श्रद्धा
जहां पर हमारी भावनाएं गहराई से जुड़ी हों, जिन चीजों के प्रति हमारे मन में गहरी आस्था एवं विश्वास हो तथा जिनके प्रति हमारी रुचि रहती हो, वहीं श्रद्धा होती है। श्रद्धा एक तरह से हमारे व्यक्तित्व का आधार है। वह हमारी भावनाओं का । केंद्र भी है, क्योंकि इसी के इर्द-गिर्द हमारा जीवन संचालित होता है। हम अपनी श्रद्धा के अनुरूप ही किसी भी चीज के प्रति अपनी रुचि झुकाव प्रदर्शित करते हैं। प्रदा के अनुसार ही हमारी चिंतनशैली और विचार बनते-बिगड़ते रहते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो हमारी प्रवृत्ति, व्यवहार, आहार-विहार हमारी श्रद्धा के अनुसार ही होते हैं।
इसके बल पर ही हम उस क्षेत्र में लगातार बढ़ते रहते हैं। अभ्यास करने से यह श्रद्धा बढ़ती है और अभ्यास के दौरान यदि किसी भी प्रकार का इससे लाभ मिलता है तो हमारी श्रद्धा और भी गहरी होती जाती है। वहीं लगातार किसी भी प्रकार की हानि से हमारी श्रद्धा घटती रहती है। इसीलिए जो नृत्य एवं गायन के प्रति श्रद्धां रखते हैं वे भांति-भांति से नृत्य करना सीखते हैं। उसमें अपनी महारत भी हासिल करते हैं। यदि किसी व्यक्ति की रुचि व्यसनों के प्रति होती है तो वही कड़वी और बदबूदार चीजें उसे अत्यंत प्रिय लगने लगती हैं।
कहने का तात्पर्य यह है कि श्रद्धा के अनुसार ही व्यक्ति अपने लिए कार्यक्षेत्र का चुनाव करता है। यदि उसकी श्रद्धा अच्छी चीजों के प्रति है तो उसका व्यक्तित्व सुविकसित होता है। यदि उसकी श्रद्धा बुरी चीजों के प्रति है तो उसका व्यक्तित्व विकृत होता है। अच्छी चीजों के प्रति रुचि होने के कारण व्यक्ति अपने जीवन में पुण्य संपदा अर्जित करता है। बुरी चीजों या निम्न कोटि की चीजों के प्रति श्रद्धा होने से व्यक्ति अपने जीवन में पाप संपदा अर्जित करता है। इसलिए हमें अपनी श्रद्धा के चुनाव के प्रति बड़ा सजग रहना चाहिए जिससे कि हम समाज के लिए एक उदाहरण भी बन सकें। तभी हमारा जीवन सार्थक हो सकता है।