केवलज्ञान की उत्पत्ति-असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत इन चार गुणस्थानों में से किसी एक गुणस्थान में मोहनीय की सात प्रकृतियों का क्षय करके क्षायिक सम्यग्दृष्टि क्षपक श्रेणी पर आरोहण करने के सन्मुख होता हुआ अप्रमत्तसंयत (सप्तम) गुणस्थान में अध:प्रवृत्तकरण को प्राप्त होकर अपूर्वकरण गुणस्थान में नूतन परिणामों की विशुद्धि से पाप प्रकृतियों की स्थिति और अनुभाग को कृश करके तथा शुभकर्मों के अनुभाग की वृद्धि करके अनिवृत्तिकरण की प्राप्ति द्वारा वहाँ पर आठ कषायों का नाश करके तथा नपुंसकवेद और स्त्रीवेद का क्रम से नाश करके, छह नोकषाय का पुरुषवेद में संक्रमण द्वारा नाश करके तथा पुरुषवेद का संज्वलन क्रोध में, क्रोध का संज्वलन मान में, मान का संज्वलन माया में और माया का संज्वलन लोभ में क्रम से बादर कृष्टि विभाग के द्वारा संक्रमण करके तथा लोभ संज्वलन को कृश करके ‘सूक्ष्म सांपराय’ गुणस्थान में पहुँचकर समस्त मोहनीय का निर्मूल नाश करके, क्षीण कषाय गुणस्थान में पहुँचकर उसके उपान्त्य समय में निद्रा और प्रचला का नाश करके तथा अन्तिम समय में पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तराय कर्मों का अन्त करके अपने आत्मस्वभावरूप केवलज्ञान को प्राप्त कर लेता है। अर्थात् वीतराग निर्विकल्प त्रिगुप्ति समाधिरूप ध्यान के द्वारा मोहनीय कर्म का नाश हो जाता है। पहले दशवें गुणस्थान के अंत समय में मोहनीय का नाश होने के बाद यह जीव ग्यारहवें में न जाकर बारहवें गुणस्थान में पहुँच जाता है, वहाँ सम्पूर्ण मोहरहित, पूर्ण वीतरागी होता हुआ अन्त समय में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन घातिया कर्मों का नाश कर देता है, तब केवली बन जाता है।