भक्ति
भक्ति के बिना जीवन का उद्धार संभव नहीं। ईश्वर की कृय जब होती है तभी करने का सुअवसर मानव को मिलता है। मनुष्य निमित मात्र है, उनकी इच्छा के बिना कुछ संभव नहीं। उनकी कृपा के बिना एक पता भी नहीं हिलता। प्रभु सृष्टि के सुजनहार, पालनहार और कल्याण के अधिष्ठाता है। कहा जीवनदाता, जीवनरक्षक, मृत्युचता है। प्रभु की लीला विचित्र है। इसे समझने के लिए ही हमें यह दुर्लभ मानव जीवन मिला है।
अपने लिए सुख-सुविधा मांगने वाली पूजा પીપળ નહી .. પn non ng, માર્ગીય શ્રી कहते हैं। भक्ति की पहचान सेवा से होती है, अपने स्वार्थ से नहीं। स्वार्थ में विवेक काम नहीं करता। भक्ति से ज्ञान मिलता है। ईश्वर के विराट स्वरूप और उनके क्रियाकलाप को भक्त ज्ञान से जानता है। तुलसीदास ने भी कहा है कि ईश्वर को जाने बिना प्रीत नहीं और बिना प्रीत के भक्ति संभव नहीं। भक्ति के क्रम में भक्त अपनी सुधबुध खो देता है। तब भक्त एवं भगवान में अंतर नहीं रह जाता। मन में अंतर, द्वंद्व, भेद, दुर्भाव है तो भक्ति नहीं। भगवान भक्त के भाव के भूखे होते हैं। भक्त की प्रसन्नता के लिए वह सारथी बनते हैं। भक्ति से शक्ति, धैर्य, साहस, शांति, बल, बुद्धि, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, दिव्य-दृष्टि की प्राप्ति होती है। लौकिक-पारलौकिक जीवन की समझ बढ़ती है। व्यक्ति माया, लोभ-मोह के कीचड़ से निकलने के लिए मन में त्याग अपनाता है, तभी वह आनंदित होता है। उसे इस आनंद के समक्ष संसार का सुर्ख नीरस एवं फीका लगने लगता है। भक्ति से आत्मबोध होता है।
ध्रुव, प्रह्लाद, मीरा, रैदास, रामकृष्ण परमहंस, चैतन्य महाप्रभु और शबरी की भक्ति अमर है। भक्ति के आगे भगवान झुकते हैं। दुनिया में भक्ति से बड़ा कोई कार्य नहीं। भवसागर से पार पाने का सर्वप्रमुख आधार भक्ति है। भक्ति भक्त को श्रेय मार्ग से प्रेय मार्ग की ओर ले जाती है, उसके जीवन को धन्य बनाती है।