चंदनामती–हम लोग जो प्रतिदिन दैवसिक-रात्रिक प्रतिक्रमण और चतुर्दशी को पाक्षिक प्रतिक्रमण करते हैं, उसमें सिद्ध, चैत्य आदि भक्तियाँ पढ़ने से पूर्व जो प्रतिज्ञा की जाती है
जैसे- ‘‘दैवसिक प्रतिक्रमण क्रियायां…………….सिद्धभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं’’
इत्यादि पाठ पढ़ते हैं।पिछले कुछ वर्षों से कतिपय नई पुस्तकों में ‘‘कायोत्सर्गं कुर्वेऽहं’’ पाठ छप रहा है, जबकि आप हम लोगों को ‘करोम्यहं’ ही पढ़ने को कहती हैं। इस विषय में जानना चाहती हूँ कि आप कुर्वेऽहं क्यों नहीं पढ़ती हैं तथा इस विषय में आगम प्रमाण क्या है?
श्री ज्ञानमती माताजी-डुकृञ्-करणे धातु से करोमि और कुर्वे ये दोनों क्रिया उत्तम पुरुष के एक वचन में बनती हैं। जिसमें ‘करोमि’ परस्मैपदी है और ‘कुर्वे’ आत्मनेपदी है। अहं कर्ता के साथ करोमि या कुर्वे क्रिया का प्रयोग किया जाता है। इस विषय में आगम प्रमाण जो मुझे प्राप्त हुए हैं उनमें से अति प्राचीन ग्रंथ ‘आचारसार’ जो सिद्धान्तचक्रवर्ती श्री वीरनन्दि आचार्य द्वारा रचित है उसमें ‘करोम्यहं’ पाठ ही है।
जैसे-‘‘क्रियायामस्यां व्युत्सर्गं, भत्तेरस्या: करोम्यहं।’’
इसका अर्थ यही है कि अस्यां क्रियायां अस्या: भत्ते: व्युत्सर्गं करोम्यहं अर्थात् इस क्रिया को करने में मैं इस भक्ति का कायोत्सर्ग करता हूँ। जहाँ जिस क्रिया में जो भक्ति पढ़ते हैं वहाँ उस क्रिया का नाम और भक्ति का नाम पढ़ते हैं। दूसरा प्रमाण अनगार धर्मामृत में पाक्षिक प्रतिक्रमण के पाँच श्लोकों की स्वोपज्ञ टीका में ‘करोम्यहं’ शब्द का प्रयोग पन्द्रह बार टीकाकार ने किया है।
जैसे-‘‘सर्वातिचार विशुद्ध्यर्थं……………..सिद्धभक्ति कायोत्सर्गं करोम्यहं’’
तीसरा प्रमाण दैवसिक और पाक्षिक प्रतिक्रमण जो कि ‘‘क्रियाकलाप’’ के आधार से सभी पुस्तकों में छपे हुए हैं उसमें पं. पन्नालाल जी सोनी ने प्राचीन हस्तलिखित प्रतियोें के अनुसार ‘करोम्यहं’ पाठ ही सभी जगह दिया है। चतुर्थ प्रमाण चारित्रसार ग्रंथ के पृष्ठ १४६-१४७ पर मिलता है। जैसा कि देवतास्तवन क्रिया में लिखा है
‘‘चैत्यभक्तिकायोत्सर्गं करोमीति विज्ञाप्य…………..’’
‘‘पंचगुरुभक्तिकायोत्सर्गं करोमीति विज्ञाप्य………………’’
इसी प्रकार श्री प्रभाचन्द्राचार्य की टीका सहित सामायिकभाष्य नामक पुस्तक जो कि सोलापुर से प्रकाशित है। उसमें बड़ी सामायिक में भी ‘करोमि’ पाठ ही आता है। प्रतिष्ठातिलक ग्रंथ में भी ‘‘करोम्यहं’’ पाठ ही है। मेरा तो कहने का तात्पर्य यही है कि सामायिक और प्रतिक्रमण की रचना करने वाले प्राचीन आचार्य निश्चित ही संस्कृत ज्ञान से परिपूर्ण थे उन्हें भी आत्मनेपदी और परस्मैपदी क्रियाओं का पूर्ण ज्ञान था उनके ग्रंथों में ‘‘करोमि’’ क्रिया मिलती है अत: ‘‘कुर्वे’’ क्रिया अपने मन से लगाने का अधिकार हम लोगों को नहीं है।
यह परिवर्तन किसने किया है मुझे पता नहीं। देखो! मेरी नीति तो यह है कि कहीं कोई पाठ यदि अपने को नहीं जंचता है या शास्त्र से उसमें कुछ अशुद्धि प्रतीत होती है तो उस भिन्न पाठ को टिप्पण में देना चाहिए, उसी में परिवर्तन-परिवद्र्धन नहीं करना चाहिए। स्वरचित अपनी कृति में कोई वैâसा भी पाठ रख सकता है किन्तु दूसरे की कृति में परिवर्तन करना एक नैतिक अपराध भी है।
जो लोग उपर्युक्त समस्त ग्रंथों का स्वाध्याय नहीं करते हैं वे तो पुराना, नया पाठ समझ ही नहीं सकते हैं। मेरा तो सभी विद्वानों से भी यही कहना रहता है कि किसी की कृति में अपने मन से कोई संशोधन न करें, ईमानदारीपूर्वक किसी भी भिन्न पाठ को टिप्पण में ही देवें, ताकि पाठक संशोधित पाठ को ही असली पाठ न समझ लेवें।
चंदनामती–पूज्य माताजी! मेरा द्वितीय प्रश्न आपसे साधुओं की आहार चर्या के विषय में है। आपने तो हम लोगों को बतलाया है कि आहार शुरू करने से पूर्व चौके में ही प्रत्याख्यान निष्ठापन करके सिद्धभक्ति पढ़ो पुन: आहार शुरू करो किन्तु कुछ संघों में मैंने देखा है कि साधुगण आहारचर्या को निकलने से पूर्व ही गुरु के पास प्रत्याख्यान निष्ठापन कर लेते हैं। इस संबंध में आगम प्रमाण क्या है? कृपया बताने का कष्ट करें।
श्री ज्ञानमती माताजी-इस विषय में अनगार धर्मामृत और आचारसार इन दो ग्रंथों में बहुत स्पष्ट खुलासा है कि साधु को चौके में पहुँचने के पश्चात् श्रावकों द्वारा नवधाभक्ति के अनंतर ही पूर्व दिन के ग्रहण किए गए प्रत्याख्यान की निष्ठापना करके लघु सिद्धभक्ति पढ़े पुन: करपात्र की अंजुलि बनाकर भोजन ग्रहण करें। क्योंकि सिद्धभक्ति प्रत्याख्यान निष्ठापना के पश्चात् तो समस्त अन्तरायों का पालन करना भी आवश्यक होता है। अनगार धर्मामृत के पृ. ६४९ पर लिखा है-
‘‘हेयं-त्याज्यं साधुना। निष्ठाप्यमित्यर्थ:।
किं तत्? प्रत्याख्यानादि-प्रत्याख्यानमुपोषितं वा।
क्व? अशनादौ-भोजनारंभे। कया? सिद्धभक्त्या।
किंविशिष्ट्या? लघ्व्या।’’
अर्थात् चौके में नवधाभक्ति पूर्ण हो जाने पर जब श्रावक मुनि से आहार ग्रहण करने के लिए प्रार्थना करते हैं तब वे मुनि अपने खड़े होने की जगह और दातार के खड़े होने की जगह को ठीक से देख लेते हैं कि कोई विकलत्रय आदि जीव जन्तु तो नहीं है। पुन: शुद्ध गरम प्रासुक जल से श्रावक द्वारा हाथ धुलाए जाने पर वे ‘‘‘पूर्व दिन के ग्रहण किए गए प्रत्याख्यान या उपवास का सिद्धभक्तिपूर्वक निष्ठापन करके आहार शुरू करते हैं।’’’
इसी प्रकार आचारसार ग्रंथ में भी कहा है- दातार के द्वारा पादप्रक्षाल आदि क्रियाओं के होने के बाद, उनके द्वारा प्रार्थना की जाने पर साधु सिद्धभक्ति करके प्रत्याख्यान का निष्ठापन करते हैं और समचतुरंगुल पाद से (पैरों में चार अंगुल का अन्तर रखकर) खड़े होकर नाभि से ऊपर हाथ रखते हुए करपात्र में दातार द्वारा प्रदत्त आहार ग्रहण करते हैं।
पुन: अनगार में वर्णन है कि आहार करने के पश्चात् साधु वहीं (चौके में) लघु सिद्धभक्तिपूर्वक प्रत्याख्यान ग्रहण कर लें, इसके बाद गुरु के पास आकर लघुसिद्धभक्ति और योगभक्ति पढ़कर पुन: गुरु के पास प्रत्याख्यान ग्रहण करके लघु आचार्यभक्तिपूर्वक गुरु की वंदना करें। वे पंक्तियाँ अनगार धर्मामृत के पृ. ६४९ पर इस प्रकार हैं-
‘‘आदेयं च-लघ्व्या सिद्ध भक्तया प्रतिष्ठाप्यं साधुना। किं तत्? प्रत्याख्यानादि। क्व? अंते प्रव्माद् भोजनस्यैव प्रान्ते। कथं? आशु-शीघ्रं भोजनांतरमेव। आचार्यासन्निधावेतद्विधेयं।’’
सूरौ-आचार्यसमीपे पुनग्र्राह्यं प्रतिष्ठाप्यं साधुना। किं तत्? प्रत्याख्यानादि। कया? लघ्व्या सिद्धभक्त्या लघुयोगिभक्त्या। तथा वंद्य: साधुना। कोऽसौ? स सूरि:। कया? सूरिभक्त्या। किविशिष्ट्या? लघ्व्या।
चंदनामती-माताजी! जैसे आहार के बाद गुरु के पास प्रत्याख्यान ग्रहण करने की बात है वैसे ही आहार से पहले भी यदि गुरु के पास आहार प्रत्याख्यान निष्ठापन करके साधु आहार को जाते हैं? तो क्या बाधा है?
श्री ज्ञानमती माताजी-सबसे बड़ी बाधा तो आगम आज्ञा का उलंघन है। जैसा कि ऊपर आगम पंक्तियाँ दी ही गई हैं। पहले गुरु के पास प्रत्याख्यान निष्ठापन इसलिए नहीं किया जाता है कि सिद्धभक्तिपूर्वक प्रत्याख्यान निष्ठापन के पश्चात् समस्त अन्तरायों का पालन आवश्यक हो जाता है तथा मान लो किसी कारण से आहार की विधि नहीं मिली तो अगले दिन आहार लेने तक उनको अप्रत्याख्यान में ही रहना पड़ेगा।
अथवा किसी साधु का मार्ग में मरण हो जावे तो प्रत्याख्यानरहित मरण कहलाएगा किन्तु चौके में प्रत्याख्यान निष्ठापन करने पर इन दोषों की संभावना नहीं रहती है। भोजन के अंत में वहीं (चौके में) प्रत्याख्यान ग्रहण करने में हेतु दिया है कि यदि कदाचित् गुरु के पास आते हुए मार्ग में मरण भी हो जाये तो वह प्रत्याख्यानपूर्वक होगा। बाद में दुबारा गुरु के पास भी विधिवत् प्रत्याख्यान ग्रहण करने का आदेश भी दिया है।
यहाँ यह बात ध्यान देने की है कि आहार से पूर्व गुरु के पास प्रत्याख्यान निष्ठापन न करने से गुरु का कोई अपमान नहीं है बल्कि यह परम्परा कब से, किसने और किस आधार से चालू की है मुझे समझ में नहीं आता। साधु की तो प्रत्येक क्रिया के लिए आगम के आधार भरे पड़ें हैं। क्रियाकलाप में भी यही विधि है एवं हमें गुरुपरम्परा से भी यही विधि प्राप्त हुई है। बात यह है कि अनगारधर्मामृत, मूलाचार और आचारसार आदि चरणानुयोग के ग्रंथों का स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए, उसी से इन सब क्रियाओं का ज्ञान होता है।
चंदनामती–वंदामि माताजी! आपसे आज इन दो प्रश्नों का समाधान पाकर बड़ी प्रसन्नता हुई। आपका ज्ञानरूपी वरदहस्त हम सबके मस्तक पर सदैव बना रहे, इसी कामना के साथ लेखनी को विराम देती हूँ।