१. स्नान की हुई स्त्री को मुख्य कर गर्भाधान के पहले अरहन्त देव की पूजा और मंत्रपूर्वक जो संस्कार किया जाता है, उसे ‘आधान’ क्रिया कहते हैं। उसकी विधि-जिन प्रतिमा के दार्इं तरफ तीन चक्र, बाईं तरफ तीन छत्र और तीन प्रकार की पुण्याग्नि स्थापित करें। दोनों दम्पत्ति अरहन्त भगवान की पूजा करके अग्नि कुण्डों में होम विधि करके पूजन विधि पूर्ण करें।
२. गर्भाधान के तीसरे महीने में ‘प्रीति’ नाम की क्रिया होती है।इस क्रिया में भी पूर्वोक्त विधि से अरहंत पूजन करना चाहिए। दरवाजे पर तोरण बांधना एवं दो पूर्ण कुंभ स्थापना करना चाहिए। उस दिन से प्रतिदिन नगाड़े आदि बाजे बजवाने चाहिए। प्रथम रजस्वला हुई चतुर्थ दिवस स्नान करके शुद्ध हुई, ऐसी स्त्री की विवक्षा है।इस स्त्री को पति के साथ पूर्वोक्त विधि से पूजन और होम करावें अनन्तर उन दम्पत्ति को विषयानुराग के बिना केवल सन्तान के लिए समागम करना चाहिए, यह गर्भाधान क्रिया कहलाती है ।
३. गर्भाधान के पाँचवे महीने में ‘सुप्रीति’ क्रिया की जाती है, इसमें भी पूर्वोक्त पूजन विधि है ।
४. सातवें महीने में पूर्वोक्त विधि से ‘धृति’ क्रिया की जाती है ।
५. गर्भ से नौवें महीने में ‘मोद’ नाम की क्रिया की जाती है।इस क्रिया में द्विज विद्वान् गर्भिणी के शरीर पर गात्रिका मंत्रपूर्वक बीजाक्षर लिखते हैं और मंगलाचार करके, आभूषण पहनाकर उसकी रक्षा के लिए उसे कंकण सूत्र बांधते हैं।
६. पुत्र के उत्पन्न होने से ‘प्रियोद्भव’ या जात कर्म क्रिया होती है ।
७. जन्म से बारहवें दिन शुभ नक्षत्र आदि में ‘नामकर्म’ क्रिया की जाती है।इसमें भी अरहन्त देव, ऋषिगणों की पूजन माना है ।
८. दूसरे, तीसरे महीने में मंगल क्रिया, मंगल वाद्यपूर्वक बालक को प्रसूतिगृह से बाहर निकालना ‘बहिर्यान’ क्रिया है ।
९. उस बालक को शय्या पर बिठाकर ‘निषद्या’ क्रिया की जाती है ।
१०. जन्म से सात-आठ महीने बीत जाने पर भगवान की पूजनपूर्वक बालक को अन्न खिलाना ‘अन्नप्राशन’ क्रिया है।
११. एक वर्ष पूर्ण होने पर वर्षवर्धन या वर्षगांठ मनाने को ‘व्युष्टि’ क्रिया कहते हैं।
१२. किसी शुभ दिन पूजन के बाद बालक का मुंडन करना ‘केशवाप’ या ‘चौल’ क्रिया है ।
१३. बालक को पाँचवे वर्ष अक्षरों का दर्शन कराने के लिए ‘लिपि संख्यान संग्रह’ क्रिया की जाती है।
१४. गर्भ से आठवें वर्ष में बालक की ‘उपनीति क्रिया’ यज्ञोपवीत संस्कार क्रिया होती है ।
१५. आगे कटि चिन्ह-करधनी, जंघा का चिन्ह-श्वेत धोती, उरोलिंग-जनेऊ और शिरोलिंग-चोटी, इन ब्रह्मचर्य व्रत के योग्य चिन्ह को धारण करना ‘व्रतचर्या’ क्रिया है।इसमें पलंग पर सोना, उबटन लगाना आदि त्याज्य है।पाँच अणुव्रत आदि व्रत हैं। विद्या का अभ्यास करने तक ब्रह्मचर्यपूर्वक गुरुमुख से उपासकाचार पढ़कर अध्यात्म शास्त्र, व्याकरण, न्याय, ज्योतिष, छन्द, अलंकार, कोष, गणित शास्त्र आदि पढ़ने चाहिए।
१६. विद्याभ्यास समाप्त होने पर यज्ञोपवीत, पांच अणुव्रत, अष्ट मूलगुण आदि व्रतों के सिवाय पृथ्वी पर शयन, आभूषण त्याग आदि व्रतों को बारह वर्ष या सोलह वर्ष बाद त्याग कर देना ‘व्रतावरण’ क्रिया है।इस क्रिया के बाद गुरु की आज्ञानुसार वस्त्र, माला, आभूषण आदि ग्रहण किये जाते हैं।
१७. अनन्तर गुरुआज्ञापूर्वक सुकुल मे उत्पन्न कन्या के साथ विधिवत् विवाह होना विवाह क्रिया है ।
१८. पिता की आज्ञानुसार, धन, धान्य सम्पदा लेकर अलग रहना ‘वर्णलाभ’ क्रिया है ।
१९. पिता के द्वारा स्वतंत्रता प्राप्त कर विशुद्ध रीति से जीविका करना और देवपूजा आदि षट्कर्म करना ‘कुलचर्या’ क्रिया है।
२०. कुलचर्या के बाद गृहस्थाचार्य बनने योग्य क्रियाएँ कराते हुए ‘गृहीशिता क्रिया’ प्राप्त करना चाहिए।
२१. अनन्तर अपने पुत्र पर सब गृहभार छोड़कर स्वाध्याय और उपवास आदि करते हुए अत्यन्त शान्ति प्राप्त करना ‘प्रशान्ति’ क्रिया है ।
२२. वह श्रावक जब गृह छोड़ने को उद्यत होता है, तब ‘गृहत्याग’ क्रिया होती है ।
२३. गुरु के पास जाकर क्षुल्लक दीक्षा लेना ‘दीक्षाद्य’ क्रिया है ।
२४. जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण करना ‘जिनरूपता’ क्रिया है।
२५. वह साधु शास्त्रज्ञान की समाप्ति होने पर्यंत मौनपूर्वक अध्ययन करता है, यह ‘मौनाध्ययनवृत्तित्व’ क्रिया है ।
२६. तीर्थंकर पद के कारणभूत सोलहकारण भावनाओं का चिन्तवन करना ‘तीर्थकृद्भावना’ नाम की क्रिया है ।
२७. गुरु के आचार्यपद के प्राप्त करने योग्य होकर आचार्यपद प्राप्त करना ‘गुरु स्थानाभ्युपगम’ क्रिया है ।
२८. चतुर्विध संघ के पालन करने में तत्पर होना ‘गणोपग्रहण’ नाम की क्रिया है ।
२९. अपने योग्य शिष्य को आचार्य पद भार समर्पण करना ‘स्वगुरुस्थानावाप्ति’ क्रिया है ।
३०. शिष्य, पुस्तक आदि से ममत्व छोड़कर नि:संग होना, आत्म भावना में तन्मय होना नि:संगत्वात्मभावना’ क्रिया है ।
३१. मोक्ष में अपनी बुद्धि स्थापन कर ध्यान में तत्पर होना ‘योग निर्वाण सम्प्राप्ति’ क्रिया है ।
३२. चतुराहार त्यागकर शरीर के छोड़ने में उद्युक्त होना ‘योगनिर्वाणसाधना’ क्रिया है ।
३३. मन, वचन, काय के योगों की समाधि लगाकर प्राणों का त्यागकर इन्द्रपद में उत्पन्न होना ‘इन्द्रोपपाद’ क्रिया है ।
३४. वहाँ जन्म होने के बाद देवगण मिलकर इन्द्र का अभिषेक करते हैं, वह ‘इन्द्राभिषेक’ क्रिया है ।
३५. अनन्तर नमस्कार करते हुए देवों को उन-उनके पद पर नियुक्त करना ‘विधिदान’ क्रिया है ।
३६. देवों से वेष्टित इन्द्र बहुत काल तक स्वर्ग सुख का अनुभव करता है, वह ‘सुखोदय’ नाम की क्रिया है ।
३७. इन्द्र का अपनी आयु अल्प समझकर सबको समझाकर इन्द्र पद का त्याग करना ‘इन्द्रपद त्याग’ क्रिया है ।
३८. गर्भ में आने के छह महीने पहले माता को सोलह स्वप्न, रत्न वर्षा आदि का होना पुन: वहाँ से च्युत होकर माता के गर्भ में आना ‘इन्द्रावतार’ क्रिया है ।
३९. हिरण्यगर्भ भगवान हिरण्योत्कृष्ट जन्मधारण करते हैं, इस प्रकार गर्भ में ही मति, श्रुत, अवधिज्ञान के धारक भगवान की ‘हिरण्योत्कृष्ट जन्मता’ क्रिया है ।
४०. भगवान का जन्म होने पर इन्द्रगण आकर सुमेरु पर ले जाकर अभिषेक करते हैं, यह ‘मंदराभिषेक’ क्रिया है ।
४१. बिना किसी के शिष्य बने ही भगवान सबके गुरु हैं अत: इन्द्र आकर सर्व जगत् के गुरु का पूजन करता है, वह ‘गुरुपूजन’ क्रिया है ।
४२. कुमारकाल प्राप्त होने पर भगवान को युवराजपद का पट्ट बंध किया जाता है, वह ‘यौवराज्य’ क्रिया है ।
४३. सम्राट् पद पर अभिषिक्त होना ‘स्वराज्य’ क्रिया है ।
४४. चक्ररत्न की प्राप्ति होने पर ‘चक्रलाभ’ क्रिया होती है ।
४५. चक्ररत्न को आगे कर दिशाओं को जीतना ‘दिशांजय’ क्रिया है ।
४६. दिग्विजय पूर्ण कर अपने नगर में प्रवेश करने पर ‘चक्राभिषेक’ नाम की क्रिया होती है।
४७. साम्राज्यपद पर अभिषिक्त होकर भगवान अनेक राजाओं को योग्य शिक्षा देकर न्याय नीति बतलाते हैं, यह ‘साम्राज्य’ क्रिया है।
४८. राज्य से विरक्त होने पर लौकांतिक देवों द्वारा स्तुत्य भगवान स्व-पुत्र को राज्य देकर दीक्षा के लिए जाते हैं, वह ‘निष्क्रान्ति’ क्रिया है।
४९. वे भगवान बाह्याभ्यन्तर परिग्रह को छोड़कर ध्यान में लीन होते हैं, तब केवलज्ञान तेज प्रकट हो जाता है, वह ‘योग सम्मह’ क्रिया है ।
५०. केवलज्ञान उत्पन्न होने पर समवसरण की रचना होती है, वह ‘आर्हंत्य’ क्रिया है ।
५१. धर्मचक्र को आगे कर भगवान का विहार होता है, वह ‘विहार’ क्रिया है ।
५२. विहार समाप्त होकर समवसरण विघटित हो जाने पर भगवान के योग-निरोध होता है, वह ‘योगनिरोध’ क्रिया है ।
५३. अघातिया कर्मों का नाश हो जाने से मोक्ष के स्थान में पहुँच जाने पर ‘अग्रनिर्वृत्ति’ क्रिया होती है। इस प्रकार गर्भाधान से लेकर निर्वाणपर्यन्त सब मिलाकर तिरेपन क्रियाएँ होती हैं। भव्य जीवों को उनका सदा अनुष्ठान करना चाहिए।