जब हम पीछे मुड़कर देखते हैं तो सुख-दुख के पल हमारी आंखों के सामने घूमने लगते हैं। हमें अपने परिवार और समाज से जो कुछ मिला उससे मन प्रफुल्लित होता है, लेकिन इस आगे बढ़ने की होड़ में कहीं न कहीं हम अपने कोमल हृदय में व्याप्त संवेदनाओं को खोते जा रहे हैं। और यही संवेदनशून्यता हम अपनी आने वाली पीढ़ी को विरासत में सौंपते जा रहे हैं। इससे पहले कि बहुत देर हो जाए हमें पहले स्वयं को संभालना होगा।
संवेदना दिल की धड़कन है। घर-परिवार और व्यवसाय से जुड़े उत्तरदायित्व निभाते-निभाते अक्सर दूसरों के प्रति या फिर स्वयं अपने प्रति हमारी संवेदना कहीं दब जाती है। ऐसे में व्यक्तिगत स्वार्थ एवं संकीर्णता से भरे हम केवल मशीनी हो जाते हैं। वास्तव में हम भीड़ और परिवार में होते हुए भी अकेले पड़ जाते हैं। कदाचित अपने करीब से करीब व्यक्ति के मन की थाह लेना दूभर हो जाता है। आज मोबाइल और इंटरनेट की आंधी ने आपसी संवेदनशीलता को क्षीण कर दिया है। स्वयं धैर्य रखकर आने वाली पीढ़ी को संवेदना से परिचित कराना ही हमारी सबसे मूल्यवान धरोहर है, जो हम उन्हें विरासत में दे सकते हैं।
संस्कार घर से ही शुरू होते हैं। आज मानसिक और शारीरिक विसंगतियों का बढ़ते जाना कहीं न कहीं रिश्तों में संवेदनहीनता का होना एक बड़ा कारण है। जैसे कोई मधुर संगीत सुनकर मन भावुक, रोमांचित एवं संवेदनापूर्ण हो जाता है, उसी प्रकार आरोप-प्रत्यारोपण को परे रखकर घर का माहौल भी संवेदनशील बनाने का प्रयास जरूरी है, वरना विकराल स्थिति का सामना करना पड़ सकता है। आज संसार में युद्ध जैसी विभीषिका में बच्चों की हृदयविदारक चीखें, महिलाओं की लाचारी यदि हमारे हृदय को वेदना से छलनी नहीं करती तो समझ लें कि हमारी संवेदना मर चुकी है। अंततः मन को स्थिर रखने के लिए आध्यात्मिक झुकाव मददगार बनता है। मनुष्य थक कर आखिर ईश्वर की शरण में ही आश्रय पाता है।