विग्रहगति में एक, दो अथवा तीन समय तक अनाहारक रहने के बाद यह जीव अपने उत्पत्ति स्थान में, जाकर जिन आहारवर्गणा के परमाणुओं को ग्रहण करता है उन्हें खल रस भागादि रूप परिणमाने की उसकी शक्ति क्रम से विकसित होती है । शक्ति विकास की पूर्णता को पर्याप्ति कहते हैं । जिन जीवों की यह शक्ति पूर्ण विकसित हो जाती है । वे पर्याप्तक कहलाते हैं और जिनकी पूर्ण विकसित नहीं होती है वे अपर्याप्तक कहलाते हैं । अपर्याप्तक दो प्रकार के होते हैं—एक तो वे, जिनकी शक्ति अभी पूर्ण नहीं हुई है किन्तु अन्तर्मुहूर्त के भीतर नियम से पूर्ण हो जाने वाली है और दूसरे वे जिनकी शक्ति न पूर्ण हुई है और न आगे पूर्ण होगी। पहले जीव निर्वृत्य पर्याप्तक कहलाते हैं और दूसरे लब्ध्यपर्याप्तक। वास्तव में लब्ध्यपर्याप्तक जीव ही अपर्याप्तक कहलाते हैं, क्योंकि अपर्याप्तक नाम कर्म का उदय उन्हीं के रहता है । निर्वृत्यपर्याप्तक तो मात्र निर्वृत्ति रचना की अपेक्षा अपर्याप्तक कहलाते हैं । यहाँ शरीर की पूर्णता के मायने पर्याप्ति नहीं है क्योंकि शरीर की पूर्णता तो क्रम—क्रम से बहुत समय बाद होती है । यहाँ आत्म प्रदेशों में उस जाति की शक्ति की पूर्णता हो जाने की विवक्षा है । और शक्ति की पूर्णता अन्तर्मुहूर्तं के भीतर नियम से हो जाती है । यही कारण है कि जीव की अपर्याप्तक अवस्था अन्तर्मुहूर्तं तक ही रहती है । आहार वर्गणा के परमाणुओं से शरीर, इन्द्रियों और श्वासोच्छ्वास की रचना होती है, भाषा वर्गणा के परमाणुओं से वचन की रचना होती है और मनोवर्गणा के परमाणुओं से मन की रचना होती है । एकेन्द्रिय जीवों के मात्र आहार वर्गणा का संचय होता है, द्वीन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवों के मनोवर्गणा को मिलाकर तीनों वर्गणाओं का ग्रहण होता है । आहार वर्गणा से आहार, शरीर, इन्द्रिय और श्वासोच्छ्वास में चार पर्याप्तियाँ, भाषा वर्गणा से भाषा पर्याप्ति और मनो वर्गणा से मन:पर्याप्ति सम्बन्ध रखती है । एकेन्द्रिय जीव के प्रारम्भ की चार, द्वीन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तक के पाँच और संज्ञी पञ्चेन्द्रिय के छह पर्याप्तियाँ होती है । इन पर्याप्तियों का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है—
आहार पर्याप्ति :— नवीन शरीर को कारणभूत जिस नोकर्म वर्गणा—आहार वर्गणा को जीव ग्रहण करता है उसे खल रस भाग रूप परिणमाने के लिये जीव की शक्ति के पूर्ण होने को आहार पर्याप्ति कहते हैं ।
शरीर पर्याप्ति :— खल भाग की हड्डी आदि कठोर अवयव रूप तथा रस भाग को रुधिर आदि द्रव्य अवयव रूप परिणमाने की शक्ति की पूर्णता को शरीर पर्याप्ति कहते हैं ।
इन्द्रिय पर्याप्ति :— उन्हीं आहार वर्गणा के परमाणुओं में से कुछ को अपनी—अपनी इन्द्रिय के स्थान पर उस—उस द्रव्येन्द्रिय के आकार परिणामने और उनसे विषय ग्रहण करने की शक्ति के पूर्ण हो जाने को इन्द्रिय पर्याप्ति कहते हैं ।
श्वासोच्छवास पर्याप्ति :— उन्हीं आहार वर्गणा के परमाणुओं में से कुछ को श्वासोच्छ्वास रूप परिणमाने की शक्ति के पूर्ण होने को श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति कहते हैं ।
भाषा पर्याप्ति :— भाषा वर्गणा के परमाणुओं को वचन रूप परिणमाने की शक्ति की पूर्णता को भाषा पर्याप्ति कहते हैं ।
मन: पर्याप्ति :—मनो वर्गणा के परमाणुओं को द्रव्य मन रूप परिणमाने तथा उससे विचार करने की शक्ति के पूर्ण करने को मन:पर्याप्ति कहते हैं । इन छह पर्याप्तियों का प्रारम्भ एक सा होता है परन्तु पूर्णता क्रम—क्रम से होती है, इतना अवश्य है कि सभी पर्याप्तियों के पूर्ण होने में अन्तर्मुहूर्तं से अधिक काल नहीं लगता है । जब तक आहार और शरीर पर्याप्ति की पूर्णता नहीं होती तब तक यह जीव अपर्याप्तक कहलाता है उसके पश्चात् पर्याप्तक कहलाने लगता है । लब्ध्यपर्याप्तक अवस्था मात्र मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में होती है और निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्था प्रथम, द्वितीय, षष्ठ और तेरहवें गुणस्थान में होती है । षष्ठ गुणस्थान में आहारक शरीर की अपेक्षा और तेरहवें गुणस्थान में लोकपूरणसमुद्धात की अपेक्षा अपर्याप्तक अवस्था होती है । शेष गुणस्थानों में पर्याप्तक अवस्था ही रहती है । इस संदर्भ में इतना और स्मरण रखना चाहिये कि लब्ध्यपर्याप्तक अवस्था मात्र संमूच्र्छन जन्म में होती है गर्भ और उपपाद जन्म में नहीं, जबकि निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था तीनों जन्मों में होती है । लब्ध्यपर्याप्तक जीव अन्तर्मुहूर्त के भीतर नियम से मरण को प्राप्त होता है ।
क्षुद्रभवों की गणना :— एक अन्तर्मुहूर्तं में लब्ध्यपर्याप्तक जीव छियासठ हजार तीन सौ छत्तीस वार जन्म मरण करता है । इन भवों में द्वीन्द्रिय के ८० त्रीन्द्रिय के ६० चतुरिन्द्रिय के ४०, पञ्चेन्द्रिय के २४ तथा एकेन्द्रिय के ६६१३२ क्षुद्रभव होते हैं । एकेन्द्रियों में पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और साधारण वनस्पतिकायिक सूक्ष्म और बादर के भेद से १० तथा प्रत्येक वनस्पति इन ग्यारह स्थानों में प्रत्येक के ६०१२ भव होते हैं ।
विशेष :— द्वितीयादिक छह नरक, ज्योतिषी, व्यन्तर और भवनवासी देव तथा सब प्रकार की स्त्रियाँ इनके अपर्याप्तक अवस्था में चतुर्थ गुणस्थान नहीं है, क्योंकि इनमें सम्यग्दृष्टि जीव की उत्पत्ति नहीं होती। नरकगति की अपर्याप्त अवस्था में सासादन गुणस्थान नहीं होता क्योंकि इस गुणस्थान में मरा हुआ जीव नरकगति में जाता ही नहीं है ।
प्राण :—जिनके संयोग से जीव जीवितपने का और वियोग से मरणपने का व्यवहार प्राप्त करता है उन्हें प्राण कहते हैं । ये प्राण भाव और द्रव्य के भेद से दो प्रकार के होते हैं । अभ्यन्तर में तद्—तद् इन्द्रियावरण कर्मों के क्षयोपशम से जो ज्ञानादि गुण प्रकट हैं उन्हें भाव प्राण कहते हैं और उनके कार्य रूप जो तद्—तद् इन्द्रियों के आकार आदि हैं उन्हें द्रव्य प्राण कहते हैं । पर्याप्ति कारण है और प्राण उसके कार्य हैं, इस प्रकार दोनों में कारण कार्य का भेद है । संक्षेप में प्राणों के चार भेद हैं—इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छ्वास। इन्द्रिय के पांच भेद हैं—स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण। बल के तीन भेद हैं—काय बल, वचन बल और मनोबल। आयु और श्वासोच्छ्वास का एक—एक ही भेद है । इस प्रकार ५ + ३ + १ + १ · मिलाकर द्रव्य प्राण के १० भेद होते हैं । इनमें मनोबल प्राण तथा इन्द्रिय प्राण वीर्यांतराय कर्म और मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होते हैं । कायबल प्राण शरीर नामकर्म के उदय से होता है । श्वासोच्छ्वास शरीर नामकर्म तथा श्वासोच्छ्वास कर्म के उदय से होता है, वचन बल, शरीरनामकर्म तथा स्वनाम कर्म के उदय से होता है और आयु प्राण, आयु कर्म के उदय से होता है । वचनबल, मनोबल और श्वासोच्छ्वास ये तीन प्राण पर्याप्तक अवस्था में ही होते हैं, अपर्याप्तक अवस्था में नहीं। शेष प्राण पर्याप्तक अपर्याप्तक—दोनों अवस्थाओं में होते हैं संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवों के पर्याप्तक अवस्था में दश और अपर्याप्तक अवस्था में सात, असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय के पर्याप्तक अवस्था में नौ और अपर्याप्तिक अवस्था में सात, चतुरिन्द्रिय के पर्याप्तक अवस्था में आठ और अपर्याप्तक अवस्था में छह, त्रीन्द्रिय के पर्याप्तक अवस्था में सात और अपर्याप्तक अवस्था में पाँच, द्वीन्द्रिय के पर्याप्तक अवस्था में छह और अपर्याप्तक अवस्था में चार तथा एकेन्द्रिय जीव के पर्याप्तक अवस्था में चार और अपर्याप्तक अवस्था में तीन प्राण होते हैं ।
गुणस्थानों की अपेक्षा पर्याप्ति और प्राणों का निरूपण— बारहवें गुणस्थान तक सभी पर्याप्तियाँ और सभी प्राण होते हैं, तेरहवें गुणस्थान में भावेन्द्रिय नहीं होती; किन्तु द्रव्येन्द्रिय की अपेक्षा छहों पर्याप्तियों और वचन बल, श्वासोच्छ्वास, आयु तथा काय बल ये चार प्राण होते हैं। इसी गुणस्थान के अन्त में वचन बल के नष्ट हो जाने पर तीन और श्वासोच्छ्वास का अभाव होने पर दो प्राण होते हैं और चौदहवें गुणस्थान में कायबल का अभाव हो जाने से मात्र आयु प्राण रहता है। सिद्ध भगवान् के द्रव्य प्राणी का सर्वथा अभाव है। भाव प्राणों की अपेक्षा मात्र क्षायिक ज्ञान और क्षायिक वीर्य—बल है।