मोह और योग के निमित्त से होने वाले जीव के परिणामों को गुणस्थान कहते हैं, ये चौदह होते हैं।
मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, असंयत, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्त विरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसांपराय, उपशांतकषाय, क्षीणकषाय, सयोगकेवली और अयोगकेवली।
मिथ्यात्व – मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से उत्पन्न होने वाले मिथ्या परिणामों का अनुभव करने वाला जीव विपरीत श्रद्धान वाला हो जाता है,
जैसे-पित्त ज्वर से युक्त जीव को मीठा रस भी अच्छा मालूम नहीं होता, उसी प्रकार से मिथ्यात्वी जीव को यथार्थ धर्म रुचिकर नहीं होता है।
सासादन – उपशम सम्यक्त्व के अन्तर्मुहूर्त काल में जब जघन्य एक समय तथा उत्कृष्ट छह आवली प्रमाणकाल शेष रहे, उतने काल में अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ में से किसी के भी उदय में आने से सम्यक्त्व की विराधना होने से जो अव्यक्त परिणाम होता है, उसे सासादन कहते हैं।
मिश्र – सम्यक्त्वमिथ्यात्व नामक प्रकृति के उदय से दही और गुड़ के मिश्रित स्वाद के सदृश जो मिश्र परिणाम होता है, उसे मिश्र गुणस्थान कहते हैं।
असंयत – अनन्तानुबंधी की चार और दर्शन मोहनीय की तीन ऐसी सात२ प्रकृतियों के उपशम से उपशमसम्यक्त्व होता है और सातों के क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व होता है तथा देशघाती सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से जो सम्यक्त्व होता है, उसे वेदकसम्यक्त्व कहते हैं। इस वेदक में चल, मलिन और अगाढ़ दोष भी लगते रहते हैं। यह सम्यग्दृष्टि जीव इन्द्रिय विषयों से और त्रसस्थावर की हिंसा से विरत नहीं रहता है, फिर भी अनर्गल प्रवृत्ति न करते हुए जिनेन्द्र भगवान के वचनों पर श्रद्धान करता है, इसलिए असंयत सम्यग्दृष्टि कहलाता है।
देशविरत – जो एक ही समय में त्रस हिंसा से विरत और स्थावर हिंसा से अविरत होता है, वह सम्यग्दृष्टि एकदेश व्रतों को पालन करने वाला देशविरत कहलाता है।
प्रमत्तविरत – संज्वलन कषाय और नोकषाय के उदय से जो संयम होता है, उसमें मल को उत्पन्न करने वाला प्रमाद रहता है इसलिए इसे प्रमत्तविरत कहते हैं।
अप्रमत्तविरत – जब संज्वलन कषाय और नोकषाय का मंद उदय होता है, तब प्रमाद का अभाव होने से इस गुणस्थान को अप्रमत्तसंयत कहते हैं।
अपूर्वकरण – इस गुणस्थान में पूर्व में प्राप्त नहीं हुए ऐसे अपूर्व-अपूर्व विशुद्ध परिणामों को प्राप्त करता हुआ यह जीव भिन्नसमयवर्ती जीवों के परिणामों की सदृशता को प्राप्त नहीं होता है।
अनिवृत्तिकरण – यहाँ पर एक समयवर्ती नाना जीवों के परिणामों में पाई जाने वाली विशुद्धि में परस्पर भेद नहीं पाया जाता अतएव इन परिणामों को अनिवृत्तिकरण कहते हैं।
सूक्ष्मसांपराय – जो जीव अत्यन्त सूक्ष्म लोभ कषाय मात्र से युक्त है, उसको सूक्ष्मसांपराय नामक दशम गुणस्थानवर्ती कहते हैं।
उपशांत कषाय – सम्पूर्ण मोहनीय कर्म के उपशम से उत्पन्न होने वाले निर्मल परिणाम को उपशान्त कषाय नामक ग्यारहवाँ गुणस्थान कहते हैं।
क्षीणकषाय – जिस निर्ग्रन्थ का चित्त मोहनीय कर्म के सर्वथा नष्ट हो जाने से निर्मल हो गया है, उसे क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती कहते हैं।
सयोगकेवली – जो बारहवें गुणस्थान के अन्त में तीन घाति और कुछ अघाति प्रकृतियों का अन्त करके केवलज्ञान को प्राप्त करके नव केवललब्धि से सहित हो जाते हैं, वे सयोगकेवली हैं।
अयोगकेवली – जो अठारह हजार शील के भेदों के स्वामी हैं, पूर्ण संवर व निर्जरा के अंतिम पात्र होने से मुक्तावस्था के सन्मुख हैं, वे काययोग से भी रहित अयोगकेवली कहलाते हैं।
सिद्ध – इन चौदह गुणस्थानों के अनन्तर गुणस्थानातीत सिद्ध होते हैं, वे अष्टकर्मों से रहित, शान्तिमय, निरंजन, सम्यक्त्व आदि आठ गुणों से सहित, कृतकृत्य हो चुके हैं और लोक के अग्रभाग में निवास करने वाले हैं, उन्हें सिद्ध कहते हैं।