मार्गणा शब्द का अर्थ है अन्वेषण। जिन भावों के द्वारा अथवा जिन पर्यायों में जीव का अन्वेषण किया जावे उनका नाम ‘मार्गणा’ है। मार्गणा के चौदह भेद-‘गति इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञा और आहार ये चौदह मार्गणाएं हैं।’’ गति-गति नामकर्म के उदय से होने वाली जीव की पर्याय को गति कहते हैं। उसके चार भेद हैं-नरकगति, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति और देवगति। इन्द्रिय-इन्द्र का अर्थ आत्मा है उसके चिन्ह को इन्द्रिय कहते हैं अथवा जो अपने-अपने विषय में अहमिन्द्रों के समान स्वतंत्र हों उन्हें इन्द्रिय कहते हैं। उसके पाँच भेद हैं-स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र। इन इन्द्रियों की अपेक्षा से ही एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीव होते हैं। काय-जाति नामकर्म के अविनाभावी त्रस और स्थावर नामकर्म के उदय से होने वाली आत्मा की पर्याय को जिनमत में काय कहते हैं। इसके छह भेद हैं-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस। पृथ्वीकायिक नामकर्म के उदय से जिनका शरीर पृथ्वी रूप हो उसे पृथ्वीकायिक जीव कहते हैं, ऐसे ही सर्वत्र समझना। पाँच स्थावरों में बादर और सूक्ष्म से दो भेद होते हैं और त्रस जीव बादर ही होते हैं। बादर का लक्षण-बादर नामकर्म के उदय से जो शरीर दूसरे को रोकने वाला हो अथवा जो स्वयं दूसरे से रुके उसको बादर-स्थूल कहते हैं। सूक्ष्म का लक्षण-सूक्ष्म नामकर्म के उदय से जो शरीर दूसरे को न तो रोके और न स्वयं दूसरे से रुके उसको सूक्ष्म कहते हैं।
इनमें से स्थूल शरीर आधार की अपेक्षा रखते हैं किन्तु सूक्ष्म शरीर बिना किसी अन्तर के ही लोक में सर्वत्र अनन्तानन्त भरे हुए हैं। वनस्पति के दो भेद हैं-प्रत्येक और साधारण। प्रत्येक के दो भेद हैं-सप्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित। जिसके आश्रित अनेकों निगोदिया जीव रहते हैं उसे सप्रतिष्ठित कहते हैं और जिनके अन्य जीव नहीं है उसे अप्रतिष्ठित कहते हैं। साधारण के दो भेद हैं-नित्यनिगोद और इतर निगोद। जिन्होंने अभी तक निगोद वास को नहीं छोड़ा है वे नित्यनिगोद और जो निगोद से निकलकर स्थावरकाय और त्रसकाय मे आकर पुन: निगोद में गये हैं। वे इतर निगोद कहलाते हैं। साधारण का लक्षण-इन साधारण जीवों का समान ही आहार होता है एक साथ ही श्वासोच्छ्वास ग्रहण होता है। जब एक जीव मरण करता है वहाँ पर अनन्त जीवों का मरण और जहाँ पर एक जीव उत्पन्न होता है वहाँ अनन्त जीवों का उत्पाद होता है। इनकी आयु भी अन्तर्मुहूर्त मात्र ही है। ‘‘द्रव्य की अपेक्षा से समस्त सिद्ध राशि से और सम्पूर्ण अतीत काल के समयों का जितना प्रमाण है उससे अनन्तगुणे जीव एक निगोद शरीर में रहते हैं।’’ स्थावर-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति ये पांच स्थावर कहलाते हैं। त्रस-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीव त्रस कहलाते हैं। योगमार्गणा-पुद्गलविपाकी शरीर नामकर्म के उदय से मन, वचन, काय से युक्त जीव की जो कर्मों के ग्रहण करने में कारणभूत शक्ति है उसे योग कहते हैं।
उसके १५ भेद हैं-चार मनोयोग, चार वचनयोग और सात काययोग। ४ मनोयोग-सत्य मनोयोग, असत्य मनोयोग, उभय मनोयोग और अनुभय मनोयोग। ४ वचनयोग-सत्य वचनयोग, असत्य वचनयोग, उभय वचनयोग और अनुभय वचनयोग। ७ काययोग-औदारिक, औदारिक मिश्र, वैक्रियक, वैक्रियक मिश्र, आहारक, आहारक मिश्र और कार्माण। वेद मार्गणा-मोहनीय कर्म के अन्तर्गत वेदकर्म के उदय से जीवों के भाववेद होता है और निर्माण नामकर्म सहित अंगोपांगनामकर्म के उदय से द्रव्यवेद होता है। देवगति और नरकगति में जो द्रव्यवेद होता है वही भाववेद होता है। मनुष्य और तिर्यंच गति में कदाचित् किसी जीव में विषमता भी हो जाती है। इसलिए द्रव्यवेद पुरुष होने से भाव वेद चाहे स्त्री हो, चाहे पुरुष, चाहे नपुंसक तीनों भाववेदों में से किसी से भी मुक्ति हो जाती है। वेद के तीन भेद हैं-स्त्रीवेद, पुरुष और नपुंसकवेद। कषाय मार्गणा-जो सम्यक्त्व, देशचारित्र, सकलचारित्र और परिणामों को ‘कषंति’ कषे-घाते उसे कषाय कहते हैं। कषाय के २५ भेद हैं-अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ। अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ। प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ और संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ ये सोलह कषायें हैं। नव नोकषाय-हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद। ये सब मिलकर २५ कषायें हैं। ज्ञान मार्गणा-जिसके द्वारा जीव भूत, भविष्यत्, वर्तमान काल संबंधी समस्त द्रव्य और उनके गुण तथा उनकी अनेक प्रकार की पर्यायों को जाने उसको ज्ञान कहते हैं। ज्ञान के पाँच भेद हैं-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान। आदि के मति, श्रुत, अवधि ये ज्ञान मिथ्याज्ञान भी हैं। ज्ञान के मिथ्या होने में अंतरंग कारण मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबंधी कषाय का उदय है। कुमतिज्ञान-दूसरे के उपदेश के बिना ही विष ,यंत्र, कूट, पंजर तथा बंध आदि के विषय अणुबम आदि हिंसक अस्त्रों के विषय में जो बुद्धि प्रवृत्त होती है उसे कुमति ज्ञान कहते हैं। कुश्रुतज्ञान-चौर शास्त्र, हिंसा शास्त्र, महाभारत, रामायण आदि के परमार्थ शून्य उपदेश मिथ्या श्रुतज्ञान कहलाते हैं। विभंगज्ञान-विपरीत अवधिज्ञान को विभंगज्ञान कहते हैं। मतिज्ञान-इन्द्रिय और मन की सहायता से होने वाले ज्ञान को मतिज्ञान कहते हैं। उसके अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चार भेद हैं। श्रुतज्ञान-मतिज्ञान के विषयभूत पदार्थ से भिन्न पदार्थ के ज्ञान को श्रुतज्ञान कहते हैं।
यह ज्ञान नियम से मतिज्ञानपूर्वक होता है। इन श्रुतज्ञान के अक्षरात्मक अनक्षरात्मक इस तरह अथवा शब्दजन्य और लिंगजन्य इस तरह दो भेद हैं। अवधिज्ञान-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से जिसका विषय सीमित हो उसे अवधिज्ञान कहते हैं। इसके दो भेद हैं-भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय अथवा देशावधि, परमावधि और सर्वावधि ऐसे तीन भेद हैं। मन:पर्ययज्ञान-दूसरे के मन में स्थित पदार्थ जिसके द्वारा जाना जाये उस ज्ञान को मन:पर्यय कहते हैं। यह मन:पर्यय ज्ञान मनुष्य क्षेत्र में ही उत्पन्न होता है, बाहर नहीं। मन:पर्यय के दो भेद हैं-ऋजुमति और विपुलमति। यह मन:पर्यय ज्ञान ऋद्धिधारी, वर्धमानचारित्र वाले मुनियों के ही हो सकता है सबके नहीं। केवलज्ञान-ज्ञानावरण कर्म के पूर्णतया नष्ट हो जाने से, सम्पूर्ण, समग्र, केवल, प्रतिपक्ष रहित सर्वपदार्थों को युगपत् जानने वाला लोकालोक प्रकाशी केवलज्ञान होता है। संयम मार्गणा-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पाँच व्रतों को धारण करना, ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण, उत्सर्ग इन पांच समितियों का पालन करना, क्रोधादि चार कषायों का निग्रह करना, मन, वचन, कायरूप दण्ड का त्याग तथा पांच इन्द्रियों का जय, इसको संयम कहते हैं। संयम के पांच भेद हैं-सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय और यथाख्यातचारित्र। इनमें देशसंयम और असंयम को मिलाने से इस मार्गणा के सात भेद हो जाते हैं। दर्शन मार्गणा-सामान्य विशेषात्मक पदार्थ के शेष अंश का ग्रहण न करके केवल सामान्य अंश का जो निर्विकल्प रूप से ग्रहण होता है उसे दर्शन कहते हैं। इसके चार भेद हैं-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन। लेश्या मार्गणा-कषाय के उदय से अनुरंजित योगप्रवृत्ति का नाम लेश्या है। यह भावलेश्या का लक्षण है और शरीर के वर्णरूप द्रव्य लेश्या होती है। लेश्या के छह भेद हैं-कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल तथा प्रत्येक के उत्तरभेद अनेक हैं। कृष्णलेश्या का लक्षण-तीव्र क्रोध करने वाला हो, वैर को न छोड़े, युद्ध प्रिय, धर्म और दया से रहित हो, दुष्ट हो, जो किसी के वश में न हो, ये सब कृष्णलेश्या के चिन्ह हैं। नीललेश्या-काम करने में मंद, स्वच्छन्द, विवेक रहित, कलाचातुर्य से रहित, इन्द्रिय विषयों का लंपटी, मानी, मायाचारी, आलसी, अति निद्रालु, वंचना में दक्ष, धन लोलुपी होना, ये सब नीललेश्या के चिन्ह हैं। कापोतलेश्या-दूसरे के ऊपर क्रोध करना, निन्दा करना, दु:ख देना, वैर करना, शोकाकुलित होना, दूसरे के ऐश्वर्य आदि को सहन न कर सकना, दूसरे का तिरस्कार करना, अपनी प्रशंसा करना, रण में मरने की इच्छा आदि कापोतलेश्या के चिन्ह हैं। पीतलेश्या-अपने कार्य-अकार्य, सेव्य-असेव्य को समझने वाला हो, सबके विषय में समदर्शी, दया और दान में तत्पर हो, मन, वचन, काय के विषय में कोमल परिणामी हो, ये सब पीतलेश्या वाले के लक्षण हैं। पद्मलेश्या-दान देने वाला, भद्र परिणामी, उत्तम कार्य करने के स्वभाव वाला, कष्ट रूप और अनिष्ट रूप उपसर्गों को सहन करने वाला, मुनिजन, गुरुजन की पूजा में प्रीति युक्त होना ये सब पद्मलेश्या के लक्षण हैं।
शुक्ललेश्या-पक्षपात न करना, निदान को न बांधना, समदर्शी, इष्ट से राग और अनिष्ट से द्वेष न करना, स्त्री, पुत्र, मित्र आदि में स्नेह रहित होना, ये सब शुक्ल लेश्या के लक्षण हैं। भव्यमार्गणा-जिन जीवों को अनन्त चतुष्टय रूप् सिद्धि होने वाली हो अथवा जो उसकी प्राप्ति के योग्य हों वे भव्य और इनसे विपरीत अभव्य कहलाते हैं। कितने ही भव्य ऐसे हैं जो मुक्ति प्राप्ति के योग्य हैं परन्तु कभी मुक्त न होंगे, जैसे विधवा सती स्त्री में पुत्रोत्पत्ति की योग्यता है किन्तु उसके कभी पुत्र उत्पन्न नहीं होगा। इसके सिवाय कोई भव्य ऐसे हैं जो नियम से मुक्त होंगे। इस तरह स्वभाव भेद के कारण भव्य दो प्रकार के हैं। जो इन दोनों स्वभावों से रहित हैं उन्हें अभव्य कहते हैं। जैसे बंध्या स्त्री को निमित्त मिलने पर भी पुत्र उत्पन्न नहीं होता है अत: इस मार्गणा वे भव्य और अभव्य दो भेद हैं। सम्यक्त्व मार्गणा-छह द्रव्य, पांच अस्तिकाय, नव पदार्थ, इनका जिनेन्द्र देव ने जिस प्रकार से वर्णन किया है उसी प्रकार जो श्रद्धान है उसे सम्यक्त्व कहते हैं। यह सम्यक्त्व दो प्रकार से होता है एक तो केवल आज्ञा से, दूसरा अधिगम से। इस मार्गणा के ६ भेद हैं-उपशम सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व और वेदक सम्यक्त्व, मिश्र, सासादन और मिथ्यात्व। संज्ञीमार्गणा-नोइन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम को या उससे उत्पन्न ज्ञान को संज्ञा कहते हैंं। जिनके यह लब्धि का उपयोग रूप मन-ज्ञानविशेष पाया जाये उनको संज्ञी कहते हैं और जिनके यह मन न हो उनको असंज्ञी कहते हैं। इन असंज्ञी जीवों के मानस ज्ञान नहीं होता है। इसलिए संज्ञी मार्गणा के संज्ञी और असंज्ञी ऐसे दो भेद होते हैं। आहारमार्गणा-शरीर नामक नामकर्म के उदय से औदारिक, वैक्रियिक, आहारक इनमें से यथासंभव किसी भी शरीर तथा वचन और द्रव्य मन रूप बनने के योग्य नोकर्म वर्गणाओं का जो ग्रहण होता है उसको आहार कहते हैं। जीव दो प्रकार के होते हैं-आहारक, अनाहारक। विग्रह गति को प्राप्त होने वाले चारों गति संंबंधी जीव, प्रतर और लोकपूरण समुद्घात करने वाले सयोगकेवली, अयोगकेवली, समस्तसिद्ध इतने जीव तो अनाहाकर होते हैं और इनको छोड़कर शेष सभी जीव आहारक होते हैं। समुद्घात-मूल शरीर को न छोड़कर तैजस-कार्माणरूप उत्तरदेह के साथ-साथ जीव प्रदेशों के शरीर से बाहार निकलने को समुद्घात कहते हैं। समुद्घात के सात भेद हैं-वेदना, कषाय, वैक्रियक, मारणांतिक, तैजस, आहारक और केवली। इस प्रकार से संक्षेप में चौदह मार्गणाओं का वर्णन हुआ है।