अहंकार का त्याग
बुद्धि दी प्रकार की होती है सदबुद्धि और कुयुद्धि। प्रतिभा को जिस प्रकार की बुद्धि का संग संग मिल जाता है, उसकी वैसी ही गति हो जाती है। प्रतिभाशाली व्यक्ति के पीछे अहंकार एक परछाई की तरह पीछे लग जाता है। सद्बुद्धि वाला व्यक्ति तो सही समय पर जाग जाता है और इससे पीछा छुड़ाने का प्रयास करने लगता है। फलस्वरूप सत्य का भान होते ही विनम्रता को अंगीकार कर लेता है। इसके विपरीत कुबुद्धि वाला व्यक्ति कितना ही प्रतिभशाली क्यों न हो, अहंकार को गले का हार बनाकर पतन की राह पर बढ़ता जाता है। इन दिनों जगह-जगह रामलीला के मंचन में दिखाया जाने वाला दशानन रावण भी अहंकार का ही प्रतीक है। रावण के दस सिर किसी असाधारण विशेषता या असामान्य शारीरिक संरचना को प्रदर्शित नहीं करते, वरन सामान्य व्यक्ति की तुलना में दस गुना अधिक अहंकार के द्योतक हैं। दशहरे पर रावण का पुतला जलाने के पीछे यही मर्म समझाने का संदेश होता है। स्वयं को कर्ता और स्वामी समझने का अहंकार
भाव व्यक्ति के अंदर नैसर्गिक पवित्रता को दूषित कर देता है। व्यक्ति स्वयं को ईश्वर के अधीन नहीं, अपितु स्वयं को ईश्वर के समकक्ष समझने लगता है। उसे लगने लगता है कि वह जो चाहे पा सकता है। अपने भाग्य का भाग्यविधाता वही है। वह भूल जाता है कि यह मायावी दुनिया ईश्वर की रची हुई है। स्वयं को सर्वेसर्वा समझने वाला व्यक्ति तो मात्र एक चकरी वाले झूले में बैठा उत्थान के सर्वोच्च बिंदु पर है, जहां से पतन के निम्नतम बिंदु तक आना तय है। इस चकरी से निकलने का एकमात्र रास्ता है कि अपनी समस्त उपलब्धियों को ईश्वर पर अर्पित करते जाना, अहंकार का पूर्णतः त्याग कर देना, सरल एवं विनम्र हो जाना। सफलता और असफलता सब ईश्वर द्वारा ही प्रायोजित है। रावण जैसे महाज्ञानी, परम विद्वान, शास्त्रों के ज्ञाता, बुद्धिमान राजा को अहंकार ने ही तो एक खलनायक के रूप में सदा के लिए स्थापित कर दिया। अहंकार का परित्याग ही श्रेयस्कर है।