आज की तेज रफ्तार जिंदगी मनुष्य को अशांति, असंतुलन, तनाव, थकान तथा चिड़चिड़ाहट की ओर धकेल रही है, जिससे अस्त-व्यस्तता बढ़ रही है। ऐसी विषमता एवं विसंगतिपूर्ण जिंदगी को स्वस्थ तथा ऊर्जावान बनाए रखने के लिए संयम एवं तप एक रामबाण दवा है। यह मस्तिष्क को शांत, शरीर को स्वस्थ एवं जीवन-आकांक्षाओं को तृप्त रखती है। तप कोरे अध्यात्म से ही नहीं, आम जीवन से जुड़ा शब्द है, जिससे जीवन की गति को एक संगीतमय रफ्तार दी जा सकती है।
अनादिकाल से भारतभूमि तप भूमि के रूप में विख्यात रही है। यहां का कण-कण, अणु-अणु न जाने कितने योगियों की तप-साधना से आप्लावित हुआ है। एक तपस्वी एवं संयमी व्यक्ति का जीवन कठिन हो सकता है, पर असंभव नहीं। सचमुच कठिन है कीचड़ में रहकर कीचड़ से अनछुए कमल जैसा जीवन जीना । कान हो पर शब्द न सुने, आंख हो पर दृश्य न देखे, नाक हो पर गंध न सूंघे, जिह्वा हो पर स्वाद न चखे और त्वचा हो पर स्पर्श का अनुभव न करे-यह कैसे संभव है? किंतु ऐसी जीवनशैली और उसके उदाहरण भारतीय अध्यात्म क्षितिज पर निरंतर चमकते रहे हैं।
किसी भी व्यक्ति की जीवन-पद्धति उसके विचार और व्यवहार से ही संचालित होती है। आधुनिकता की दौड़ में मनुष्य अपने वास्तविक रहन-सहन, खान-पान, बोलचाल तथा जीने के सारे तौर-तरीके भूल रहा है। यही कारण है कि वह असमय ही भांति-भांति के मानसिक/भावनात्मक दबावों का शिकार हो रहा है। मानसिक संतुलन गड़बड़ा जाने से शारीरिक व्याधियां भी अपना प्रभाव जमाना शुरू कर देती हैं। जितनी आर्थिक संपन्नता बढ़ी है, संसाधनों का विकास हुआ है, जीवन उतना ही अधिक बोझिल बन गया है। तनावों/दबावों के अंतहीन सिलसिले ने आत्म- विकास की जड़ों को हिलाकर रख दिया है। तप ही एक ऐसा माध्यम है, जो जीवन के असंतुलन को नियोजित कर सकता है।