अहिंसाणुव्रत-जो मन, वचन, काय से और कृत, कारित, अनुमोदनारूप से संकल्पपूर्वक त्रसजीवो का घात नहीं करता है, वह अहिंसाणुव्रत है।
सत्याणुव्रत-जो स्थूल असत्य स्वयं नहीं बोलता है और ऐसा सत्य भी नहीं बोलता जो कि धर्म की हानि या पर की विपत्ति (हिंसादि) के लिए कारण हो, वह एकदेश सत्यव्रत है।
अचौर्याणुव्रत-जो रखी हुई, भूली हुई या गिरी हुई दूसरे की सम्पत्ति को बिना दिये हुए ग्रहण नहीं करता है, वह अचौर्य अणुव्रत है।
ब्रह्मचर्याणुव्रत-जो पाप के भय से परस्त्री का त्याग कर देता है, वह चतुर्थ अणुव्रती है।
परिग्रह परिमाण अणुव्रत-धन, धान्य आदि परिग्रह का प्रमाण करके उससे अधिक में इच्छा रहित होना पाँचवां परिग्रह परिमाणव्रत है। ये पाँच अणुव्रत नियम से स्वर्ग को प्राप्त कराने वाले हैं। ‘अणुव्रत’१ और महाव्रतों को ग्रहण करने वाला जीव देवायु का ही बंध करता है, शेष तीन आयु के बंध हो जाने पर ये व्रत हो नहीं सकते हैं।’