(पुष्कलावती देश के लोकोत्तर नामक नगर का दृश्य है। विद्याधर राजा विद्युत्गति का राजमहल) (विद्याधर राजा विद्युतगति का दरबार लगा है। महाराज मंत्रीगणों के साथ वार्ता में मग्न हैं। अचानक एक दासी प्रसन्न मुद्रा में राजदरबार में भागती हुई आती है)
दासी –महाराज की जय हो! महाराज की जय हो! बधाई हो महाराज! रानी विद्युन्माला ने पुत्ररत्न को जन्म दिया है। (महाराज प्रसन्न हो अपने गले का हार उतारकर उसे देते हैं और दासी जयकार करती हुई लौट जाती है)
महाराज-(अपने मंत्रीगणों से) मंत्री महोदय! सारे नगर में खुशियाँ मनाई जायें, आज हम बहुत प्रसन्न हैं। राजकोष खोल दो, कोई भी खाली हाथ न जाने पाए, सबको मुँहमाँगा धन बांटा जाए।
मंत्रीगण –जो आज्ञा महाराज! (सारे राज्य में खुशियाँ मनाई जा रही हैं, सब तरफ उल्लास का वातावरण है)
-दूसरा दृश्य-
(राजा विद्युत्गति एवं रानी विद्युन्माली सिंहासन पर विराजमान हैं, पास में ही बालक अग्निवेग बैठा है, पास में ढ़ेर सारे खिलौने पड़े हैं और दोनों उसे देखकर प्रसन्न हो रहे हैं)
राजा –देवी! वास्तव में हमारा पुत्र उत्तम लक्षणों से युक्त है। देखो तो उसकी चेष्टाएं एवं बालक्रीड़ा। इसकी खिलखिलाहट देखकर मन फूला नहीं समाता।
रानी – हाँ महाराज! इसको देखकर लगता है कि यह कोई होनहार जीव है। (इस प्रकार माता-पिता के मन को आनन्दित करता हुआ वह अग्निवेग शिशु पहले घुटनों, फिर पैरों के बल चलता हुआ बाल्यावस्था में प्रवेश करता है और जब कभी वह राजदरबार में प्रवेश कर जाता है तो सभी उसे अपनी गोद में लेकर हर्ष विभोर हो उठते हैं)
-तृतीय दृश्य-
राजदरबार का दृश्यराजा अपने दरबारियों के साथ वार्ता में मग्न हैं तभी बालक अग्निवेग एक दासी के साथ प्रवेश करता है। दासी एक ओर चुपचाप खड़ी हो जाती है और बालक दौड़कर अपने पिता की गोद में चढ़ जाता है।
राजा – (उसे दुलार करते हुए) अरे पुत्र! तू राजदरबार में आ गया। क्या बात है बेटे! आ जा, मेरे कलेजे से लग जा।
मंत्री –महाराज! आपका पुत्र बहुत ही होनहार है और सर्वांगीण सुन्दर है। लाइए महाराज, मैं भी इसे थोड़ा सा दुलार कर लूँ (राजा से लेकर उसे दुलार करते हुए) तभी सेनापति भी अपनी मनोभिलाषा व्यक्त करते हैं)
सेनापति – महाराज! मुझे भी इसे प्यार-दुलार कर अद्भुत आनन्द मिलता है, लाइए मंत्रीराज! मैं भी अपने आनन्द को वृद्धिंगत कर लूँ।
एक अन्य सभासद – हे प्रजापालक! हम सभी को अपने भावी महाराज को खिलाकर अपूर्व प्रसन्नता मिलती है। हम सब इसे प्यार करेंगे।
निर्देशक – (इस प्रकार राजदरबार में सभी उसे हाथों हाथ लेते हैें और विजयार्ध पर्वत के भावी महाराज को अपने अंक में भरकर अतिशायी आनन्द का अनुभव करते हैं। सौम्य प्रकृति का धारक यह शिशु दूज के चन्द्रमा के समान वृद्धिंगत होता हुआ सभी नगर के मन और नेत्रों को हरण कर रहा है)
-चतृर्थ दृश्य-
नगर का दृश्य है। युवा कुमार अग्निवेग रथ पर सवार नगर में भ्रमण कर रहे हैं। नगरवासी उसे देखकर वार्ता करते हैं।
एक पुरवासी – (दूसरे से) देखो भइया! यह अपने राजा का पुत्र कुमार अग्निवेग है।
दूसरा श्रावक –सचमुच! अपने महाराज का प्रतिबिम्ब ही है।
एक श्राविका – कितना सलोना है, कहीं नजर ना लग जाए।
दूसरी श्राविका – हाँ, बड़ी भाग्यवान होगी वह राजकुमारी जिसे यह वरण करेगा।
तीसरा श्रावक – भईया, बहनों! मेरा तो मन ही नहीं भर रहा है, जी करता है एकटक उसे निहारता ही रहूँ।
तीसरी श्राविका – भाई! आखिर हैं तो अपने भावी महाराज! रूप, गुण आदि सभी में विशेष होंगे ही, हम अपने महाराज की तरह इनकी छत्रछाया में भी सर्वदा प्रसन्न रहेंगे।
निर्देशक –(नगरवासी अपने-अपने विचार में मग्न हैं और कुमार अग्निवेग अपने विचार में, क्योंकि उन्हें सर्वदा जिनेन्द्र भगवान की भक्ति ही भाती है। यूँ तो राजा विद्युत्गति ने उनका युवराज पद पर अभिषेक कर दिया है लेकिन वह नित्य ही जिनभक्ति में अपने को समर्पित कर चुके हैं।)
-पाँचवा दृश्य-
निर्देशक – (युवराज अग्निवेग अपने पिता से राज्य संपदा को प्राप्त कर कुशलतापूर्वक राज्य संचालन करते हुए जीवन यापन कर रहे थे तभी एक दिन वह समाधिगुप्त नामक मुनिराज के दर्शन करते हैं और पंचेन्द्रिय विषयों को विषवत् समझकर उनसे विरत हो जाते हैं) (जिनमंदिर का दृश्य है। युवराज अग्निवेग जिनेन्द्रदेव की पूजा-आराधना करके उठते हैं तो वहीं उन्हें समाधिगुप्त मुनिराज के दर्शन हो जाते हैं और वे उन्हें नमोस्तु कर धर्मश्रमण हेतु उनके पास बैठ जाते हैं।)
कुमार अग्निवेग – नमोऽस्तु भगवन्! नमोस्तु!
मुनि श्री – सद्धर्मवृद्धिरस्तु!
कुमार अग्निवेग – हे महामुनि! आपका रत्नत्रय कुशल तो है?
मुनि श्री –हाँ वत्स!
कुमार – प्रभो! रत्नत्रय निधि स्वरूप गुरुवर! कृपा कर अपने दिव्य धर्मामृत से हमें अभिसिञ्चत करें।
मुनि श्री –हे भद्र! इस संसार में जिनधर्म और सम्यग्दर्शन के समान और कोई अनमोल निधि नहीं है, वही प्रत्येक प्राणी को संसार समुद्र से पार करने वाला है अत: सदैव उसी का आश्रय लेना चाहिए। यह जीव अनादि काल से इस संसार में परिभ्रमण कर रहा है, बड़े भाग्य से ही उत्तम कुल, उत्तम जाति, उत्तम शरीर और उत्तम बुद्धि मिलती है अत: उसका सदुपयोग करना चाहिए।
कुमार अग्निवेग – (मन में), हे गुरुदेव! आप सच ही कह रहे हैं, इस संसर में कौन अपना, कौन पराया। यह राज्य संपदा, धन-वैभव सब क्षणिक हैं, नश्वर हैं, अविनश्वर सुख तो मोक्ष मे हैं जिसकी प्राप्ति के लिए मुझे सतत प्रयत्न करना होगा। (उन्हें तत्क्षण ही विषय भोगों से वैराग्य हो जाता है) (पुन: मुनिराज से) हे गुरुदेव! कृपा कर मुझे भवदधितारणी जैनेश्वरी दीक्षा प्रदान कर कृतार्थ करें।
मुनि श्री –तुम्हारा विचार अति उत्तम है, तुम अवश्य ही निकट संसारी हो, शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त करोगे।
-छठा दृश्य-
निर्देशक – (इस प्रकार कुमार अग्निवेग पंचेन्द्रिय विषय भोगों को तृणवत् त्यागकर मुनिराज से पंचमहाव्रतों को प्राप्त कर स्वयं में कृतकृत्यता का अनुभव करने लगे और घोरातिघोर तपश्चरण करने लगे। सर्वतोभद्र आदि श्रेष्ठ उपवासों के द्वारा शरीर को क्षीण करते हुए भी वे निजात्मा के अनुभवरूप परमानन्दामृत को पीकर तृप्त हो रहे थे और सदैव शुद्धात्मा का ध्यान किया करते थे। एक दिन वे वन में हिमगिरि पर्वत की गुफा में ध्यान में लीन थे कि भयंकर अजगर सर्प वहाँ आता है और मुनि श्री को देखते ही वह क्रोध से भयंकर होकर उन्हें निगल लेता है) (वन का दृश्य तथा उसमें पशु-पक्षी आवाज करते दिखावें)
मुनिराज अग्निवेग – (ध्यान मुद्रा में) ॐ नम: सिद्धेभ्य:, ॐ नम: सिद्धेभ्य:, ॐ नम: सिद्धेभ्य:….।। (तभी एक भयानक अजगर सर्प आ जाता है)
निर्देशक –(पूर्व जन्म के संस्कार से वह अजगर तेजी से पुâक्कारते हुए मुनिराज को निगलना शुरू कर देता है और मुनिराज परम समता भाव से जिनेन्द्र भगवान की भक्ति में लीन होते जाते हैं)
मुनिराज –(मन में) ॐ नम: सिद्धेभ्य:। आत्मा भिन्न है, शरीर भिन्न है। जब देह ही मेरा नहीं तो किससे राग, किससे द्वेष, कौन शत्रु-कौन मित्र। परम वीतरागी आत्म तत्त्व का चिंतन ही मोक्ष प्राप्ति में सहायक होगा। ॐ सिद्धाय नम:-२।। (इस प्रकार आत्म तत्त्व का चिंतवन करते-करते इस नश्वर शरीर से छूटकर वे मुनिराज सोलहवें स्वर्ग के पुष्कर विमान में देव हो जाते हैं)