तृप्ति
जीवन में आत्मसंतुष्टि है। आत्मसंतुष्टि के अभाव मनुष्य को रिक्तता की अनुभूति होती है। का भाव सदैव कचोटता रहता है। भोग खाने के बाद भी अच्छा नहीं लगता कहते हैं कि तृप्ति नहीं मिली। वहीं कई बार सूखा खाने के बाद भी तृप्ति की अनुभूति हो है तो आत्मसंतोष के भाव के कारण हमारे जीवन का एक सर्वव्यापी लक्ष्य होता है कि हमें आत्मसंतुष्टि मिले। तृप्ति की एक स्वाद कहना भी गलत नहीं होगा। इसके स्वाद में एकरसता नहीं होती। यह अनेक रसों में प्रवाहित होता है। उसके स्वाद की विविधता को देखते ही विभिन्न रसों की संकल्पना अस्तित्व में आई होगी। वस्तुत, विविधता ही हमारा स्वभाव है। व्यक्ति कई खानों में बंटी हुई पहेली की तरह है। वह सबसे अधिक अनिश्चित एवं असंभावित है। कब क्या करेगा, इसे वह स्वयं भी नहीं जानता। इसमें हमारे मनोभावों की बड़ी भूमिका होती है और यही मनोभाव आत्मसंतुष्टि या तृप्ति के स्तर को भी निर्धारित करते हैं। वैसे तो तृप्ति पाने के लिए मनुष्य तमाम भौतिक
साधनों-संसाधनों का आश्रय लेता है, लेकिन उनके माध्यम से मिलने वाली तृप्ति क्षणिक होती है। हम स्वयं कभी उग्र, तो कभी विनम्र भाषा का प्रयोग कर अपनी पीठ थपथपाते हैं। मनुष्य केवल धन, वस्तु एवं ऐश्वर्य आदि की प्राप्ति एवं उनके भोग से ही तृप्त नहीं हो सकता। हम केवल भांति-भांति के भोजन और स्वाद से ही तृप्ति का अनुभव नहीं करते हैं, बल्कि हमारी आंखें भी सुंदर दृश्य देखना चाहती हैं। प्रकृति के मनोहर दृश्यों का रसास्वादनान करना चाहती हैं। हमारे कान मधुर संगीत सुनना चाहते हैं। हमारी नासिका सुगंध चाहती है। दूसरी ओर, जो प्रेमी और भक्त हैं, ज्ञानी और धनवान हैं, वे कभी तृप्त नहीं होते। तृप्त होने पर मनुष्य शहद के छत्ते को भी ठुकरा देता है, परंतु भूखे को कड़वी वस्तु भी मीठी लगती है।