व्यंतर देव-रत्नप्रभा पृथ्वी के खरभाग में व्यंतर देवों के सात भेद रहते हैं-किन्नर, विंपुरुष, महोरग, गंधर्व, यक्ष, भूत और पिशाच। पंक भाग में राक्षस जाति के व्यंतरों के भवन हैं। सभी व्यन्तरवासियों के असंख्यात भवन हैं। उनमें तीन भेद हैं-भवन, भवनपुर और आवास। खर भाग, पंक भाग में भवन हैं। असंख्यातों द्वीप समुद्रों के ऊपर भवनपुर हैं और सरोवर, पर्वत, नदी, आदिकों के ऊपर आवास होते हैं। मेरु प्रमाण ऊँचे मध्यलोक, ऊध्र्वलोक में व्यन्तर देवों के निवास हैं। इन व्यन्तरों में से किन्हीं के भवन हैं, किन्हीं के भवन और भवनपुर दोनोें हैं एवं किन्हीं के तीनों ही स्थान होते हैं। ये सभी आवास प्राकार (परकोटे) से वेष्टित हैं। जिनमंदिर-इस प्रकार व्यन्तरवासी देवों के स्थान असंख्यात होने से उनमें स्थित जिनमंदिर भी असंख्यात प्रमाण हैं। क्योंकि जितने भवन, भवनपुर और आवास हैं, उतने ही जिनमंदिर हैं। इनके कार्य-ये व्यन्तर देव क्रीड़ाप्रिय होने से इस मध्यलोक में यंत्र-तंत्र शून्य स्थान, वृक्षों की कोटर, श्मशान भूमि आदि में भी विचरण करते रहते हैं। कदाचित्, क्वचित् किसी के साथ पूर्व जन्म का बैर होने से उसे कष्ट भी दिया करते हैं। किसी पर प्रसन्न होकर उसकी सहायता भी करते हैंं। जब सम्यग्दर्शन ग्रहण कर लेते हैं, तब पापभीरू बनकर धर्मकार्यों में ही रुचि लेते हैं। व्यंतर इन्द्र-किन्नर, किंपुरुष आदि आठ प्रकार के व्यंतर देवों में प्रत्येक के दो-दो इन्द्र होते हैं। किन्नर जाति के दो इन्द्र-विंâपुरुष, किन्नर। विंâपुरुष जाति में-सत्पुरुष, महापुरुष। महोरग जाति में-महाकाय, अतिकाय। गंधर्व जाति में-गीतरति, गीतरस। यक्ष जाति में-मणिभद्र, पूर्णभद्र। राक्षस जाति में-भीम, महाभीम। भूत जाति में-स्वरूप, प्रतिरूप। पिशाच जाति में-काल, महाकाल। ऐसे व्यन्तर देवों में १६ इन्द्र होते हैं। परिवार देव-इन १६ इन्द्रों में से प्रत्येक के प्रतीन्द्र, सामानिक, आत्मरक्ष, तीनों पारिषद, सात अनीक, प्रकीर्णक, किल्विषक और आभियोग इस प्रकार से परिवार देव होते हैं अर्थात् भवनवासी के जो इन्द्र, सामानिक आदि दस भेद बतलाये हैं, उनमें से इन व्यन्तरों में त्रायिंस्त्रश और लोकपाल ये दो भेद नहीं होते हैं अत: यहाँ आठ भेद कहे गये हैं। प्रत्येक इन्द्र के एक-एक प्रतीन्द्र होने से १६ इन्द्रों के १६ प्रतीन्द्र ऐसे व्यन्तरों के ३२ इन्द्र कहलाते हैं। इस प्रकार परिवार देवों से सहित, सुखों का अनुभव करने वाले व्यन्तर देवेन्द्र अपने-अपने पुरों में बहुत प्रकार की क्रीड़ाओं को करते हुए मग्न रहते हैं। व्यन्तर देवों का आहार-किन्नर आदि एवं उनकी देवियाँ दिव्य अमृतमय मानसिक आहार ग्रहण करते हैं। देवों को कवलाहार नहीं होता है। पल्य प्रमाण आयु वाले देवों का आहार ५ दिन में एवं दस हजार की आयु वालों का दो दिन बाद होता है। देवों का उच्छ्वास-पल्य प्रमाण आयु वाले ५ मुहूर्त में एवं दस हजार वर्ष की आयु वाले, सात उच्छ्वास काल में उच्छ्वास लेते हैं। व्यन्तर देवों में जन्म लेने के कारण-जो कुमार्ग में स्थित हैं, दूषित आचरण वाले हैं, अकाम निर्जरा करने वाले हैं, अग्नि आदि द्वारा मरण को प्राप्त करते हैं, सम्यक्त्व से रहित, चारित्र के विघातक, पञ्चाग्नि तप करने वाले, मन्द कषायी हैं, ऐसे जीव मरकर व्यन्तर पर्याय में जन्म ले लेते हैं। ये देव कदाचित् वहाँ सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेते हैं। सम्यक्त्व रहित देव कोई-कोई विशेष आर्तध्यान आदि से मरकर एकेन्द्रिय पर्याय में भी जन्म ले लेते हैं। व्यंतर देवों का अवधिज्ञान, शक्ति और विक्रिया-जघन्य आयु १०००० वर्ष प्रमाण वाले देवों का अवधिज्ञान का विषय ५ कोस है एवं उत्कृष्ट अवधि का विषय ५० कोस है। पल्योपम प्रमाण आयु वाले व्यन्तर देवों की अवधि का विषय नीचे व ऊपर एक लाख योजन प्रमाण है। जघन्य आयुधारक प्रत्येक व्यन्तर देव १०० मनुष्यों को मारने व तारने के लिए समर्थ हैं तथा १५० धनुष तक विस्तृत क्षेत्र को अपनी शक्ति से उखाड़ कर अन्यत्र फेंकने में समर्थ हैं। पल्य प्रमाण आयु वाले व्यन्तर देव छह खण्डों को उलट सकते हैं। जघन्य आयु वाले व्यन्तर देव उत्कृष्ट रूप से १०० रूपों की एवं जघन्य रूप से ७ रूपों की विक्रिया कर सकते हैं। बाकी देव अपने-अपने अवधिज्ञान के क्षेत्र को विक्रिया से पूर्ण कर सकते हैं। इन देवों की अवगाहना १० धनुष है। ये देव उपपाद शय्या पर जन्म लेकर अन्तर्मुहूर्त में १६ वर्ष के युवक के समान शरीर और पर्याप्तियों को पूर्ण कर लेते हैं।