अध्यात्म भाषा में नयों के मूल दो भेद हैं-निश्चय और व्यवहार। निश्चयनय अभेदोपचार से पदार्थ को जानता है अर्थात् अभेद को विषय करता है। व्यवहारनय भेदोपचार से पदार्थ को जानता है अर्थात् भेद को विषय करता है।
(१) निश्चयनय के दो भेद हैं-
शुद्ध निश्चयनय, अशुद्ध निश्चयनय। कर्मों की उपाधि से रहित गुण और गुणी में अभेद को विषय करने वाला शुद्ध निश्चयनय है जैसे केवलज्ञानादि गुण ही जीव है। कर्मों की उपाधि को विषय करने वाला अशुद्ध निश्चयनय है जैसे मतिज्ञानादि रूप जीव है। व्यवहार के दो भेद हैं-सद्भूत व्यवहारनय और असद्भूत व्यवहारनय।
(क) एक ही वस्तु को भेद रूप ग्रहण करे वह सद्भूत व्यवहार है।
इसके दो भेद हैं-
उपचरित सद्भूत व्यवहार और अनुपचरित सद्भूत व्यवहार। उपचरित सद्भूत-जो उपाधि सहित गुण-गुणी को भेदरूप ग्रहण करे।
जैसे-मतिज्ञानादि गुण जीव के हैं।
अनुपचरित सद्भूत व्यवहार-जो उपाधि रहित गुण-गुणी में भेद करे।
जैसे-केवलज्ञानादि गुण जीव के हैं।
(ख) जो भिन्न वस्तुओं को संबंध रूप से ग्रहण करे वह असद्भूत व्यवहार है।
इसके भी दो भेद हैं-
उपचरित असद्भूत और अनुपचरित असद्भूत। उपचरित असद्भूत व्यवहार-संबंधरहित वस्तु को संबंध रूप ग्रहण करना।
जैसे-देवदत्त का धन।
अनुपचरित असद्भूत व्यवहार-संबंध सहित वस्तु को संबंधरूप ग्रहण करना।
जैसे-जीव का शरीर इत्यादि। प्रकारान्तर१ से निश्चय-व्यवहार नयों का वर्णन देखा जाता है।
(१) जो पदार्थ के शुद्ध अंश का प्रतिपादन करता है वह निश्चयनय है।
जैसे-जीव अपने चेतना प्राण से त्रिकाल में जीवित रहता है।
(२) जो पदार्थ के मिश्रित रूप का प्रतिपादन करता है वह व्यवहारनय है।
जैसे-जीव इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छ्वास रूप दश प्राणों से जीता है। ये सभी नय आंशिक ज्ञानरूप हैं। ये तभी सत्य हैं जब कि अन्य नयों की अपेक्षा रखते हैं। यदि वे अन्य नयों की अपेक्षा न रखें तो मिथ्या हो जावे। कहा भी है-
‘‘जो नय परस्पर निरपेक्ष हैं वे मिथ्या हैं।
यदि वे ही नय परस्पर की अपेक्षा करते हैं तो सम्यक्-सुनय कहे जाते हैं
और उन्हीं से पदार्थों का वास्तविक बोध हो सकता है।’’
जैसे- द्रव्यार्थिक नय जीव को नित्य कहता है और पर्यायार्थिक नय अनित्य कहता है। यदि ये दोनों नय एक दूसरे की अपेक्षा न रखें तो बात गलत हो जावे। वास्तव में द्रव्यदृष्टि से जीव नित्य ही है क्योंकि द्रव्य का त्रिकाल में नाश नहीं होता है। पर्याय दृष्टि से वही जीव अनित्य है क्योंकि मनुष्य आदि पर्यार्यों का विनाश होकर देवादि पर्यायों का उत्पाद देखा जाता है अत: जीव कथंचित् नित्य है कथंचित् अनित्य है। यह बात सिद्ध हो गई।