सुख और आनंद एक-दूसरे के पांव के रूप में प्रयोग किए जाते हैं, हैं, परंतु परंतु आध्यात्मिक दृष्टि से अगर विचार करें तो दोनों में बड़ा अंतर है। जी भी सामग्री या पदार्थ इंद्रियों को अच्छा लगता है या हमारी इंद्रियों के अनुकूल होता है उसे सुख कहा जाता है। सुख सदैव किसी व्यक्ति या भौतिक * बस्तु पर निर्भर करता है। आनंद संसार की भौतिक वस्तुओं एवं पदार्थों पर कदापि निर्भर नहीं करता। यह तो हमारी आंतरिक प्रकृति है। आनंद का भंडार ॥ हमारे भीतर ही विद्यमान है और इस आनंद की अनुभूति को ही अध्यात्म का चरम कहा गया है। नश्वर पदार्थों के उपभोग से उत्पन्न सुख भी नश्वर होता है। वह स्थायी नहीं होता। साधना के मर्मज्ञों ने आनंद को स्थायी माना है। सुख का संबंध केवल.. भौतिक शरीर से हैं। आनंद का संबंध आत्मा से है।
और आत्मा का परमात्मा या परमशक्ति से। सुख की खोज में मनुष्य विवेकहीन होकर आनंद से दूर होता जा रहा है। हमारी सारी क्रियाएं: तथा प्रयास केवल भौतिक सुख की प्राप्ति तक ही सीमित हैं। आनंद के लिए नहीं। आनंद के लिए मनुष्य को अपने भीतर की यात्रा करनी पड़ती है। इसे किसी भी परिस्थिति में रहकर प्राप्त किया जा:” सकता है। सुख बाहर की परिस्थितियों के अनुसार। न्यून अथवा समाप्त भी हो सकता है। आनंद सदैव स्थिर रहता है बाहरी परिस्थितियों से प्रभावित नहीं। होता। आनंद सुख और दुख से पूर्णतया अलग है। यह चेतन की एक उन्नत अवस्था है। आनंद की प्राप्ति ही जीवात्मा का वास्तविक स्वभाव है।
अधिकतर लोग सुख को ही आनंद समझते हैं। ऐसे भाग्यहीन मनुष्य आनंद की अनुभूति से सदैव वंचित ही रहते हैं। सांसारिक सुख मनुष्य के मानसिक पटल को अशांत, तनाव से ग्रस्त बना: देते हैं, क्योंकि इन सुखों में भी दुख मिश्रित होता। है। सुखों में संतुष्टि एवं संपूर्णता नहीं है। जितनी इनकी प्राप्ति होगी उतने ही यह कम पड़ते जाएंगे।। आनंद की अनुभूति को आत्मसात करने में ही मानव जीवन की सार्थकता निहित है।