जैनधर्म के बाइसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ की जन्मस्थली ‘‘शौरीपुर’’उत्तर प्रदेश के आगरा जिले में है। यह तीर्थ यमुना तट पर बसा हुआ है। यह स्थल सिद्धक्षेत्र के रूप में प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ है क्योंकि यहाँ से अनेक मुनियों ने निर्वाणधाम को प्राप्त किया था। शौरीपुर में माता शिवादेवी और पिता समुद्रविजय से श्रावण शुक्ला षष्ठी में श्री नेमिजिनेन्द्र उत्पन्न हुए थे। हरिवंशपुराण में भी कथन आया है-
अर्थ –भगवान् नेमिनाथ के स्वर्गावतार से छह माह पहले से लेकर जन्म पर्यंत पन्द्रह मास तक इन्द्र की आज्ञा से शौरीपुर निवासी राजा समुद्रविजय के घर देवों ने रत्नों की वर्षा की थी। उपर्युक्त उल्लेखों से स्पष्ट है कि बाइसवें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ ने शौरीपुर नगर में राजा समुद्रविजय के यहाँ जन्म लिया, इसके उपलक्ष्य में इन्द्रों और देवों ने भगवान के गर्भ और जन्मकल्याणकों का महान् उत्सव शौरीपुर में मनाया था। भगवान के इन दो कल्याणकों के कारण यहाँ की भूमि अत्यन्त पावन हो गई, जिससे आज इसे तीर्थ के रूप में माना जाता है। भगवान के इन दो कल्याणकों के अतिरिक्त यहॉं पर कई अन्य मुनियों को केवलज्ञान और निर्वाणप्राप्ति के उल्लेख भी पौराणिक साहित्य में उपलब्ध होते हैं। शौरीपुर में गन्धमादन नामक पर्वत पर रात्रि के समय सुप्रतिष्ठ नामक मुनिराज ध्यानमुद्रा में विराजमान थे। सुदर्शन नामक एक यक्ष ने पूर्व जन्म के विरोध के कारण मुनिराज पर घोर उपसर्ग किया। मुनिराज अविचल रहे, अनन्तर उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई। हरिवंशपुराण में वर्णन आया है कि कुछ समय पश्चात् शौरीपुर नरेश अन्धकवृष्णि और मथुरा नरेश भोजकवृष्णि ने इन्हीं केवली भगवान् के निकट मुनि दीक्षा ले ली।
इसी प्रकार से आराधना कथा कोष में एक कथा आई है- अमलकण्ठपुर के राजा निष्ठसेन के पुत्र धन्य ने भगवान नेमिनाथ के उपदेश से मुनिदीक्षा धारण कर ली। एक दिन विहार करते हुए मुनि ‘‘धन्य’’ शौरीपुर पधारे, वहाँ यमुनातट पर वे ध्यानारूढ़ हो गये। शौरीपुर का राजा शिकार से लौटा, शिकार न मिलने के कारण वह मन में बड़ा खिन्न हो रहा था। मुनिराज को देखते ही उसे लगा कि हो न हो, इस नग्न मुनि के कारण ही मुझे सारे दिन भटकने पर भी शिकार नहीं मिल पाया। यह सोचकर अपने निराशाजनक क्रोध के कारण उस मूर्ख ने उन वीतराग मुनि को तीक्ष्ण बाणों से बींध दिया। मुनि धन्य शुक्ल ध्यान द्वारा कर्मों को नष्ट कर सिद्धपद को प्राप्त हुए। उस समय इन्द्रों ने उनका निर्वाण महोत्सव मनाया। एक ‘‘अलसत्कुमार’’ नाम के मुनि ने भी शौरीपुर से मोक्षपद प्राप्त किया तथा भगवान महावीर के समय ‘‘यम’’मुनिराज भी अन्तःकृत केवली होकर यहीं से मोक्ष गए हैं। यह स्थान दानी कर्ण की जन्मभूमि है। प्रसिद्ध दार्शनिक विद्वान् आचार्य प्रभाचन्द्र के गुरु आचार्य लोकचन्द्र यहीं हुए थे। आचार्य प्रभाचन्द्र ने जैन न्याय के सुप्रसिद्ध ग्रंथ प्रमेयकमल मार्तण्ड की रचना यहीं पर की थी इस प्रकार की अनुश्रुति है। श्री शौरीपुर की प्राचीन समृद्धि निर्विवाद है। इतिहासरत्न डा. ज्योतिप्रसाद के अनुसार १९वीं सदी के पूर्वाद्र्ध में कर्नल टॉड और उसी सदी के अन्तिम चरण में जनरल कनिंघम और उनके सहयोगी कार्लायल ने यहाँ के खण्डहरों का सर्वेक्षण किया था और सिद्ध किया था कि प्राचीन काल में यह नगरी अत्यन्त समृद्धशाली थी। यहाँ पर अनेक बार हीरे के नग तथा ऐतिहासिक मुद्राएं आदि मिलने की बात सुनी व लिखी गई हैं। अनेक दिगम्बर जैन मूर्तियाँ और चिन्ह यहाँ प्राप्त हुए हैं। मध्यकाल में १९वीं सदी तक यहाँ दिगम्बर जैन भट्टारकों की गद्दी रही है। उनकी धार्मिक चर्चाओं और सिद्धियों से जनता बहुत प्रभावित थी। मूलतः यह दिगम्बर जैन तीर्थ है। जितने प्राचीन मंदिर, मूर्तियाँ और चरण हैं सभी दिगम्बर परम्परा के हैं। आसपास के जैन स्त्रीपुरुष यहाँ मुण्डन, कर्णबेधन आदि संस्कार कराने आते हैं। यह क्षेत्र मूल संघाम्नायी भट्टारकों का स्थान रहा है। भट्टारक जगतभूषण और विश्वभूषण की परम्परा में अठारहवीं शताब्दी में जिनेन्द्र भूषण भट्टारक हुए हैं, ये मंत्रवेत्ता सिद्धपुरुष थे। इनके चमत्कारों के संबंध में अनेक किंवदन्तियाँ अब तक प्रचलित हैं। उन्होंने भिण्ड, ग्वालियर, आरा,पटना, सम्मेदशिखर, सोनागिरि, मसाड़ आदि कई स्थानों पर विशाल मंदिर तथा धर्मशालाएं बनवाई जो अब तक विद्यमान हैं। वर्तमान में शौरीपुर और बटेश्वर दो अलग-अलग तीर्थ हैं। यह शौरीपुर से मात्र ३ किमी. दूर है तथा यहाँ ग्राम पंचायत का मुख्यालय है। बटेश्वर के दिगम्बर जैन मंदिर के विषय में कहा जाता है कि जब शौरीपुर यमुना नदी के तट से अधिक कटने लगा और बीहड़ हो गया, तब उक्त भट्टारक जी ने बटेश्वर में विशाल मंदिर और धर्मशाला बनवाई। यह मंदिर महाराज बदनसिंह द्वारा निर्मापित घाट के ऊपर वि. सं.१८३८ में तीन मंजिल का बनवाया गया था। उसकी दो मंजिलें जमीन के नीचे हैं। इस मंदिर में महोबा से लाई हुई भगवान् अजितनाथ की पांच फुटी ऊँची कृष्ण पाषाण की सातिशय पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। उसकी प्रतिष्ठा संवत् १२२४ वैशाख वदी ७ सोमवार को परिमाल राज्य में आल्हा ऊदल के पिता जल्हड़ ने करायी थी। यह जनश्रुति यहाँ की प्रसिद्ध है कि उपर्युक्त अजितनाथ की विशाल प्रतिमा जी महोबा से पालकी में विराजमान होकर आकाशमार्ग से बटेश्वर पधारी थीं। यहाँ अनेक प्राचीन मूर्तियाँ भी विराजमान हैं। इनमें भगवान् श्री शांतिनाथ की सं. ११५० (ई. १०९३) की प्रतिष्ठित एक खड्गासन मूर्ति भी हैं, जिसकी छवि बड़ी मनोहारी है। जैन मान्यतानुसार शौरीपुर का इतिहास महाभारत काल से भी कुछ पूर्व से प्रारंभ होता है। इस जैन मान्यता का समर्थन भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की ओर से मार्च सन् १९७२ में किये गये सर्वेक्षण से भी होता है जो कि श्री जगदीशसहाय निगम ने किया था। एक बार क्षेत्र कमेटी ने आदि मंदिर के दक्षिण की ओर एक टीले की खुदाई कराई थी, फलतः उसमें अनेक सांगोपांग तथा खण्डित जैन प्रतिमाएं निकली थीं। वर्तमान में यहाँ आगरा के सक्रिय कार्यकर्ताओं द्वारा क्षेत्र के जीर्णोद्धार एवं विकास की अच्छी योजनाएं चल रही हैं। मार्च २००२ में पूज्य गणिनीप्रमुखश्री ज्ञानमती माताजी का संघ सहित इस तीर्थ पर मंगल पदार्पण हुआ, उस समय उन्होंने कमेटी के लोगों को शौरीपुर तीर्थ विकास की सुन्दर रूपरेखा बताई थी। संभवतः तदनुसार वहाँ का निर्माण चल रहा होगा। इस पावन तीर्थ शौरीपुर को शत शत नमन।