जो विषयों की आशा से रहित, आरम्भ-परिग्रह से रहित, दिगम्बर वेषधारी, ज्ञान, ध्यान और तप में लीन रहते हैं, वे ही सच्चे गुरु हैं। सम्यग्दर्शन के आठ अंग-नि:शंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना। नि:शंकित-देव, गुरु और शास्त्रस्वरूप तत्त्व यही है, इसी प्रकार ही है, दूसरा नहीं है और दूसरे प्रकार भी नहीं है, इस प्रकार दृढ़ श्रद्धान करना। निकांक्षित’-कर्माधीन, नष्ट होने वाले, दु:खमिश्रित और पाप के मूल ऐसे विषयजन्य में सुखों की इच्छा नहीं करना। निर्विचिकित्सा-स्वभाव से अपवित्र किन्तु रत्नत्रय से पवित्र मुनियों के शरीर में ग्लानि नहीं करना, प्रत्युत् गुणों में प्रीति करना। अमूढ़दृष्टि-दुःखों के कारणरूप खोटे मिथ्यादर्शनादि में तथा मिथ्यादृष्टि जीवों के विषय में मन से और शरीर से आदर नहीं करना, वचन से प्रशंसा नहीं करना। उपगूहन-स्वभाव से शुद्ध ऐसे रत्नत्रयस्वरूप मोक्षमार्ग में चलने वाले अज्ञानी, प्रमादीजनों से यदि कोई दोष हो जावे तो उसे दूर करना (ढक देना, प्रगट नहीं होने देना) उपगूहन है। स्थितिकरण-सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र से चलायमान होने वाले पुरुषों को धर्मप्रेम से पुन: उसी में स्थित कर देना। वात्सल्य-जैनधर्मावलम्बियों के प्रति मायाचार रहित तथा योग्य गोवत्स के समान धर्मप्रेम रखना। प्रभावना-अज्ञानरूपी अंधकार के प्रसार को दूर करके यथाशक्ति जिनधर्म के महत्त्व को प्रगट करना। श्री अमृतचन्द्रसूरि कहते हैं कि- ‘‘रत्नत्रयरूपी तेज से हमेशा से ही आत्मा की प्रभावना करना और दान, तप, जिनपूजा, विद्या और अतिशय-चमत्कार आदि के द्वारा जिनधर्म की प्रभावना करनी चाहिए। इन आठ अंगों में से यदि एक अंग भी कम है, तो वह सम्यग्दर्शन संसार की परम्परा को नष्ट करने में समर्थ नहीं होता है। लोकमूढ़ता-नदी और समुद्र में ‘इससे कल्याण होगा’ इस बुद्धि से स्नान करना, बालू और पत्थर के ढेर लगाना, पहाड़ के ऊपर से पड़ना, अग्नि में पड़ना लोकमूढ़ता है। देवमूढ़ता-ऐहिक सुख की इच्छा से और वर की आशा से राग-द्वेष से मलिन देवों की उपासना करना देवमूढ़ता है। पाखंडिमूढ़ता-परिग्रह, आरंभ और हिंसा से सहित ऐसे पाखंडी साधुओं का सत्कार करना गुरुमूढ़ता है। आठ मद-ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप और शरीर इन आठ का आश्रय लेकर मान करना। छह अनायतन-कुदेव, कुदेव को मानने वाले कुशास्त्र, कुशास्त्र के धारक, खोटी तपस्या, खोटी तपस्या के करने वाले ये छह अनायतन हैं।
पच्चीस दोष-ऊपर कहे हुए आठ अंग से विपरीत आठ दोष, आठ मद, तीन मूढ़ता और छह अनायतन ये पच्चीस मल दोष सम्यक्त्व को मलिन करने वाले हैं इसलिए इनका त्याग कर देना चाहिए। सम्यग्दर्शन के भेद-सम्यग्दर्शन के दो भेद हैं-निसर्गज और अधिगमज। जो सम्यक्त्व गुरु के उपदेश, प्रेरणा आदि निमित्तों की अपेक्षा नहीं रखता है वह निसर्गज है। जो सम्यक्त्व गुरु के उपदेश आदि बाह्य निमित्तों की प्रधानता से होता है वह अधिगमज है। इन दोनों सम्यक्त्वों में दर्शन मोहनीय का क्षय, क्षयोपशम या उपशमरूप अन्तरंग कारण समान है। सम्यग्दर्शन के तीन भेद भी हैं-औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक। सम्यग्दर्शन के दस भेद भी माने हैं-आज्ञा, मार्ग, उपदेश, सूत्र, बीज, संक्षेप, विस्तार, अर्थ से उत्पन्न होने वाले आठ भेद और अवगाढ़ तथा परमावगाढ़ ये दस भेद हैं। आज्ञा समुद्भव-दर्शन मोह के उपशान्त होने से ग्रंथ श्रवण के बिना केवल वीतराग भगवान की आज्ञा से ही जो तत्त्व श्रद्धान होता है, वह आज्ञा सम्यक्त्व है। मार्ग सम्यग्दर्शन-रत्नत्रयस्वरूप मोक्षमार्ग को कल्याणकारी समझकर श्रद्धान करना। उपदेश सम्यग्दर्शन-तिरेसठ शलाका पुरुषों के पुराण के उपदेश से जो तत्त्व श्रद्धान उत्पन्न होता है। सूत्र सम्यक्त्व-मुनि के चरित्र के अनुष्ठान करने वाले सूत्र को सुनकर श्रद्धान करना। बीज सम्यक्त्व-जिन जीवादि पदार्थों के समूह या गणितादि विषयों का ज्ञान दुर्लभ है, उनका किन्हीं बीज पदों के द्वारा ज्ञान प्राप्त करके श्रद्धान करना। संक्षेप सम्यक्त्व-पदार्थों के स्वरूप को संक्षेप से ही जान करके श्रद्धान करना। विस्तार सम्यक्त्व-बारह अंगों को सुनकर श्रद्धान करना। अर्थ सम्यक्त्व-अंग बाह्य आगमों को पढ़े बिना उनमें प्रतिपादित किसी पदार्थ के निमित्त से अर्थ का श्रद्धान करना। अवगाढ़ सम्यक्त्व-अंग बाह्य और अंग प्रविष्ट दोनों ही प्रकार के श्रुत को जानकर श्रद्धान करना। यह सम्यक्त्व श्रुतकेवली के होता है। परमावगाढ़ सम्यक्त्व-केवलज्ञान के द्वारा देखे गये पदार्थों के विषय में जो रुचि होती है, वह परमावगाढ़ सम्यक्त्व है अर्थात् केवली भगवान सम्पूर्ण विश्व को प्रत्यक्ष देखने वाले हैं, उनके सम्यक्त्व का नाम परमावगाढ़ सम्यक्त्व है।
संवेग-धर्म में प्रीति करना एवं संसार से भीति रखना। निर्वेद-संसार, शरीर एवं भोगों से विरक्ति। निन्दा-अपने दोषों के विषय में पश्चात्ताप। गर्हा-किये गये दोषों को गुरु के आगे प्रकट करके निन्दा करना। उपशम-क्रोधादि विकारों को शान्त करना। भक्ति”’-सम्यग्दर्शन आदि के विषयों में अनुराग करना। वात्सल्य-धर्मात्मा जन से प्रेमपूर्ण व्यवहार करना। अनुकम्पा-सभी प्राणियों में दयाभाव रखना। यह सम्यग्दर्शन मोक्ष महल पर चढ़ने के लिए प्रथम सीढ़ी है। इसके समान तीनों कालों में और तीनों जगत् में संसारी प्राणियों के लिए कोई भी कल्याणकारी उत्तम वस्तु नहीं है और मिथ्यात्व के समान तीनों लोकों में, तीनों कालों में कोई दु:खदायी वस्तु नहीं है। सम्यग्दृष्टि जीव मरकर एकेन्द्रिय, विकलत्रय, असैनी पंचेन्द्रिय जीवों में, नरक, तिर्यंच, मनुष्य गतियों में, स्त्री वेद, नपुंसक वेदों में, नीच कुल में जन्म नहीं लेता है। यदि पहले आयु बांधकर सम्यक्त्व प्राप्त किया है, तो प्रथम नरक मे जा सकता है तथा तिर्यंच, मनुष्यों में भोगभूमि का तिर्यंच, मनुष्य हो जाता है।