सुदर्शन – गुरुजी! आपने जीवसमास में पर्याप्त-अपर्याप्त बताया है, सो ये क्या है?
अध्यापक – हाँ सुनो! जिस प्रकार से घर, घड़ा आदि पदार्थ पूर्ण (पूरे) बने हुए और अपूर्ण (अधूरे) ऐसे दो प्रकार से देखे जाते हैं उसी प्रकार से जीव भी पर्याप्ति नाम कर्म के उदय से पर्याप्त-पूर्ण और अ पर्याप्ति नाम कर्म के उदय से अपर्याप्त-अपूर्ण होते हैं। जब यह जीव एक शरीर को छोड़कर (मरकर) दूसरे शरीर को ग्रहण करता है, उस समय ग्रहण किये गये शरीर आदि के योग्य पुद्गल वर्गणाओं को शरीर या इन्द्रिय आदिरूप परिणमाने की जीव की शक्ति के पूर्ण हो जाने को पर्याप्ति कहते हैं।
सुदर्शन – पर्याप्ति के कितने भेद है?
अध्यापक – पर्याप्ति के छह भेद होते हैं-आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन। एकेन्द्रिय जीव के प्रारंभ की चार, विकलत्रय और असैनी पंचेन्द्रिय के पाँच और सैनी पंचेन्द्रिय के छहों पर्याप्तियाँ होती हैं।
सुदर्शन – ये पर्याप्तियाँ पूर्ण कब होती हैं? हमारी पूर्ण हुई या नहीं?
अध्यापक – ये सभी पर्याप्ति यहाँ अन्तर्मुहूर्त-४८ मिनट के अंदर ही अंदर में पूर्ण हो जाती हैं। मनुष्यों की माता के गर्भ में जल के बुलबुले के समान शरीर में आते ही ४८ मिनट के भीतर ही भीतर ये छहों पर्याप्तियाँ पूर्ण हो जाती हैं। पीछे धीरे-धीरे शरीर बनता रहता है और नव महीने में जन्म होता है।
इसलिए तुम्हारी पर्याप्तियाँ तो गर्भ में ही पूर्ण हो चुकी थीं। जिनकी पर्याप्ति पूर्ण नहीं होती हैं और मर जाते हैं, उनका शरीर पूरा बन नहीं पाता है। वह अपर्याप्त शरीर हम लोगों को नहीं दिख सकता है। ऐसे जीव एक श्वास के समय में १८ बार जन्म-मरण कर लेते हैं।