स्त्रियाँ छठवीं पृथिवी तक, पापी मनुष्य तथा महामच्छ सातवीं पृथिवी तक जाते हैं। एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक के जीव नरकों में उत्पन्न नहीं होते। नारकी मरकर नारकी नहीं होता तथा देव भी मरकर नरक गति में नहीं जाता।
सातवीं पृथिवी से निकले हुए नारकी मनुष्य नहीं होते, किन्तु तिर्यञ्चों में उत्पन्न होकर फिर से नरक जाते हैं। छठवीं पृथिवी से निकले हुए नारकी मनुष्य तो होते हैं पर संयम धारण नहीं कर सकते। पांचवीं पृथिवी से निकले हुए नारकी मुनिव्रत तो धारण कर लेते हैं परन्तु मोक्ष नहीं जाते। चौथी पृथिवी से निकले हुए नारकी मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं परन्तु तीर्थंकर पद प्राप्त नहीं कर सकते। पहली, दूसरी और तीसरी पृथिवी से निकले हुए नारकी तीर्थंकर भी हो सकते हैं।
तिर्यञ्चगति नाम कर्म के उदय से जीव की जो दशा होती है उसे तिर्यञ्च गति कहते हैं तिर्यञ्च कुटिल भाव से युक्त होते हैं। उनकी आहारादि संज्ञाएँ अत्यन्त प्रकट हैं, अत्यन्त अज्ञानी है और तीव्र पाप से युक्त हैं। जो जीव पूर्वपर्याय में मायाचार रूप प्रवृत्ति करते हैं उन्हीं के तिर्यंञ्च आयु का बन्ध होकर तिर्यंच गति प्राप्त होती है। इनका गर्भ और संमूच्र्छन जन्म होता है। एकेन्द्रिय से लेकर पाँचों इन्द्रियाँ इनके होती हैं तीनों लोकों में सर्वत्र व्याप्त हैं। आगम में इनके सामान्य तिर्यंच, पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच, पर्याप्तक तिर्यंच, अपर्याप्तिक तिर्यंच और योनिमती तिर्यंच के भेद से पाँच भेद कहे गये हैं। संक्षेप में इनके कर्मभूमिज और भोगभूमिज की अपेक्षा दो भेद हैं। जिन जीवों ने पहले तिर्यंच आयु का बन्ध कर लिया, पीछे सम्यग्दर्शन प्राप्त किया, ऐसे जीव भोगभूमिज तिर्यंचों में उत्पन्न हो सकते हैं परन्तु कर्मभूमिज तिर्यंचों में नहीं। तिर्यंच गति के वध बन्धन आदि से होने वाले दु:ख प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं, इसलिये निरन्तर ऐसा प्रयत्न करना चाहिये कि जिससे तिर्यंच आयु का बन्ध न हो सके। तिर्यंच गति में चौदह जीव समास होते हैं। विस्तार से विचार किया जावे तो ९८ जीव समासों में ८५ जीव समास तिर्यंच गति में होते हैं और चौरासी लाख योनियों में बासठ लाख योनियाँ तिर्यंचगति में होती हैं। इसमें एक से लेकर पाँच तक गुणस्थान हो सकते हैं अर्थात् संज्ञा पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तक तिर्यंच सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सकते हैं और कर्मभूमि में उत्पन्न हुए कोई—कोई पंचेन्द्रिय तिर्यंच एकदेश व्रत भी धारण कर सकते हैं। आगम में बताया है कि स्वयंभूरमण समुद्र के बाद जो पृथिवी के कोण हैं उनमें असंख्यात पंचेन्द्रिय तिर्यंच व्रती होते हैं और मरकर वे वैमानिक देवों में उत्पन्न होते हैं। तिर्यंच गति में जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट आयु तीन पल्य की होती है।
मनुष्यगति नाम कर्म के उदय से जो अवस्था प्राप्त होती है उसे मनुष्यगति कहते हैं। यतश्च ये तत्त्व अतत्व—धर्म अधर्म का विचार करते हैं, मन से गुण दोष आदि का विचार करने में निपुण हैं अथवा कर्म भूमि के प्रारम्भ में चौदह मनुओं—कुलकरों से उत्पन्न हुए हैं इसलिये मनुष्य कहलाते हैं। आगम में मनुष्यों के सामान्य, पर्याप्तक अपर्याप्तक और योनिमती के भेद से चार भेद बताये गये हैं। वैसे तिर्यंचों के समान इनके भी कर्मभूमिज और भोगभूमिज की अपेक्षा दो भेद हैं। तत्वार्थ सूत्रकार ने इनके आर्य और म्लेच्छ इस प्रकार दो भेद कहे हैं। मानुषोत्तर पर्वत के पूर्व पूर्वतक अर्थात् अढ़ाई द्वीप और दो समुद्रों में इनका निवास है। इनमें संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक और संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक ये दो जीव समास होते हैं। भोगभूमिज मनुष्य के प्रारम्भ के चार गुणस्थान तक हो सकते हैं और कर्मभूमिज मनुष्य के चौदहों गुणस्थान हो सकते हैं। संसार सन्तति का छेद कर मोक्ष प्राप्त कराने की योग्यता इसी गति में है इसलिये इसका महत्व सर्वोपरि है। मनुष्य की जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट आयु तीन पल्य की होती है। कर्म भूमिज मनुष्य की उत्कृष्ट स्थिति एक करोड़ वर्ष पूर्व की होती है।
देवगति नाम कर्म के उदय से जो अवस्था प्राप्त होती है उसे देवगति कहते हैं। ‘दीव्यन्ति यथेच्छं क्रीडन्ति द्वीप समुद्रादिषु ये ते देवा:’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो इच्छानुसार द्वीप समुद्र आदि में क्रीड़ा करते हैं वे देव कहलाते हैं यह देव शब्द का निरुक्त अर्थ है। देवों के चार निकाय हैं—१ भवनवासी २ व्यन्तर ३ ज्योतिष्क और ४ वैमानिक। भवन वासियों के असुर कुमार आदि दश, व्यन्तरों के किन्नर आदि आठ, ज्योतिष्कों के सूर्य आदि पाँच और वैमानिकों के बारह इन्द्रों की अपेक्षा बारह भेद हैं। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिष्क ये तीन देव भवनत्रिक के नाम से प्रसिद्ध हैं। इनमें सम्यग्दृष्टि जीव की उत्पत्ति नहीं होती। वैमानिक देवों के कल्पवासी और कल्पातीत की अपेक्षा दो भेद भी हैं। सोलहवें स्वर्ग तक के देव कल्पवासी और उसके आगे नौ ग्रैवेयक, नौ अनुदिश तथा पाँच अनुत्तरवासी देव कल्पातीत कहलाते हैं। जिनमें इन्द्र सामानिक आदि दश भेदों की कल्पना होती है वे कल्पवासी कहलाते हैं और जिनमें यह कल्पना नहीं होती वे कल्पातीत कहे जाते हैं। देवों में संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक और संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक ये दो जीव समास होते हैं। इनके प्रारम्भ के चार गुणस्थान होते हैं। हंस, परम हंस आदि मन्द कषायी अन्य मतावलम्बियों की उत्पत्ति बारहवें स्वर्ग तक होती है। पाँच गुणव्रतों को धारण करने वाले गृहस्थ सोलहवें स्वर्ग तक उत्पन्न होते हैं। द्रव्यलिंगी—मिथ्यादृष्टि मुनियों की उत्पत्ति नौवें ग्रैवेयक तक हो सकती है उसके आगे सम्यग्दृष्टि मुनियों की ही उत्पत्ति होती है। अनुदिश तथा अनुत्तरवासी देव अधिक से अधिक मनुष्य के दो भव लेकर मोक्ष चले जाते हैं। अनुदिशों में सर्वार्थसिद्धि के देव, पांचवें स्वर्ग के अन्त में रहने वाले लौकान्तिक देव, सौधर्मेन्द्र, उसकी शची नामक इन्द्राणी और दक्षिण दिशा के लोकपाल ये सब एक भवावतारी होते हैं। मिथ्यादृष्टि देव स्वर्ग की विभूति पाकर उसमें तन्मय हो जाते हैं, परन्तु सम्यग्दृष्टि देव अन्तरंग से विरक्त रहकर कर्मभूमिज मनुष्य पर्याय की वांच्छा करते हैं और यह भावना रखते हैं कि हम कब मनुष्य होकर तपश्चरण करें तथा अष्ट कर्मों का नाशकर मोक्ष प्राप्त करें। चारों निकाय के देवों की आयु विभिन्न प्रकार की है। संक्षेप में सामान्य रूप से देवगति की जघन्य आयु दश हजार वर्ष की और उत्कृष्ट तेतीस सागर की है।
इन्द्र—आत्मा की जिनसे पहिचान हो उसे इन्द्रिय कहते हैं। अथवा जो अपने स्वर्शादि विषयों को ग्रहण करने के लिये इन्द्र के समान स्वतन्त्र हैं किसी दूसरी इन्द्रिय की अपेक्षा नहीं रखती उन्हें इन्द्रिय कहते हैं। इन इन्द्रियों के सामान्य रूप से द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय की अपेक्षा दो भेद हैं। निर्वृत्ति और उपकरण को द्रव्येन्द्रिय तथा लब्धि और उपयोग को भावेन्द्रिय कहते हैं। निर्वृत्ति रचना को कहते हैं। इसके बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से दो भेद हैं। तत् तद् इन्द्रियों के स्थान पर पुद्गल परमाणुओं की जो इन्द्रियाकार रचना है उसे बाह्य निर्वृत्ति कहते हैं। और आत्म प्रदेशों का तत् तद् इन्द्रियाकार परिणमन होना आभ्यन्तर निर्वृंत्ति है। उपकरण के भी बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से दो भेद हैं। पलक विरूनि आदि बाह्य उपकरण हैं और कृष्ण शुक्ल मंडल आदि आभ्यन्तर उपकरण हैं। तत् तद् इन्द्रियावरण के क्षयोपशम में पदार्थ के ग्रहण करने की जो योग्यता है उसे लब्धि कहते हैं और उस योग्यता के अनुसार कार्य होना उपयोग है। वीरसेन स्वामी के उल्लेखानुसार इन्द्रियावरण कर्मका क्षयोपशम समस्त आत्म प्रदेशों में होता है न केवल इन्द्रियाकर परिणत आत्मप्रदेशों में। विशेष रूप से स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र ये पांच भेद हैं। इन्हीं इन्द्रियों की अपेक्षा जीवों की एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय ये पांच जातियाँ होती हैं। आगम में एकेन्द्रिय जीवों की स्पर्शनादि इन्द्रयों का उत्कृष्ट विषय क्षेत्र इस प्रकार बताया गया है— एकेन्द्रिय जीव की स्पर्शन इन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय क्षेत्र चार सौ धनुष है, द्वीन्द्रिय जीव की रसना इन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय चौसठ धनुष प्रमाण है, त्रीन्द्रिय जीव की घ्राणेन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय सौ धनुष प्रमाण है, चतुरिन्द्रिय जीव की चक्षुिंरद्रिय का उत्कृष्ट विषय दो हजार नौ सौ चौवन योजन है और असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव की कर्णेन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय आठ हजार धनुष प्रमाण है। द्वीन्द्रियादिक जीवों का यह विषय असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक दूना—दूना होता जाता है। संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव की स्पर्शनादि इन्द्रियों का उत्कृष्ट विषय इस प्रकार है—स्पर्शन, रसना और घ्राण इन तीन में प्रत्येक का उत्कृष्ट विषय क्षेत्र नौ—नौ योजन है। श्रोतेन्द्रिय का बारह योजन तथा चक्षुरिन्द्रिय का सैंतालीस हजार दो सौ त्रेसठ से कुछ अधिक है। उत्कृष्ट विषय क्षेत्र का तात्पर्य यह है कि ये इन्द्रियाँ इतने दूरवर्ती विषय को ग्रहण कर सकती है। चक्षुरिन्द्रिय का आकार मसूर के समान, श्रोत्र का आकार जौ की नली के समान, घ्राण का आकार तिल के फल के समान और रसना का आकार खुरपा के समान है। स्पर्शन का आकार अनेक प्रकार का होता है। आत्म प्रदेशों की अपेक्षा चक्षुरिन्द्रिय का अवगाहन घनांगुल के असंख्यातवें भाग है, इससे संख्यातगुण श्रोतेन्द्रिय का है, इससे पल्य के असंख्यातवें भाग अधिक घ्राणेन्द्रिय का और उससे पल्य के असंख्यातवें भाग गुणित रसनेन्द्रिय का अवगाहन है। स्पर्शनेन्द्रिय का जघन्य अवगाहन घनांगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है जो कि सूक्ष्म निगोदिया जीव के उत्पन्न होने के तृतीय समय में होता है और उत्कृष्ट अवगाहन महामच्छ के होता है जो कि संख्यात घनांगुल रूप होता है। एकेन्द्रिय से लेकर असैनी पंचेन्द्रिय तक एक—मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है और संज्ञी पंचेन्द्रिय के चौदह गुणस्थान होते हैं। यह इन्द्रियों का क्रम संसारी जीवों के ही होता है मुक्त जीव इससे रहित हैं। संसारी जीवों में भी भावेन्द्रियाँ बारहवें गुणस्थान तक ही क्रियाशील रहती हैं उसके आगे नहीं। तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में द्रव्येन्द्रियों के रहने से ही पंचेन्द्रियपने का व्यवहार होता है।
जाति नाम कर्म से अविनाभावी त्रस और स्थावर नाम कर्म के उदय से जो शरीर प्राप्त होता है उसे काय कहते हैं। एकेन्द्रिय जाति तथा स्थावर नाम कर्म के उदय से जो शरीर मिलता है उसकी स्थावर काय संज्ञा है और वह पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति के भेद से पाँच प्रकार का होता है तथा द्वीन्द्रियादि जाति और त्रस नाम कर्म के उदय से जो शरीर प्राप्त होता है उसे त्रसकाय कहते हैं। कायमार्गणा में उसका एक ही भेद लिया जाता है। पृथिवी, जल, अग्नि और वायु कर्म के उदय से पृथिवी काय आदि की उत्पत्ति होती है इन सभी के वादर और सूक्ष्म से दो प्रकार के शरीर होते हैं। वनस्पति नाम कर्म के उदय से वनस्पति काय उत्पन्न होता है। इसके प्रत्येक वनस्पति और साधारण वनस्पति के भेद से दो भेद हैं। प्रत्येक उसे कहते हैं जिसमें एक शरीर का एक ही जीव स्वामी होता है और साधारण उसे कहते हैं जहाँ एक शरीर के अनेक जीव स्वामी होते हैं। प्रत्येक वनस्पति के भी दो भेद हैं, १ सप्रतिष्ठित प्रत्येक और २ अप्रतिष्ठित प्रत्येक। जिनके आश्रय अनेक निगोदिया जीव रहते हैं उन्हें सुप्रतिष्ठित और जिनके आश्रय अनेक निगोदिया नहीं रहते उन्हें अप्रतिष्ठित प्रत्येक कहते हैं। जिनकी शिरा, सन्धि और पर्व अप्रकट हो, जिसका भंग करने पर समान भंग हो, और दोनों भंगों में तन्तु न लगे रहें तथा वेदन करने पर भी जिसकी पुन: वृद्धि हो जावे वह सप्रतिष्ठित कहा जाता है और इससे भिन्न अप्रतिष्ठित प्रत्येक है। जिनका आहार तथा श्वासोच्छवास साधारण समान होता है अर्थात् एक के आहार से सबका आहार और एक के श्वासोच्छ्वास हो जाता है, एक के जन्म लेने से सबका जन्म और एक के मरण से सबका मरण हो जाता है वह साधारण कहा जाता है। वादर निगोदिया जीवों के स्कन्ध, अंडर, आवास, पुलवि और देह इस प्रकार पांच भेद होते हैं और ये उत्तरोत्तर असंख्यात लोक गुणित होते जाते हैं। एक निगोदिया जीव के शरीर में द्रव्य प्रमाण की अपेक्षा सिद्ध राशि तथा समस्त अतीत काल के समयों से अनन्त गुणे जीव रहते हैं। साधारण का दूसरा प्रचलित नाम निगोद है। यह निगोद, नित्यनिगोद और इतरनिगोद की अपेक्षा दो प्रकार का होता है। नित्य निगोद में दो विकल्प हैं—एक विकल्प तो यह है कि जिसने त्रसपर्याय आज तक कभी न प्राप्त की है और न कभी प्राप्त करेगा, उसी पर्याय में जन्ममरण करता रहता है। तथा दूसरा विकल्प यह है कि जिसने आज तक त्रसपर्याय पाई जो नहीं है परन्तु आगे पा सकता है। इतरनिगोद वह कहलाता है जो निगोद से निकलकर अन्य पर्यायों में घूमकर फिर निगोद में उत्पन्न होता है। द्वीन्द्रियादिक जीवों को त्रस कहते हैं। स्थावर काय में एक ही मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है और त्रसजीवों के चौदहों गुणस्थान होते हैं। त्रसजीवों का निवास त्रसनड़ी में ही है जब कि स्थावर जीवों का निवास तीन लोक में सर्वत्र है। त्रस नाड़ी के बाहर त्रस जीवों का सद्भाव यदि होता है तो उपपाद, मारणान्तिकसमुद्घात और लोकपूरणसमुद्घात के समय ही होता है और अन्य समय नहीं। सूक्ष्म निगोदिया तो लोक में सर्वत्र व्याप्त हैं परन्तु बादरनिगोदिया, पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, केवली का परमौदारिक शरीर, आहारक शरीर, देवों का शरीर था नारकियों का शरीर इन आठ स्थानों में नहीं होते हैं। पृथिवीकायिक का शरीर मसूर के समान, जलकायिक का जल की बूंद के समान, अग्निकायिक का खड़ी सुइयों के समूह के समान और वायु कायिक का ध्वजा के समान होता है। वनस्पतिकायिक तथा त्रसों का शरीर अनेक प्रकार का होता है। काय के प्रपञ्च का वर्णन करते हुए आचार्यों ने कहा है कि जिस प्रकार बोझा ढोने वाला मनुष्य काँवर के द्वारा बोझा ढोता है उसी प्रकार संसारी जीव काय रूपी कांवर के द्वारा कर्म रूपी बोझे को ढोता है। एक जगह यह भी लिखा है कि जिस प्रकार लोहे की संगति से अग्नि घनों से पिटती है उसी प्रकार शरीर की संगति से यह जीव चतुर्गंति के दु:ख सहन करता है। तात्पर्य यह है कि जब तक शरीर का सम्बन्ध है तभी तक संसार भ्रमण है। सिद्ध भगवन्त काय के सम्बन्ध से रहित हैं।
पुद्गलविपाकी शरीर नाम कर्म के उदय से, मन वचन काय से युक्त जीव की कर्म—्नाोकर्म के ग्रहण में कारणभूत जो शक्ति है उसे योग कहते हैं। यह भावयोग का लक्षण है इसके रहते हुए आत्मप्रदेशों का जो परिस्पन्द—हलन चलन होता है उसे द्रव्ययोग कहते हैं। मनोवर्गणा, वचनवर्गणा और कायवर्गणा के आलम्बन की अपेक्षा योग के तीन भेद होते हैं—मनोयोग, वचनयोग और काययोग। सत्य, असत्य, उभय और अनुभय इन चार पदार्थों को विषय करने की अपेक्षा मनोयोग और वचन योग के सत्य मनोयोग और सत्य वचनयोग आदि चार चार भेद होते हैं। सम्यग्ज्ञान के विषयभूत पदार्थ को सत्य कहते हैं जैसे ‘यह जल है’। मिथ्याज्ञान के विषयभूत पदार्थ को असत्य कहते हैं जैसे मृगमरीचिका में ‘यह जल है’। दोनों के विषयभूत पदार्थ को उभय कहते हैं जैसे कमण्डलु में यह घट है।’ कमण्डलु घट का काम देता है इसलिये सत्य है और घटाकर न होने से असत्य है। जो दोनों ही प्रकार के ज्ञान का विषय न हो उसे अनुभय कहते हैं जैसे सामान्य रूप से प्रतिभास होना कि ‘यह कुछ है।’ काययोग के सात भेद हैं—१ औदारिक काययोग २ औदारिक मिश्रकाय योग, ३ वैक्रियिक काययोग, ४ वैक्रियिक मिश्र काय योग ५ आहारक काययोग, ६ आहारक मिश्र काययोग और, ७ कार्मण काययोग। विग्रहगति में जो योग होता है उसे कार्मण काययोग कहते हैं। यह एक, दो अथवा तीन समय तक रहता है इसमें खास कर कार्मण शरीर निमित्तरूप पड़ता है। विग्रहगति के बाद जो जीव मनुष्य अथवा तिर्यञ्चगति में जाता है उसके प्रथम अन्तर्मुहूर्त में—अपर्याप्तक अवस्था के काल में औदारिक मिश्रकाययोग होता है और अन्तर्मुहूर्त के बाद जीवन पर्यन्त औदारिककाययोग होता है। विग्रहगति के बाद जो जीव देवों अथवा नारकियों में जन्म लेता है उसके प्रथम अन्तर्मुहूर्त में अपर्याप्तक के काल में वैक्रियिकमिश्रकाययोग होता है और अन्तर्मुहूर्त के बाद जीवन पर्यन्त वैक्रियिककाययोग होता है। छठवें गुणस्थान में रहने वाले जिन मुनि के आहारक शरीर की रचना होने वाली है उनके प्रथम अन्तर्मुहूर्त में आहारकमिश्रकाययोग होता है और उसके बाद आहारककाययोग होता है। तैजस—शरीर के निमित्त में आत्मप्रदेशों में परिस्पन्द नहीं होता इसलिये तैजसयोग नहीं माना जाता है। परमार्थ से मनोयोग का सम्बन्ध बारहवें गुणस्थान तक ही होता है परन्तु द्रव्यमन की स्थिरता के लिये मनोवर्गणा के परमाणुओं का आगमन होते रहने से उपचार से मनोयोग तेरहवें गुणस्थान तक होता है। वचनयोग और काययोग का सम्बन्ध सामान्य रूप से तेरहवें गुणस्थान तक है। विशेष रूप से विचार करने पर सत्यवचनयोग और अनुभयवचनयोग तेरहवें तक होते हैं और असत्य तथा उभय वचन बारहवें तक होते हैं। केवलज्ञान होने के पहले अज्ञान दशा रहने से अज्ञान निमित्तक असत्य वचन की संभावना बारहवें गुणस्थान तक रहती है इसलिये असत्य और उभय का सद्भाव आगम में बारहवें गुणस्थान तक बताया है। ऐसा ही मनोयोग के विषय में समझना चाहिये। कार्मणकाययोग प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ और केवलिसमुद्घात की अपेक्षा तेरहवें गुणस्थान (प्रतर और लोक पूरण भेद) में होता है अन्य गुणस्थानों में नहीं। औदारिकमिश्रकाययोग प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ और कपाट तथा लोकपूरणसमुद्घात के भेद की अपेक्षा तेरहवें गुणस्थान में होता है। औदारिककाययोग प्रारम्भ से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक रहता है। वैक्रियकमिश्रकाययोग प्रथम, द्वितीय और चतुर्थ गुणस्थान में रहता है तथा वैक्रियिककाययोग प्रारम्भ के चार गुणस्थानों में होता है। आहारकमिश्र और आहारक काययोग मात्र छठवें गुणस्थान में होते हैं। औदारिक शरीर की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्य की, वैक्रियिक शरीर की तेतीस सागर, आहारक शरीर की अन्तर्मुहूर्त, तैजस शरीर की छ्यासठ सागर और कार्मण शरीर की सामान्यतया सत्तर कोड़ा को़डी सागर की है। औदारिक शरीर की उत्कृष्ट संचय देव कुरु और उत्तर कुरु में उत्पन्न होने वाले तीन पल्य की स्थिति से युक्त मनुष्य और तिर्यंच के उपान्त तथा अन्तिम समय में होती है। वैक्रियिक शरीर की उत्कृष्ट संचय बाईस सागर की आयु वाले आरण अच्युत स्वर्ग के उपरितन विमान में रहने वाले देवों के होता है। तैजस शरीर का उत्कृष्ट संचय सातवें नरक में दूसरी बार उत्पन्न होने वाले जीव के होता है। कार्मण शरीर का उत्कृष्ट संचय, अनेक वार नरकों में भ्रमण करके पुन: सातवीं पृथिवी में उत्पन्न होने वाले नारकी के होता है और आहारक शरीर का उत्कृष्ट संचय उसका उत्थापन करने वाले छठवें गुणस्थानवर्ती मुनि के होता है। चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोग केवली भगवान् और सिद्ध भगवान् योगों के सम्बन्ध से सर्वथा रहित है
भाववेद और द्रव्यवेद की अपेक्षा वेद के दो भेद हैं। स्त्री वेद, पुंवेद और नपुसंकवेद नामक नोकषाय के उदय से आत्मा में जो रमण की अभिलाषा उत्पन्न होती है उसे भाव वेद कहते हैं और अङ्गोपाङ्ग नामकर्म के उदय से शरीर के अङ्गों की जो रचना होती है उसे द्रव्य वेद कहते हैं। भाववेद और द्रव्य वेद में प्राय: समानता रहती है परन्तु कर्म भूमिज मनुष्य और तिर्यंच के कहीं विषमता भी पाई जाती है अर्थात् द्रव्य वेद कुछ हो और भाव वेद कुछ हो। नारकियों के नपुंसक वेद, देवों और भोगभूमिज मनुष्य तिर्यंचों के स्त्रीवेद तथा पुंवेद होता है और कर्म भूमिज मनुष्य तथा तिर्यंचों के नाम जीवों की अपेक्षा तीनों वेद होते हैं। संमूच्र्छंन जन्म वाले जीवों के नपुंसक वेद ही होता है। जो उत्कृष्ट गुण अथवा उत्कृष्ट भोगों का स्वामी हो उसे पुरुष कहते हैं। जो स्वयं अपने आपको तथा अपने चातुर्य से दूसरों को भी दोषों से आच्छादित करे उसे स्त्री कहते हैं तथा जो न स्त्री है और न पुरुष ही है उसे नपुंसक कहते हैं। आगम में पुरुष वेद की वेदना तृण की आग के समान, स्त्री वेद की वेदना करीष की आग के समान और नपुंसक वेद को वेदना र्इंट पकाने के अवा की आग के समान बतलाई है। भाव वेद की अपेक्षा तीनों वेदों का सद्भाव नौवें गुणस्थान के सवेदभाव तक रहता है। द्रव्य वेद की अपेक्षा स्त्री वेद और नपुंसक वेद का सद्भाव पञ्चम गुणस्थान तक तथा पुंवेद का सद्भाव चौदहवें गुणस्थान तक रहता है। जो जीव वेद की बाधा से रहित हैं वे आत्मीय सुख का अनुभव करते हैं।
कषाय शब्द की निष्पत्ति प्राकृत में कृष और कष इन दो धातुओं से की गई है। कृष का अर्थ जोतना होता है। जो जीव के उस कर्म रूपी खेत को जोते जिसमें कि सुख दु:ख रूपी बहुत प्रकार का अनाज उत्पन्न होता है तथा संसार की जिसकी बड़ी लम्बी सीमा है, उसे कषाय कहते हैं अथवा जो जीव के सम्यक्त्व, एकदेश चारित्र, सकल चारित्र और यथाख्यात चारित्र रूप परिणामों को कषै—घाते, उसे कषाय कहते हैं। इस कषाय के शक्ति की अपेक्षा चार, सोलह अथवा असंख्यात लोक प्रमाण भेद होते हैं। शिलाभेद, पृथिवीभेद, धूलिभेद और जलराजि के समान क्रोध चार प्रकार का होता है। शैल, अस्थि, काष्ठ और वेत के समान मान चार प्रकार का है। वेणुमूल—बांस की जड़, मेंढा का सींग, गोमूत्र और खुरपी के समान माया के चार भेद हैं। इसी प्रकार कृमिराग, चक्रमल, शरीरमल और हरिद्रारङ्ग के के समान लोभ भी चार प्रकार का है। यह चारों प्रकार की कषाय इस जीव को नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति में उत्पन्न कराने वाली है। अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानवरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन चतुष्क की अपेक्षा कषाय के सोलह भेद होते हैं। इनमें अनन्तानुबन्धी चतुष्क जीव के सम्यक्त्व रूप परिणामों को अप्रत्याख्याना—वरणचतुष्क एकदेशचारित्र को, प्रत्याख्यानावरण चतुष्क सकल चारित्र को और संज्वलन चतुष्क यथाख्यात संयम का घात करता है। अनन्तानुबन्धी दूसरे गुणस्थान तक, अप्रत्याख्यानावरण चतुर्थ गुणस्थान तक, प्रत्याख्यानावरण पञ्चमगुणस्थान तक और संज्वलन दशम गुणस्थान तक क्रियाशील रहती है। उसके आगे किसी भी कषाय का उदय नहीं रहता है। नेमिचन्द्राचार्य ने कषायों के स्थानों का वर्णन शक्ति, लेश्या और आयु बन्धाबन्ध की अपेक्षा भी किया है। इनमें शक्ति की अपेक्षा, पाषाण भेद, पाषाण, वेणुमूल और चक्रमल को आदि लेकर क्रोधादि कषायों के चार—चार स्थान कहे हैं। लेश्या की अपेक्षा चौदह स्थान इस प्रकार बतलाये हैं— शिला समान क्रोध में केवल कृष्ण लेश्या, भूमिभेद क्रोध में कृष्ण, कृष्ण, नील, कृष्णनीलकापोत, कृष्ण नील कापोत पीत, कृष्णनीलकापोतपीतपद्म, और कृष्णादि छहों लेश्याओं वाला, इस प्रकार छह स्थान, धूलिभेद में छह लेश्यावाला और उसके बाद कृष्ण आदि एक—एक लेश्या को कम करते हुए छह स्थान और जलभेद में एक शुक्ल लेश्या, इस तरह सब मिलाकर १ ± ६ ± ६ ± १ · १४ स्थान होते हैं। शिलाभेदगत कृष्ण लेश्या में कुछ स्थान ऐसे हैं जिनमें किसी भी आयु का बन्ध नहीं होता तथा कुछ स्थान ऐसे हैं जिनमें नरकायु का बन्ध होता है। पृथ्वी भेद के पहले और दूसरे स्थान में नरकायु का बन्ध होता है। इसके बाद कृष्ण नील कापोत लेश्या वाले तीसरे स्थान में कुछ स्थान ऐसे हैं जिनमें नरकायु का, कुछ स्थानों में नरकायु और तिर्यंच आयु का और कुछ स्थानों में नरक, तिर्यंच और मनुष्यायु का तथा शेष तीन स्थानों में चारों आयु का बन्ध होता है। धूलिभेद सम्बन्धी छह लेश्या वाले प्रथम स्थान में कुछ स्थान ऐसे हैं जिनमें चारों आयु का बन्ध होता है। धूलिभेद सम्बन्धी छह लेश्या वाले प्रथम स्थान में कुछ स्थान ऐसे हैं जिनमें चारों आयु का बन्ध होता है। इसके अनन्तर कुछ स्थानों में नरकायु को छोड़कर शेष तीन आयु का और कुछ स्थानों में नरक तथा तिर्यंच को छोड़कर शेष दो आयु का बन्ध होता है। वृृâष्ण लेश्या को छोड़कर शेष पांचलेश्या वाले दूसरे स्थान में तथा कृष्ण और नील को छोड़कर शेष चार लेश्या वाले तीसरे स्थान में केवल देवायु का बन्ध होता है। अन्त की तीन लेश्या वाले चौथे भेद के कुछ स्थानों में देवायु का बन्ध होता है और कुछ स्थान ऐसे हैं जिनमें किसी भी आयु का बन्ध नहीं होता। पद्म और शुक्ल लेश्या वाले पांचवें स्थान में तथा मात्र शुक्ल लेश्या वाले छठवें स्थान में किसी आयु का बन्ध नहीं होता। जल भेद सम्बन्धी शुक्ल लेश्या वाले एक स्थान में किसी भी आयु का बन्ध नहीं होता तात्पर्य यह है कि अत्यन्त अशुभ लेश्या और अत्यन्त शुभ लेश्या के समय किसी आयु का बन्ध नहीं होता।
आत्मा जिसके द्वारा त्रिकाल विषयक नाना द्रव्य, गुण और पर्यायों को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से जानता है उसे ज्ञान कहते हैं। मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल के भेद से ज्ञान के पांच भेद हैं, इनमें प्रारम्भ के चार ज्ञान क्षयोपशमिक हैं तथा अन्त का केवलज्ञान क्षायिक है। मति और श्रुत ये दो ज्ञान परोक्ष हैं तथा शेष तीन ज्ञान प्रत्यक्ष हैं उनमें भी अवधि और मन:पर्यय देश प्रत्यक्ष हैं और केवलज्ञान सकलप्रत्यक्ष है। स्वर्शनादि पांच इन्द्रियों और मन की सहायता से होने वाला ज्ञान मतिज्ञान कहलाता है। इसके अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के भेद से मूल में चार भेद हैं। ये चार बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनि:सृत, अनुक्त और ध्रुव तथा इनसे विपरीत एक, एकविध, अक्षिप्र, नि:सृत, उक्त और ध्रुव इन बारह प्रकार के पदार्थों के होते हैं अत: बारह में अवग्रहादि चार भेदों का गुणा करने पर ४८ भेद होते हैं। ये ४८ भेद पाँच इन्द्रियों और मन की सहायता से होते हैं अत: ४८ में ६ का गुणा करने से २८८ भेद हैं। इनमें व्यंजनावग्रह के १२ ² ४ · ४८ भेद मिलाने से मतिज्ञान के तीन सौ छत्तीस भेद होते हैं। व्यञ्जनावग्रह चक्षु और मन से नहीं होता इसलिये उसके ४८ ही भेद होते हैं। मतिज्ञान के द्वारा जाने हुए पदार्थ को विशिष्ट रूप से जानना श्रुतज्ञान कहलाता है। इसके पर्याय, पर्यायसमास आदि बीस भेद होते हैं। पर्याय नामका श्रुतज्ञान उस सूक्ष्मनिगोदियालब्ध्य पर्याप्तक जीव के होता है जो कि छह हजार बारह क्षुद्र भवों में भ्रमण कर अन्तिम भव में स्थित है और तीन मोड़ाओं वाली विग्रह गति में गमन करता हुआ प्रथम मोड़ा में स्थित है। इसका यह ज्ञान लब्ध्यक्षर श्रुतज्ञान कहलाता है। इतना ज्ञान निगोदिया जीव के रहता ही है उसका अभाव नहीं होता। पुन: क्रम से वृद्धि को प्राप्त होता हुआ अन्तिम भेद को प्राप्त करता है। दूसरी पद्धति में श्रुतज्ञान के अङ्ग प्रविष्ट और अङ्ग बाह्य के भेद से दो भेद हैं। अङ्ग प्रविष्ट के आचाराङ्ग आदि बारह भेद हैं और अङ्ग बाह्य के सामायिक आदि चौदह भेद हैं। बारहवें दृष्टिवाद अङ्ग का बहुत विस्तार है। इन्द्रियों की सहायता के बिना मात्र अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से जो ज्ञान होता है उसे अवधिज्ञान कहते हैं। यह भवप्रत्यय अवधि तथा गुण प्रत्यय अवधि के भेद से दो प्रकार का होता है। भव प्रत्यय अवधिज्ञान, देव नारकियों तथा तीर्थकरों के होता है और गुणप्रत्यय अवधिज्ञान मनुष्य तथा तिर्यंचों का होता है। गुणप्रत्यय अवधिज्ञान के अनुगामी, अननुगामी, वर्धमान, हीयमान, अवस्थित और अनवस्थित के भेद से छह भेद हैं। दूसरी पद्धति से अवधिज्ञान के देशावधि, परमावधि और सर्वाविधि ये तीन भेद हैं। इनमें मति, श्रुत एवं देशावधि ज्ञान मिथ्यादृष्टि और सम्यक््âदृष्टि दोनों के हो सकते हैं परन्तु परमावधि और सर्वावधि ये दो भेद मात्र सम्यग्दृष्टि के होते हैं और सम्यग्दृष्टि में भी चरम शरीरी मुनि के ही होते हैं साधारण मुनि के नहीं। देशावधि और परमावधि के जघन्य से लेकर उत्कृष्ट भेद तक अनेक विकल्प हैं परन्तु सर्वावविधान का एक ही विकल्प होता है। जघन्य देशावधि ज्ञान, द्रव्य की अपेक्षा मध्यम योग के द्वारा संचित विस्रसोपचयसहित नोकर्म औदारिक वर्गणा के संचय में लोक का (३४३ राजू प्रमाण लोक के जितने प्रदेश हैं उतने का) भाग देने से जो लब्ध आवे उतने द्रव्य को जानता है। क्षेत्र की अपेक्षा सूक्ष्मनिगोदिया जीव की उत्पन्न होने के तीसरे समय में जितनी अवगाहना होती है उतने क्षेत्र को जानता है। काल की अपेक्षा आवली के असंख्यातवें भाग प्रमाण द्रव्य ही व्यंजन पर्याय को ग्रहण करता है और भाव की अपेक्षा उसके असंख्यातवें भाग प्रमाण द्रव्य को व्यंजन पर्याय को ग्रहण करता है और भाव की अपेक्षा उसके असंख्यातवें भाग प्रमाण वर्तमान की पर्यायों को जानता है। आगे के भेदों में द्रव्य सूक्ष्म होता जाता है और क्षेत्र तथा काल आदि का विषय विस्तृत होता जाता है। कार्मण वर्गणा में एक बार ध्रुवहार का भाग देने से जो लब्ध आता है उतना द्रव्य, देशावधि ज्ञान के उत्कृष्टभेद का विषय है। क्षेत्र की अपेक्षा उत्कृष्ट देशावधि—सर्वलोक को जानता है। काल की अपेक्षा एक समय कम एक पल्य की बात जानता है और भाव की अपेक्षा असंख्यात लोकप्रमाण द्रव्य की पर्याय को ग्रहण करता है। परमावधि और सर्वावधि का विषय आगम से जानना चाहिये। दूसरे के मन में स्थित चिन्तित, अचिन्तित अथवा अर्धचिन्तित अर्थ को जो ग्रहण करता है उसे मन:पर्यय ज्ञान कहते हैं इसके ऋजुमति और विपुलमति के भेद से दो भेद हैं। जो सरल मन वचन काय से चिन्तित परकीय मन में स्थित रूपी पदार्थ को जानता है उसे ऋजुमति कहते हैं तथा जो सरल और कुटिल मन वच काय से चिन्तित परकीय मन में स्थित रूपी पदार्थ को जानता है उसे विपुलमति कहते हैं। मन:पर्ययज्ञान मुनियों के ही होता है गृहस्थों के नहीं। इनमें भी विपुलमति मन:पर्ययज्ञान, मात्र तद्भवमोक्षगामी जीवों के होता है सबके नहीं और तद्भव मोक्षगामियों में भी उन्हीं के होता है जो ऊपर के गुणस्थानों से पतित नहीं होते। ऋजुमति के जघन्य द्रव्य का प्रमाण औदारिक शरीर के निर्जीर्णं समयप्रबद्ध बराबर है और उत्कृष्ट द्रव्य का प्रमाण चक्षुरिन्द्रिय के निर्जरा द्रव्य प्रमाण है अर्थात् समूचे औदारिक शरीर से जितने परमाणुओं का प्रचय प्रत्येक समय खिरता है उसे उत्कृष्ट ऋजुमति ज्ञान जानता है। ऋजुमति के उत्कृष्ट द्रव्य में मनोद्रव्य वर्गणा के अनन्तवें भाग का भाग देने पर जो द्रव्य बचता है उसे जघन्य विपुलमति जानता है। विस्रसोपचय रहित आठ कर्मों के समयप्रबद्ध का जो प्रमाण है उसमें एक बार ध्रुवहार का भाग देने पर जो लब्ध आता है उतना विपुलमति के द्वितीय द्रव्य का प्रमाण है उस द्वितीय द्रव्य के प्रमाण में असंख्यात कल्पों के जितने समय हैं उतनी बार ध्रुवहार का भाग देने से जो शेष रहता है वह विपुलमति का उत्कृष्ट द्रव्य है। क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य ऋजुमतिज्ञान दो तीन कोश और उत्कृष्ट ऋजुमतिज्ञान सात आठ योजन की बात जानता है। जघन्य विपुलमति मन:पर्ययज्ञान आठ नौ योजन और उत्कृष्ट विपुलमति ज्ञान पैंतालीस लाख योजन विस्तृत क्षेत्र की बात जो जानता है। काल की अपेक्षा जघन्य ऋजुमतिज्ञान दो तीन भव और उत्कृष्ट ऋजुमति ज्ञान सात आठ भव की बात जानता है। जघन्य विपुलमतिज्ञान आठ नौ भव और उत्कृष्ट विपुलमतिज्ञान पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल की बात जानता है। भाव की अपेक्षा यद्यपि ऋजुमति का जघन्य और उत्कृष्ट विषय आवलि के असंख्यातवें भाग प्रमाण है तो भी जघन्य प्रमाण से उत्कृष्ट प्रमाण असंख्यातगुणा है। विपुलमतिका जघन्य प्रमाण ऋजुमति के उत्कृष्ट विषय में असंख्यातगुणा है, और उत्कृष्ट विषय असंख्यात लोक प्रमाण है। जो समस्त लोकालोक और तीन काल की बात को स्पष्ट जानता है उसे केवलज्ञान कहते हैं। यह केवलज्ञान, ज्ञानगुण की सर्वोत्कृष्ट पर्याय है। उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि ज्ञानमार्गणा के कुमति, कुश्रुत, कुअवधि, सुमति, सुश्रुत, सुअवधि, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान….इस प्रकार आठभेद है।। कुमति, कुश्रुत और कुअवधि मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में होते हैं। सुमति, सुश्रुत और सुअवधि चतुर्थ से लेकर बारहवें गुणस्थान तक होते हैं। मन:पर्याय ज्ञान छठवें से लेकर बारहवें गुणस्थान तक तथा केवलज्ञान तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में होता है।
अहिंसा आदि पांच महाव्रतों का धारण करना, ईर्या आदि पांच समितियों का पालन करना, क्रोधादि कषायों का निग्रह करना, मन वचन काय की प्रवृत्तिरूप दण्डों का त्याग करना और स्पर्शनादि पांच इन्द्रियों कावश करना संयम है। संयम शब्द की निष्पत्ति सम् उपसर्ग पूर्वक ‘यम— उपरमे’ धातु से हुई है जिसका अर्थ होता है अच्छी तरह से रोकना। कषाय से इच्छा होती है और इच्छा से मन वचन काय तथा इन्द्रियों की विषयों में प्रवृत्ति होती है। विषयों की तीव्र लालसा के कारण प्रमाद होता है और उनकी प्राप्ति में बाधक कारण उपस्थित होने पर क्रोधादि कषाय उत्पन्न होते हैं इसलिये सर्वप्रथम कषाय पर विजय प्राप्त करने का पुरुषार्थ करना चाहिये। संयम मार्गणा के निम्नलिखित सात भेद हैं— (१) सामायिक (२) छेदोपस्थापना (३) परिहारविशुद्धि (४) सूक्ष्मसाँपराय, (५) यथाख्यात (६) देशसंयम और (७) असंयम। करणानुयोग में मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, और प्रत्याख्यानावरण कषाय का अभाव होने पर तथा संज्वलन का उदय रहने पर संयम की प्राप्ति बतलाई गई है। सामान्यरूप से संग्रह नय की अपेक्षा ‘मैं समस्त पापकार्यों का त्यागी हूँ’ इस प्रकार की प्रतिज्ञा पूर्वक जो समस्त पापों का त्याग किया जाता है उसे सामायिक कहते हैं। यह संयम अनुपम तथा अत्यन्त दुष्कर है। ‘छेदेन उपस्थापना छेदोपस्थापना’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पांच पापों का पृथक््â—पृथक््â विकल्प उठाकर त्याग करना छेदोपस्थापना है अथवा ‘छेदे सति उपस्थापना छेदोपस्थापना’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार प्रमाद के निमित्त से सामायिकादि से च्युत होकर सावद्य—सपापकार्य के प्रति जो भाव होता है उसे दूर कर पुन: सामायिकादि में उपस्थित होना छेदोपस्थापना है। सामायिक और छेदोपस्थापना ये दो संयम, छठवें गुणस्थान से लेकर नौवें गुणस्थान तक रहते हैं। पाँच समितियों तथा तीन गुप्तियों से युक्त होकर जो सावद्य कार्य का सदा परिहार करना है उसे परिहार विशुद्धि संयम कहते हैं। जो जन्म से तीस वर्ष तक सुखी रहकर दीक्षा धारण करता है और तीर्थंकर के पादमूल में आठ वर्ष तक रहकर प्रत्याख्यान पूर्व का अध्ययन करता है उस मुनि के तपस्या के प्रभाव से यह संयम प्रकट होता है इस समय का धारक मुनि तीनों संध्याकालों को छोड़ कर दो कोस प्रमाण प्रतिदिन गमन करता है। वर्षाकाल में गमन का नियम नहीं है। यह संयम छठवें और सातवें गुणस्थान में ही होता है। उपशमश्रेणी अथवा क्षपश्रेणी वाले जीव के जब संज्वलन लोभ का सूक्ष्म उदय रह जाता है तब सूक्ष्मसाँघराय संयम प्रकट होता है। यह संयम मात्र दशम गुणस्थान में होता है। चारित्र मोहनीय कर्म का उपशम अथवा क्षय होने पर जो संयम प्रकट होता है उसे यथाख्यात संयम कहते हैं। आत्मा का जैसा वीतराग स्वभाव कहा गया है वैसा स्वभाव इस संयम में प्रकट होता है इसलिये इसका यथाख्यात नाम सार्थक है। औपशमिक यथाख्यात ग्यारहवें गुणस्थान में और क्षायिक यथाख्यात बारहवें आदि गुणस्थानों में प्रकट होता है। अप्रत्याख्यानावरण कषाय के अनुदय और प्रत्याख्यानावरण कषाय की उदय सम्बन्धी तरतमता से जो एक देश संयम प्रकट होता है उसे संयमासंयम कहते हैं। इसके दर्शन, व्रत आदि ग्यारह भेद होते हैं। यह संयामासंयमी मात्र पञ्चम गुणस्थान में होता है। चारित्रमोह के उदय से जो संयम का अभाव अर्थात् अविरति रूप परिणाम होते हैं उन्हें असंयम कहते हैं। यह असंयम प्रारम्भ के चार गुणस्थानों में होता है।
क्षायोपशमिक ज्ञान के पूर्व और क्षायिक ज्ञान के साथ केवलियों में जो पदार्थ का सामान्य ग्रहण होता है उसे दर्शन कहते हैं। दर्शन के चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन ये चार भेद हैं। चक्षु से देखने के पूर्व जो सामान्य ग्रहण होता है उसे चक्षुर्दर्शन कहते हैं। चक्षु के अतिरिक्त अन्य इन्द्रियों से होने वाले ज्ञान के पूर्व जो सामान्य ग्रहण होता है वह अचक्षुर्दर्शन कहलाता है। अवधिज्ञान के पूर्व जो सामान्य ग्रहण होता है उसे अवधिदर्शन कहते हैं और केवलज्ञान के साथ जो सामान्य ग्रहण होता है उसे केवलदर्शन कहते हैं। वीरसेन स्वामी ने सामान्य का अर्थ आत्मा किया है अत: उनके मत से आत्मावलोकन को दर्शन कहते हैं और पदार्थावलोकन को ज्ञान कहते है।। मन:पर्यय ज्ञान ईहामतिज्ञानपूर्वक होता है अत: मन:पर्यय दर्शन की स्थापना नहीं की गई है। मति और श्रुतज्ञान चक्षुर्दर्शन और अचक्षुर्दर्शन पूर्वक होते हैं। चक्षुर्दर्शन और अचक्षुर्दर्शन प्रथम गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक तथा अवधिदर्शन चतुर्थ गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक होता है। केवलदर्शन, तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान तथा सिद्ध अवस्था में विद्यमान रहता है।
जिसके द्वारा जीव अपने आपको पुण्य पाप से लिप्त करे उसे लेश्या कहते हैं यह लेश्या शब्द का निरूक्तार्थ है और कषाय के उदय से अनुरञ्जित योगों की प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं, यह लेश्या शब्द का वाच्यार्थ है। लेश्या के द्रव्य और भाव की अपेक्षा दो भेद हैं। वर्ण नामकर्म के उदय से जो शरीर का रूप रंग होता है वह द्रव्य लेश्या है और क्रोधादि कषायों के निमित्त से परिणामों में जो कलुषितपने की हीनाधिकता है वह भाव लेश्या है। द्रव्य लेश्या के कृष्ण नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल ये छह भेद स्पष्ट ही प्रतीत होते हैं। परन्तु भाव लेश्या के तारतम्य को भी आचार्यों ने इन्हीं कृष्ण, नील आदि रंग नहीं पाया जाता है। मात्र उनकी तरतमता बतलाने के लिये इन शब्दों का प्रयोग किया गया है। परिणामी की तरतमता इस दृष्टान्त से सरलता पूर्वक समझी जा सकती है। भूख से पीड़ित छह मनुष्य जंगल में भटक कर एक फैले हुए वृक्ष के नीचे पहुँचते हैं। उनमें से एक मनुष्य तो वृक्ष को जड़ से काटना चाहता है, दूसरा तने से, तीसरा शाखाओं से, चौथा टहनियों से, और पांचवां फलों से, छठवां मनुष्य वृक्ष के नीचे पड़े हुए फलों से अपनी भूख दूर करना चाहता है नवीन फल तोड़ना नहीं चाहता। जो अत्यन्त क्रोधी हो, भंडनशील हो, धर्म और दया से रहित हो, दुष्ट प्रकृति का हो, वैरभाव को नहीं छोड़ता हो तथा किसी के वश में नहीं आता हो वह कृष्ण लेश्यावाला है। जो मन्द हो, निर्बुद्धि हो, विषय लोलुप हो, मानी, मायावी, आलसी, अधिक निद्रालु और धनधान्य में तीव्र आसक्ति रखने वाला हो वह नील लेश्या वाला है। जो शीघ्र ही रूष्ट हो जाता है, दूसरे की निन्दा करता है, बहुत द्वेष रखता है, शोक और भय अधिक करता है, दूसरे से ईष्र्या करता है, अपनी प्रशंसा करता है, युद्ध में मरण चाहता है, हानि लाभ को नहीं समझता है तथा कार्य अकार्य का विचार नहीं करता वह कापोत लेश्या का धारक है। जो कार्य अकार्य को समझता है, सेव्य और असेव्य का विचार रखता है, दया और दान में तत्पर रहता है तथा स्वभाव का मृदु होता है वह पीत लेश्या वाला है। जो त्यागी, भद्र, क्षमाशील और साधु तथा गुरुओं की पूजा में रत रहता है वह पद्म लेश्या वाला है। जो पक्षपात नहीं करता है, निदान नहीं करता है, सबके साथ समान व्यवहार करता है जिसके राग नहीं है, द्वेष नहीं है और स्नेह भी नहीं है वह शुक्ल लेश्या वाला है। प्रारम्भ से चतुर्थ गुणस्थान तक छहों लेश्याएँ होती हैं, पांचवें से सातवें तक पीत पद्म और शुक्ल ये तीन लेश्याएँ होती हैं आगे उसके तेरहवें गुणस्थान तक शुक्ल लेश्या होती है। यद्यपि ग्यारहवें से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक कषाय का अभाव है तो भी भूतपूर्व प्रज्ञापन नय की अपेक्षा वहाँ लेश्या का व्यवहार होता है। चौदहवें गुणस्थान में योग प्रवृत्ति का भी अभाव हो जाता है अत: वहाँ कोई लेश्या नहीं होती।
जो सम्यग्दर्शनादि गुणों से युक्त होगा उसे भव्य कहते हैं और जो उनसे युक्त नहीं होगा उसे अभव्य कहते हैं। भव्य, कभी अभव्य नहीं होता और अभव्य कभी भव्य नहीं होता। अभव्य जीव के एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ही होता है और भव्य जीव के चौदहों गुणस्थान होते हैं। सिद्ध होने पर भव्यत्व भाव का अभाव हो जाता है।
सात तत्व अथवा नव पदार्थ के यथार्थ श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं। इसके औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक के भेद से तीन भेद हैं। मिथ्यात्व, सम्यग् मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्क इन सात प्रकृतियों के उपशम से जो होता है उसे औपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं। उपर्युक्त सात प्रकृतियों के क्षय से जो होता है उसे क्षायिक कहते हैं और मिथ्यात्व, सम्यङ्मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्क इन छह सर्वधाति प्रकृतियों के उदयाभावी क्षय तथा सद्वस्थारूप उपशम तथा सम्यक्त्व प्रकृति नामक देशघाति प्रकृति के उदय से जो होता है वह क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहलाता है। औपशमिक सम्यक्त्व के प्रथमोपशम और द्वितीयोपशम की अपेक्षा दो भेद हैं। प्रथमोपशम का लक्षण ऊपर लिखे अनुसार है। द्वितीयोपशम में अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना अधिक होती है। उपर्युक्त तीन सम्यक्त्वों के अतिरिक्त सम्यक्त्व मार्गणा के मिश्र, सासादन और मिथ्यात्व इस प्रकार तीन भेद और होते हैं। मिथ्यात्व, प्रथम गुणस्थान में, सासादन, द्वितीय गुणस्थान में, मिश्र, तृतीय गुणस्थान में, प्रथमोपशम सम्यक्त्व और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व चतुर्थ गुणस्थान से सातवें तक द्वितीयोपशम सम्यक्त्व चतुर्थ से ग्यारहवें तक और क्षायिक सम्यक्त्व, चतुर्थ से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक तथा उसके बाद सिद्ध पर्याय में भी अनन्त काल तक विद्यमान रहता है। औपशमिक और क्षायोशमिक ये दो सम्यक्त्व असंख्यात बार होते हैं और छूटते हैं परन्तु क्षायिक सम्यक्त्व होकर कभी नही छूटता है। क्षायिक सम्यक्त्व का धारक जीव पहले भव में, तीसरे भव में अथवा चौथे भव में नियम से मोक्ष चला जाता है।
जो मन सहित हो उसे संज्ञी कहते हैं। संज्ञी जीव मन की सहायता से शिक्षा आलाप आदि के ग्रहण करने में समर्थ होता है। जो मन रहित होता है उसे असंज्ञी कहते हैं। असंज्ञी जीव के एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ही होता है परन्तु संज्ञी जीव के चौदहों गुणस्थान होते हैं।
शरीर रचना के योग्य नोकर्म वर्गणाओं के ग्रहण करने को आहार कहते हैं। जो आहार को ग्रहण करता है उसे आहारक कहते हैं। इसके विपरीत जो आहार को ग्रहण नहीं करता है उसे अनाहारक कहते हैं। विग्रहगति में स्थित जीव, केवली समुद्घात के प्रतर और लोकपूरण भेद में स्थित केवली, अयोग केवली और सिद्ध परमेष्ठी अनाहारक हैं, शेष आहारक हैं। गुणस्थानों की अपेक्षा अनाहारक अवस्था प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ, समुद्घातकेवली और अयोगकेवली नामक तेरहवें चौदहवें गुणस्थानों में होती है। इस प्रकार गति आदि चौदह मार्गणाओं में यह जीव अनादि काल से परिभ्रमण कर रहा है।