द्वारा – परम पूज्य आचार्यकल्प १०८ श्री श्रुतसागरजी महाराज ( समाधिस्थ )
जो शिष्य गुरु के आधीन न रहकर स्वतन्त्र रहते हैं और गुरुओं की आज्ञानुसार नहीं चलते, उन शिष्यों को जिनधर्म का विरोधी समझना चाहिए। गुरु भक्ति से रहित शिष्य निंद्य व दुर्गति का पात्र होता है । अन्तरंग और बहिरंग परिग्रह से रहित शिष्य के भी यदि गुरुओं के प्रति श्रद्धा व भक्ति नहीं है तो उसकी सम्पूर्ण क्रियाएँ निष्फल हैं । जिस प्रकार स्वामी रहित देश, ग्राम, सम्पत्ति, सैन्य आदि व्यर्थ हैं, उसी प्रकार गुरुभक्ति रहित शिष्यों का सम्पूर्ण आचरण व ज्ञान व्यर्थ है । चारित्र में सुदृढ़ साधु एकलबिहारी होने से उसी प्रकार भयभीत रहता है जिस प्रकार सदाचारिणी स्त्री स्वतन्त्रता से। शिक्षा व दीक्षा प्राप्त करने के अधिकारी वे ही हो सकते हैं जो गुरु मान कर चलें, गुरु के गुरु बनने वाले इसके योग्य नहीं हो सकते। शासन करने की अपेक्षा शासन में रहने वाला ही अपना सुधार कर सकता है । जो तरूण अवस्था में ही विषयों को छोड़कर मोक्षमार्ग में स्थित हुए हैं, वे पुण्यात्मा हैं, महा शक्तिशाली हैं और मुक्ति लक्ष्मी के समीप विचरने वाले हैं, किन्तु यदि तरुण साधु सत्तर वर्ष के वृद्ध और रुग्ण, शक्तिहीन साधु के साथ स्पर्धा करते हैं, तो वे साधु मायाचारी, समीचीन विज्ञान से रहित चारित्र रहित मूर्ख हैं और अपना इहलोक व परलोक बिगाड़ते हैं कम से कम बोलना ही साधुता का द्योतक है क्योंकि ज्यादा बोलने वालों का भाषा पर नियंत्रण नहीं रह सकता है और असंयम की भी उद्भूति होती है । स्वतन्त्र विचरण करने वाले तपस्वी वाक्पटुता के द्वारा लोक रंजना व धर्म की प्रभावना तो खूब कर सकते हैं, किन्तु आत्म कल्याण नहीं। रागद्वेषरहित वैराग्यभाव को प्राप्त करने वाले साधु को ही शिवपुरी की प्राप्ति होती है, वाक्पटुओं को नहीं। वेंचुली के छोड़ने से विषधर र्नििवष नहीं हो जाता। उसी तरह साधु बाह्य परिग्रह के त्यागने से संसाररूपी विष से रहित नहीं होता किन्तु उसके लिए अन्तरंग से विकारी भावों का स्वामित्व व कर्तृत्व रूप विष का त्याग करना पड़ेगा । हे साधो ! मात्सर्य, रागद्वेष और मायाचारी का त्याग करके सामूहिक व संघ में रहकर धर्मसाधन करो, एकाकी नहीं। यही भगवान का आदेश है । क्योंकि साधुओं के चरित्र का स्थान समान होने पर भी परिणामों के भेद से फल में भिन्नता आ जाती है इसलिए हमें अपने परिणामों की सम्हाल रखने के लिए प्रौढ़ साधुओं के साथ ही रहना उचित है । मनोगति बहुत चञ्चल होती है, उस पर लगाम लगाने के लिए हमारे सामने आदर्श उत्कृष्ट होना चाहिए। उनके डर व लज्जा से भी हमारा सुधार हो सकता है । नौका पानी में तैरती रहती है किन्तु यदि नौका में पानी आ जावे तो वह डूब जाती है । ठीक उसी प्रकार साधु भी संसार में है लेकिन यदि साधु के हृदय में संसार बस गया तो वह डूब जाता है । साधु होकर विषयों की लालसा रखने वाले और घर कुटुम्बियों का पोषण करने वाले अथवा अपनी ख्याति पूजा लाभ की इच्छा करने वाले मूर्ख जिनेन्द्र भगवान के मंगलमय भेष को कलज्र्ति करते हुए मोक्षमार्ग से अति दूर हो जाते हैं । जो आगम में बताए हुए संयम मार्ग पर चलते हैं वे ही साधु एवं मुनि गुरु कहलाने योग्य हैं । असंयमी नहीं। वस्तु स्वरूप में जिसका मन स्थिर नहीं है, ऐसा साधु पापपंक से लिप्त होता है । हे भगवन् ! हम साधुओं की आत्मा में ऐसी जागृति हो कि हम अपने विवेकरूपी दर्पण में आगमरूपी चक्षु के द्वारा अपने चारित्ररूपी चादर में जो धब्बे लग रहे हैं उन्हें देखकर साफ करने का प्रयत्न करें जिससे कल्याण हो । जिन संयमियों का मार्गदर्शक, सम्यग्ज्ञान और मित्र, पाप भीरुता ये दोनों उपकारी साथ में है उनके अंतरंग में कभी किसी काल में भी याचक वृत्ति व दीनता प्रवेश नहीं कर सकती। संयम, तप व ध्यानाध्ययन के लिए साधुओं को आहार ग्रहण करना चाहिए, शरीर पुष्टि के लिए नहीं । हमने जिस कार्य के लिए संयम धारण किया है, उसकी प्राप्ति के लिए हमारा आहार विहार (गमनागमन) स्वतन्त्रता (दीनता व याचना) से हो, स्वार्थन्धों से रहित गुणीजनों की संगति हो, तभी हम प्रशंसनीय मार्ग के द्वारा र्नििदष्ट स्थान पर पहुँच सकते हैं । याचक वृत्ति से जीवन यापन करने वाले त्यागी, व्रती या अन्यजन कांतिहीन दीनता को प्राप्त कर स्व, संघ, जाति एवं धर्मादि को नीचा दिखता हुआ अपने अयश की ही वृद्धि करता है जैसे—
आचार्यों का कहना है कि हे साधो ! यदि तपश्चरण नहीं कर सकते तो नहीं सही किन्तु अपने आत्मीक गुणों (उत्तमक्षमादि) की रक्षा के लिए क्रोधादि कषायों को मन के द्वारा जीतने का प्रयत्न करो। शक्तिशाली सैनिकों की संख्या थोड़ी होते हुए भी उनके द्वारा राजा विजयी हो सकता है उसी तरह चित्त वृत्ति को निर्मल रखते हुए साधु का थोड़ा भी ज्ञान व तपश्चरण आदि कर्मों के नाश करने में समर्थ होते हैं ।