चतुर्दशी के दिन देववन्दना में सिद्ध, चैत्य, श्रुत, पंचगुरु और शांति इस तरह पाँच भक्तियाँ करनी चाहिए अथवा चैत्य, पंचगुरु के मध्य में श्रुतभक्ति करके तीन भक्तियाँ ही करना चाहिए। अष्टमी के दिन सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति, आलोचना सहित चारित्रभक्ति अर्थात् चारित्रभक्ति करके ‘इच्छामि भंते अट्ठमियम्हि’ इत्यादि आलोचना बोलकर शान्तिभक्ति करके समाधि भक्ति करें। आष्टान्हिक पर्व में पौर्वाह्निक स्वाध्याय के अनन्तर सभी साधु मिलकर सिद्ध, नन्दीश्वर, पंचगुरु और शान्ति भक्ति का पाठ करें। ऐसे ही श्रुतपंचमी आदि की क्रियाओं को ग्रंथों से देखना चाहिए। वर्षायोग-आषाढ़ शुक्ला त्रयोदशी के दिन ‘मंगलगोचर मध्यान्ह वन्दना’ करके आहार के अनन्तर बृहत् सिद्धभक्ति, योगभक्तिपूर्वक उपवास ग्रहण करके बृहत् आचार्यभक्ति, बृहतशान्तिभक्ति करें। अनन्तर आषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी को पूर्वरात्रि में वर्षायोगप्रतिष्ठापना में क्रिया-कलाप के आधार से सिद्धभक्ति, योगभक्ति, चैत्यभक्ति आदि क्रियाएँ करके वर्षायोग ग्रहण कर लेवें। अनन्तर उपवासपूर्वक कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की पश्चिम रात्रि में आगमोक्त भक्तिपाठपूर्वक ‘‘वर्षायोगनिष्ठापना’’ करके रात्रिकप्रतिक्रमण करें पुन: वीरनिर्वाण क्रिया करें। इसमें सिद्धभक्ति, निर्वाणभक्ति, पंचगुरुभक्ति और शान्तिभक्ति की जाती है। बाद में देववन्दना करें। तीर्थंकरों के कल्याणक स्थानों की वंदना में, मुनियों, आचार्यों की निषद्या वन्दना में भी शास्त्रोक्त भक्तियों का पाठ करके कृतिकर्मपूर्वक वंदना की जाती है। इस प्रकार यहाँ संक्षेप में मुनियों की नित्य-नैमित्तिक क्रियाओं को बताया है। इस प्रकार साधु अपनी नित्य-नैमित्तिक क्रियाओं को करते हुए शक्ति के अनुसार कर्मदहन, चारित्र शुद्धि, सिंहनिष्क्रीडित आदि व्रतों का अनुष्ठान भी करते हैं। इन व्रतों के द्वारा अपने कर्मों की निर्जरा करते हुए तथा सातिशय पुण्य बंध करते हुए अपने संसार को बहुत ही लघु कर लेते हैं अर्थात् दो-चार भवों में जल्दी ही मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं। ये मुनि दश धर्मों का पालन करते हैं। षोडशकारण भावनाओं के चिन्तवन से तीर्थंकर प्रकृति का बंध करके तीन लोकों के भव्य जीवों का अनुग्रह करने में समर्थ हो जाते हैं।