उल्लास की अनुभूति
त्योहारों और मंगल अवसरों पर हमारा मन स्वतः उल्लासित हो जाता है। उसके लिए कोई विशेष यत्न नहीं करना पड़ता। इसका कारण मनुष्य के व्यवहार में निहित है, क्योंकि किसी अवसर पर वह आनंद प्राप्त करना चाहता है। यह इच्छा उसके व्यवहार को परिवर्तित कर देती है। वह अपने परिचितों, अपरिचितों को शुभकामना देता है। अपने मन के आनंद में अन्य की सहभागिता चाहता है। इन अवसरों पर वह मन के दुराग्रह विसार देता है। पूरे समाज में ऐसी भावना उत्पन्न होती है जिससे अशुभ का व्यापक निग्रह होता है और शुभ का परिग्रह होने लगता है। इस तरह मन का उल्लास सामाजिक उल्लास बन जाता है।
मनुष्य को कैसे रहना है यह पूर्णतः उसकी इच्छा पर निर्भर है। उसे सुगंध चाहिए तो गुलाब के फूल उगाने का श्रम करना पड़ेगा। आनंद की कामना है तो खेती भी आनंद की करनी पड़ेगी। स्वयं तो मनुष्य विष से भरा हो और अमृत की आशा करे भी तो अमृत धारण कैसे करेगा। मनुष्य के अंदर सबसे मारक विष ईर्ष्या का है। अन्य की उपलब्धियां, सफलताएं उससे सहन नहीं होतीं। वह उनमें दोष ढूंढ़ता है और अवमूल्यन के प्रयत्न करता है। किसी को जो भी प्राप्त हो रहा है वह परमात्मा की आज्ञा और इच्छा के अंतर्गत है। किसी अन्य की उपलब्धि पर ईर्ष्या परमात्मा के न्याय को चुनौती है और स्वयं के पास जो है उसके लिए परमात्मा के प्रति अकृतज्ञ होना है। यह संताप और दुख में ले जाने वाली है। इसमें आनंद की आशा करना निर्मूल है। आनंद चाहिए तो परमात्मा के न्याय और आभार में जीवन जीना सीखना होगा।
मनुष्य स्वयं पर ध्यान केंद्रित करे कि परमात्मा ने उसे कितना कुछ दिया है। चौरासी लाख योनियों में भटकते असंख्य जीवों में सबसे सर्वोत्तम मनुष्य जीवन के लिए परमात्मा ने उसे चुना। परमात्मा ने उसे सुंदर सृष्टि की आनंदानुभूति के योग्य बनाया है। जिसने इस आनंद का अनुभव कर लिया, उसका जीवन उल्लास से भर जाएगा।