== संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय रहित पदार्थों का जानना सम्यग्ज्ञान है। इसके ग्यारह अंग, चौदह पूर्व रूप से भेद माने गये हैं अथवा प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग के भेद से चार भेद माने हैं। इन चारों अनुयोगों में सम्पूर्ण द्वादशांग का सार आ जाता है। प्रथमानुयोग-किसी एक महापुरुष के चरित का प्रतिपादन करने वाला, त्रेसठ शलाका पुरुषों के चरित का वर्णन करने वाला पुण्य के कारणभूत, बोधि-समाधि के स्थानभूत प्रथमानुयोग है। करणानुयोग-लोक-अलोक के विभाग को, दोनों कालों के परिवर्तन को और चारों गतियों को दर्पण के समान बतलाने वाला करणानुयोग है। चरणानुयोग-गृहस्थों और मुनियों के चारित्र की उत्पत्ति, वृद्धि और रक्षा के कारणों के प्रतिपादक शास्त्र चरणानुयोग कहलाते हैं। द्रव्यानुयोग-जीव और अजीव तत्त्वों के, पुण्य और पाप को तथा बंध-मोक्ष के प्रतिपादक शास्त्र द्रव्यानुयोग कहलाते हैं। श्री गुणभद्रसूरि कहते हैं कि- श्रुतस्वंधरूप वृक्ष अनेक धर्मात्मक पदार्थरूप पूल एवं फलों के भार से अतिशय झुका हुआ है, वचनोंरूप पत्तों से व्याप्त है, विस्तृत नयोंरूप सैकड़ों शाखाओं से युक्त है, उन्नत है तथा समीचीन एवं विस्तृत मतिज्ञानरूप जड़ से स्थिर है, उस श्रुतस्वंधरूप वृक्ष के ऊपर बुद्धिमान साधुओं को अपने मनरूपी बंदर को प्रतिदिन रमाना चाहिए अर्थात् चंचल मन को विषयों की ओर से खींचकर इस श्रुत के अभ्यास में लगाने से रागद्वेष की प्रवृत्ति नष्ट हो जाती है। इससे संवरपूर्वक कर्मों की निर्जरा होकर मोक्षसुख की प्राप्ति होती है। प्रस्तुत जैन भारती ग्रंथ में इन्हीं चारों अनुयोगों के अंश-अंश का वर्णन है।