ज्ञानावरण के अभाव से क्षायिकज्ञान-अनन्तज्ञान प्रगट होता है, जिससे एक समय में सम्पूर्ण लोकालोक, त्रिकालवर्ती समस्त पर्यायों सहित ज्ञान में प्रतिबिम्बित होने लगता है। दर्शनावरण के नाश से क्षायिक-अनन्त दर्शन प्रगट हो जाता है, जिससे वे सर्वदर्शी कहलाते हैं। दानान्तराय के सर्वथा अभाव से अनन्त प्राणियों का उपकार करने वाला क्षायिक अभयदान होता है। समस्त लाभान्तराय के क्षय से कवलाहार क्रिया से रहित केवलियों के क्षायिक लाभ होता है, जिससे उनके शरीर में बल प्रदान करने में कारणभूत, दूसरे मनुष्यों को असाधारण-कभी प्राप्त न होने वाले परम शुद्ध और सूक्ष्म, ऐसे अनन्त परमाणु प्रति समय संबंध को प्राप्त होते हैं। समस्त भोगान्तराय के नाश से अतिशय वाले ऐसे क्षायिक अनन्त भोग का प्रादुर्भाव होता है, जिससे कुसुमवृष्टि आदि आश्चर्य विशेष होते हैं। समस्त उपभोगान्तराय के क्षय हो जाने से अनन्त क्षायिक उपभोग होता है, जिससे सिंहासन, चामर और तीन छत्र आदि विभूतियाँ होती हैं। वीर्यान्तराय के क्षय से क्षायिक अनन्तवीर्य प्रगट होता है।
अनन्तानुबंधी आदि सात प्रकृतियों के क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व प्रगट होता है। चारित्र मोहनीय की इक्कीस प्रकृतियों के अत्यन्त विनाश से क्षायिक चारित्र प्रगट होता है। ये अभयदानादि कार्य शरीर नामकर्म और तीर्थंकर नामकर्म की अपेक्षा रखते हैं अत: ‘‘सिद्धों१ में ये कार्यरूप न होकर केवलज्ञानरूप से अनन्तवीर्य के सदृश परमानन्द के अव्याबाधरूप में ही इनका सद्भाव रहता है। केवली भगवान इन नवकेवललब्धियों के स्वामी होते हैं। इन्द्रों द्वारा समवसरण की रचना हो जाती है और अधिक से अधिक कुछ कम कोटि पूर्व वर्ष तक इस पृथ्वी तल पर विहार करते हैं। केवलज्ञान होते ही भगवान इस पृथ्वीतल से ५००० हजार धनुष ऊपर चले जाते हैं, वहीं सिंहासन पर चार अंगुल अधर विराजमान रहते हैं। विहार के समय देवगण भगवान के चरण कमलों के नीचे स्वर्णमय कमलों की रचना करते जाते हैं और भी महान् अचिन्त्य वैभव होते हैं। अनन्तर भगवान योग निरोध करके ध्यान में लीन हो जाते हैं। उस समय समवसरण विघटित हो जाता है।