जैन शासन में आत्मशुद्धि हेतु तपस्या करने वलो साधुओं को मुनि या श्रमण कहते हैं। जो विषय-वासनाओं, विकारों, आरंभ-परिग्रह से रहित हो तथा ज्ञान-ध्यान तपस्या में तल्लीन हों वे सच्चे साधु (तपस्वी) कहलाते हैं।
दिगंबर जैन मुनियों की साधना अत्यंत कठिन होती है, वे अनेक व्रत नियम पालते हैं, जिनमें 28 मूलगुणों की परिपालना अत्यंत आवश्यक है। मूलगुण अर्थात मुख्य गुण। जिनके बिना नम्न दिगंबर होने पर भी साधु-मुनि नहीं कहा जा सकता। 28 मूलगुणों की संक्षिप्त चर्चा इस प्रकार है-
पाँच महाव्रत :
महाव्रत जो अपने आप में महान हैं और महापुरुष जिनका पालन करते हैं, वे महाव्रत कहलाते हैं। वे पाँच हैं-
अहिंसा- किसी भी जीव-जंतु, पशु-पक्षी या मनुष्य को जरा भी तकलीफ नहीं देना, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति का भी संरक्षण करना अहिंसा महाव्रत है।
सत्य- किसी भी प्रकार से झूठ, कठोर या कषाय युक्त वचन नहीं बोलना।
अचौर्य- किसी प्रकार की चोरी नहीं करना, किसी भी वस्तु पर अधिकार नहीं जमाना।
ब्रह्मचर्य –ब्रह्म स्वरूप आत्मा में लीन रहना, संसार की सभी स्त्रियों को माँ, बहन, बेटी के समान समझना।
अपरिग्रह-दुकान-मकान, मठ-मंदिर, जमीन-जायदाद या किसी भी चेतन-अचेतन वस्तु पर अधिकार नहीं रखना, सर्वस्व त्याग करना।
पाँच समिति :
सम्यक् प्रवृत्ति को समिति कहते हैं। ये पाँच प्रकार की होती है-
ईर्या समिति- सूर्य प्रकाश में, किसी श्रेष्ठ उद्देश्य पूर्वक चार हाथ जमीन देखते हुए चलना। मुनि पैदल ही चलते हैं, किसी वाहन का उपयोग नहीं करते। जहाँ रात हो जाती है वहीं ठहर जाते हैं, चाहे जंगल हो या गाँव।
भाषा समिति-हित, मित, प्रिय वचन बोलना या मौन रखना।
एषणा समिति – 46 दोष और 32 अंतराय टालकर 24 घंटे में, दिन में केवल एकबार सद्गृहस्थ के घर विधि पूर्वक भोजन करना।
आदान-निक्षेपण समिति-देखभाल कर ही कोई वस्तु उठाना- धरना।
व्युत्सर्ग समिति- देखकर व्यवस्थित स्थान पर मल-मूत्र, कफ, थूक का विसर्जन करना।
पाँच इंद्रिय निरोध- स्पर्शन (शरीर), रसना (जीभ), घ्राण (नासिका), चक्षु (आँख), कर्ण (कान) इन पाँचों इंद्रियों को वश में रखना, मनमानी नहीं करना।
षडावश्यक :
1. हर हाल में समता (समभाव) रखना,
2. तीर्थंकरों की वंदना करना,
3. प्रभु की स्तुति करना,
4. कोई गलती हुई हो तो प्रतिक्रमण करना,
5. भविष्य के लिए त्याग करना प्रत्याख्यान है,
6. तन से ममत्व छोड़कर ध्यान करना कायोत्सर्ग है।
सात विशेष गुण :
ये गुण मुख्य रूप से दिगम्बर जैन मुनि में ही पाए जाते हैं, इसलिए विशेष गुण कहलाते हैं। यथा-
नग्नत्व – दिगम्बर जैन मुनि जब से संयम (दीक्षा) स्वीकारते हैं तब से आजीवन नग्न रूप में ही रहते हैं। कैसी भी सर्दी हो वे वस्त्र नहीं स्वीकारते। हर मौसम में प्राकृतिक रूप में ही रहते हैं। सभी संप्रदायों में दिगम्बरत्व की महिमा गाई गई है। वैदिक संस्कृति के नागा साधु भी निर्वस्त्र रहते हैं।
केशलोच-जैन मुनि दो , तीन या चार माह में एक बार केशलीच करते हैं। वे कैची या किसी साधन से केश (बाल) वहीं निकालते अपितु हाथ से उखाड़कर बालों को पैक देते हैं। अपने सम्वृद्धि, अयाचनावृत्तिव स्वाभिमान की रक्षा के लिए वे केशलीच करते हैं।
भूमिशयन- तपस्वी जैन मुनि बिस्तर, गरे या चारपाई पर नहीं सोते अपितु थकान मिटाने के लिए जमीन पर या लकड़ी के पाटे पर विश्राम करते हैं। रात्रि में ही कुछ देर शयन करते हैं, दिन में नहीं।
अदंतधावन- कभी देत मंजन नहीं करते।
अस्नान-कभी स्नान नहीं करते।
स्थिति भोजन– एक जगह पर खड़े होकर शुद्ध आहार विधिपूर्वक मिले तो ही करते हैं।
एक भुक्ति-24 घंटे में सिर्फ एक बार ही खड़े रहकर भोजन-पानी लेते हैं। कैसी भी गर्मी, प्यास या बीमारी हो तो भी दुबारा औषध या पानी कुछ भी नहीं लेते। जब जितने दिन का उपवास करते हैं तब पूरी तरह उतने दिन पानी भी नहीं पीते। निर्जल उपवास करते हैं।
निरंतर ज्ञान, ध्यान और तपस्या में लीन रहने वाले मुनि पढ़े-लिखे और अच्छे परिवारों के होते हैं। दीक्षा लेते ही वे गृहस्थी का त्याग करते हैं, फिर धन-संपत्ति, माता-पिता या परिवार से कुछ भी मोह नहीं रखते। आत्मा- परमात्मा की आराधना और जनता को धर्म मार्ग बताना ही उनका कार्य होता है। विश्व शांति और जगत कल्याण के लिए वे हमेशा प्रार्थना करते हैं। जिस गाँव या शहर में वे पधारते हैं, वहाँ सुख शांति व समृद्धि रहती है।