निर्देशक –(वाराणसी नगरी में महाराज अश्वसेन अपने सिंहासन पर स्थित हैं-बंदीगण महाराज के अगणित गुणों का बखान कर रहे हैं तथा समय-समय पर मंत्रीगण राज्य की सुव्यवस्था और प्रजा के सुख वैभव का वर्णन करते हुए महाराज को प्रसन्न कर रहे हैं। इसी बीच सौधर्म स्वर्ग में अपनी सुधर्मा सभा में बैठे सौधर्म इन्द्र ने अपने दिव्य अवधि लोचन से कुछ देखकर पुन: धनपति कुबेर को बुलाकर कहते हैं।
-सौधर्म इन्द्र की सुधर्मा सभा का दृश्य-
अप्सरा द्वारा नृत्य-अचानक सौधर्म इन्द्र का आसन कम्पायमान होता है और वे अपने अवधिज्ञान से सब बातें जान जाते हैं-
सौधर्म इन्द्र –ओह! यह क्या! मेरा आसन क्यों कंपायमान हो रहा है। (सोचकर) अरे! वाराणसी नगरी में आज से १५ माह पश्चात् तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ जन्म लेने वाले हैं। आज से नौ माह पश्चात् वे महारानी वामादेवी की पवित्र कुक्षि से अवतरित होंगे। जय हो, जय हो, तीर्थंकर नाथ की जय हो। (पुन: धनपति कुबेर का स्मरण करते हैं और कुबेर का आगमन होता है।)
सौधर्म इन्द्र –हे धनद! आनन्द नरेश का जीव जो कि यहाँ आनत स्वर्ग में इन्द्रपद के सुखों का उपभोग कर रहा है उसकी आयु छह माह ही शेष रही है, वे तेईसवें अवतार हैं। इसलिए अब शीघ्र ही तुम बनारस नगर में जाओ और त्रिभुवन तिलक के जनक बनने का अतिशय सौभाग्य प्राप्त करने वाले महाराजा अश्वसेन के महल में लगातार १५ माह तक रत्नों की वर्षा करना शुरू कर दो।
धनकुबेर – जो आज्ञा महाराज!
निर्देशक – (इतना कहकर हाथ जोड़कर इन्द्रराज को प्रणाम कर वह वहाँ से वाराणसी नगरी में पहुँचता है और माता वामादेवी के आंगन में अमूल्य रत्नों की वर्षा करना प्रारंभ कर देता है, उस समय ऐसा मालूम होता है कि मानों स्वर्गलोक की लक्ष्मी ही जिनमाता की सेवा के लिए उतरी हो। राजमहल में रत्नवृष्टि हो रही है यह देखकर जनता आश्चर्यचकित है-
एक व्यक्ति – देखो, देखो, रत्नवृष्टि हो रही है, कैसा अनुपम दृश्य है। दूसरा – हाँ, वह तो मैं भी देख रहा हूँ, पर इतना तो बताओ कि यह वृष्टि क्यों हो रही है?
पहला –अरे भाई! कमाल है, क्या तुम्हें यह भी नहीं मालूम! अपने महाराज अश्वसेन हैं ना। उनकी रानी वामादेवी से तीर्थंकर प्रभु का जन्म होने वाला है।
दूसरा – क्या कहा? पुत्र जन्म होने वाला है। लेकिन यह जो रत्नवृष्टि कर रहा है, उसे कैसे मालूम हुआ? (धनकुबेर की ओर इशारा कर)
पहला –भईया! तुम्हें नहीं मालूम, यह तो स्वर्ग से ही आए हुए धनकुबेर हैं।
दूसरा – क्या! धनकुबेर! मुझे विस्तार से बताओ भाई।
पहला – सुनो! सौधर्म इन्द्र ने अपने अवधिज्ञान से सब कुछ जानकर धनकुबेर को यहाँ रत्नवृष्टि करने भेजा है।
दूसरा –अच्छा! समझ गया, अपने वाराणसी नगरी में तीर्थंकर भगवान जन्म लेने वाले हैं।
पहला – हाँ, अब से पन्द्रह माह तक लगातार रत्नवृष्टि होगी।
दूसरा – भला, पन्द्रह मास तक क्यों?
पहला –इसलिए क्योंकि आज से छह महीने बाद प्रभु गर्भ में आएंगे और नव महीने बाद जन्म लेंगे।
दूसरा – सचमुच तीर्थंकर प्रभु की महिमा अपार है।
एक अन्य पुरुष – भाइयों! जब जन्म से पहले ही इतना अतिशय है तो जन्म लेने के बाद बड़ा ही आनन्द आएगा।(तभी एक बहन उधर आती है)
बहन –भाई! देखो तो, आकाश से उत्तम-उत्तम रत्नों की वृष्टि हो रही है। क्या सुन्दर दृश्य है।
तीसरा –हाँ बहन! बड़ा ही मनोरम दृश्य है। चलो, राजमहल में चलकर रत्न लेकर आते हैं। चलो भाईयों! तुम सब भी चलो।
-द्वितीय दृश्य-
(वामा माता राजमहल में माणिक्यजड़ित रत्नयुक्त पलंग पर कोमल शैय्या पर सो रही हैं। रात्रि के अंतिम प्रहर में माता ने जिनजननी के पदभार को ग्रहण करते हुए उत्तम-उत्तम सोलह स्वप्न देखे। अंत में उन्होंने देखा कि एक उन्नत कंधों वाला बैल मेरे मुख में प्रवेश कर रहा है। ऐसा देखकर एक क्षण तो वह चौंक उठती हैं पुन: प्रसन्नमना हो निद्रा का परित्याग करती हैं।)
पहली देवी – हे माता! आज आप बहुत प्रसन्न दिखाई दे रही हैं, सो क्या कारण है?
दूसरी देवी – हाँ माता! आज आप विशेष प्रसन्न दिखाई दे रही हैं, क्या कोई खास कारण है?
माता – हाँ देवियों! आज मेरी प्रसन्नता का कुछ विशेष ही कारण है।
तीसरी देवी – माता! वह कारण क्या है? हमें भी बताइये। माता – देवियों! आज रात्रि के अंतिम प्रहर में एक, दो नहीं अपितु पूरे सोलह स्वप्न देखे हैं।
चौथी देवी – माता! जरूर कोई दिव्य स्वप्न देखे होंगे।
पांचवी देवी – महारानी जी! कृपया उन स्वप्नों के बारे में हमें भी बताइये।
छठी देवी –हाँ माता! बताइए ना! वे दिव्य स्वप्न क्या हैं?
माता – देवियों! इतनी अधीर मत होवो। अभी स्नान आदि से निवृत्त होकर राजसभा में चलूँगी, वहीं महाराज से उन स्वप्नों का फल पूछूंगी, तब आप सब भी सुन लेना।
सातवीं देवी – ठीक है माता। (अपनी सखियों से) सखी! माता के स्नान आदि की जल्दी व्यवस्था करो।
आठवीं देवी –बहन! उबटन, गर्म जल आदिक सब तैयार है। (देवियाँ माता को स्नान करवाकर उन्हें शृँगारित करती हैं और महारानी वामादेवी राजसभा में महाराज से उनका फल जानने हेतु प्रस्थान करती हैं।
-तृतीय दृश्य-
(महाराज अश्वसेन राजसिंहासन पर बैठे हैं। महारानी राजदरबार में प्रवेश करती हैं) द्वारपाल – सावधान! महारानी वामादेवी अपनी सखियों के साथ राजदरबार में पधार रही हैं। (महारानी महाराज के पास पहुँचकर उन्हें प्रणाम करती हैं और उनके द्वारा उचित आदर को प्राप्त करके अर्धासन पर बैठ जाती हैं।)
महारानी – हे स्वामिन्! आपको नमस्कार हो।
महाराज – (आसन की ओर इशारा करते हुए) आइए महारानी! अर्धासन ग्रहण करिये, कहिए, आज राजदरबार में किस कारण से आना हुआ?
देवियाँ – प्रणाम पिताश्री!
महाराज – बैठो देवियों!
महारानी – महाराज! आज राजदरबार में मेरे आने का कारण मेरे स्वप्न हैं।
महाराज– कैसे स्वप्न देवी! कहिए वे क्या हैं?
महारानी – महाराज! पहले स्वप्न में मैंने ऐरावत हाथी देखा, दूसरे स्वप्न में शुभ्र बैल को देखा, तीसरे स्वप्न में सिंह, चौथे में कमल पर विराजमान लक्ष्मी, पांचवें स्वप्न में दो फूलमाल, छठवें स्वप्न में उदित होता हुआ सूर्य, सातवें स्वप्न में ताराबलि से वेष्ठित पूर्ण चन्द्रमा, आठवें स्वप्न में जल में तैरती हुई मछलियों का युगल, नवमें स्वप्न में कमल से ढके हुए पूर्ण स्वर्ण कलश को देखा। दसवें स्वप्न में मैंने कमल पुष्पों से भरा सरोवर, ग्यारहवें स्वप्न में चंचल तरंगों से युक्त समुद्र, बारहवें स्वप्न में मणिमय सिंहासन, तेरहवें स्वप्न में देवविमान, चौदहवें स्वप्न में धरणेन्द्र भवन, पन्द्रहवें स्वप्न में रत्नों की राशि और सोलहवें स्वप्न में निर्धूम अग्नि देखी है, इस प्रकार मैंने ये सोलह स्वप्न देखे हैं।
महाराज – उत्तम, अति उत्तम! शुभ स्वप्न हैं प्रिये।
महारानी –महाराज! इन सोलह स्वप्नों को देखने के पश्चात् मैंने देखा कि एक उन्नत कंधों वाला शुभ्र बैल मेरे मुख में प्रवेश कर रहा है। (महारानी उन स्वप्नों को निवेदन करके उनके फल की जिज्ञासा में प्रत्युत्तर की अपेक्षा करती हैं। उसी समय महाराज अपने अवधिज्ञान के बल से चिंतवन कर एक-एक स्वप्न के फल को पृथक्-पृथक् बतलाते हैं, पुन: कहते हैं-
महाराज– देवी! आपके गर्भ में त्रैलोक्यपती तीर्थंकर का जीव अवतरित हो चुका है, आप जगत्पति पुत्ररत्न को प्राप्त करेंगी, जिसके पुण्यफल के निमित्त से ही तो रुचकपर्वतनिवासनी तथा कुलाचलवासिनी देवियाँ आकर आपकी सेवा कर रही हैं।
निर्देशक –(वामा देवी अपने पतिदेव के मुखचन्द्र के वचनामृत से परम सन्तोष और हर्ष को प्राप्त होती हुई अपनी स्त्रीपर्याय को सार्थक समझती हैं सभी प्रजाजन भी हर्ष से पुलकित हो उठते हैं, सखियाँ भी हर्ष से रोमांचित हो जाती हैं तथा महारानी वामादेवी के साथ हंसी-मनोरंजन करते हुए उन्हें अन्त:पुर में ले जाती हैं।) (तीर्थंकर के पुण्य के प्रभाव से स्वयं ही देवों के यहाँ आसन कंप आदि के द्वारा सूचना मिल जाने से सौधर्म इन्द्र असंख्य देव परिवारों के साथ आकर गर्भकल्याणक महोत्सव मनाते हैं। श्री, ह्री, धृति आदि देवियाँ माता की सेवा करते हुए उन्हें आनन्दित किया करती हैं और नाना प्रकार के प्रश्नों को करके वामादेवी के मुख से उनका चमत्कारिक उत्तर प्राप्त करके अपने आपको कृतार्थ कर रही हैं) (गर्भकल्याणक का नृत्य)
-चतुर्थ दृश्य-
निर्देशक-(इस प्रकार गर्भावतार के ९ माह तक लगातार वाराणसी नगरी में विभिन्न उत्सव होते रहे और देखते-देखते नव माह भी पूर्ण हो गए। पौष वदी एकादशी की उत्तम तिथि के दिन सर्वश्रेष्ठ बेला में पूरब दिशा के समान वामादेवी ने त्रिभुवन कमल को विकसित करने वाले अद्भुत सूर्य स्वरूप पुत्र को जन्म दिया। जन्म से ही तीन ज्ञान के धारी उन तीर्थंकर शिशु के जन्म से सभी दिशाएं निर्मल हो उठीं, नरकों में भी क्षणभर के लिए शान्ति छा गई और स्वर्गों से बिना बजाए ही बाजे बजने लगे। इन्द्रों के आसन अपने आप कंपायमान हो उठे और उनके मस्तक के मुकुट स्वयमेव ही झुक गए)
-स्वर्ग का दृश्य-
(स्वर्ग में सौधर्म इन्द्र अपने अवधिज्ञान से तीर्थंकर भगवान का जन्म हुआ जानकर अपने सिंहासन से उतरकर सात पैंड आगे बढ़कर परोक्ष में प्रभु को नमस्कार करते हैं, पुन: आदेश देते हैं-)
सौधर्म इन्द्र – हे देवों! ऐरावत हाथी को खूब सजाकर तैयार करो, हम सब मध्यलोक चलकर तीर्थंकर भगवान का जन्मकल्याणक उत्सव मनाएंगे।
देवगण – जो आज्ञा इन्द्रराज! (सौधर्म इन्द्र अपने विशाल परिकर के साथ दुन्दुभि बाजे, जयजयकार आदि से आकाशमंडल को गुंजायमान करते हुए मध्यलोक के आर्यखण्ड की वाराणसी नगरी में पहुँचते हैं और नगरी की तीन प्रदक्षिणा देकर राजदरबार में प्रवेश करते हैं)
देवों का सामूहिक स्वर-तीर्थंकर पार्श्वनाथ की जय हो। वाराणसी नगरी की जय हो। महाराजा अश्वसेन की जय हो। महारानी वामादेवी की जय हो।
सौधर्म इन्द्र – (महाराज अश्वसेन से) हे पूज्य तात! हमें भी प्रभु का जन्मोत्सव मनाने की आज्ञा प्रदान कीजिए।
पिता अश्वसेन – (खुशी से) हाँ-हाँ क्यों नहीं! इन्द्रराज! हमारे लिए इससे बढ़कर प्रसन्नता की और क्या बात होगी। जाइए, प्रभु का जन्मोत्सव मनाइए।
सौधर्म इन्द्र – (शचि इन्द्राणी से) हे शचि! आप शीघ्र ही प्रसूतिगृह में जाकर जिनशिशु का दर्शन करिए और अपनी स्त्रीलिंग को छेदकर अपने इस जन्म को सफल करिए। और हाँ, जल्दी ही जिनशिशु को लेकर आना, मैं भी प्रभु का दर्शन कर अपने नेत्रों को सफल करूँगा और प्रभु को सुमेरु पर्वत पर ले जाकर जन्माभिषेक करूँगा। (इन्द्राणी तत्काल प्रसूतिगृह में जाकर दिव्य देहधारी पाश्र्वकुमार एवं जिनमाता का दर्शन करती हैं और जिनमाता की बार-बार प्रशंसा करते हुए कहती हैं)
इन्द्राणी – हे महादेवी! आप तीनों जगत के स्वामी को उत्पन्न करने के कारण समग्र विश्व की माता हो एवं आप ही महादेवी भी हो। हे माता! संसार में आपकी तुलना की अन्य कोई स्त्री नहीं है।
निर्देशक –(इस प्रकार माता की स्तुति कर इन्द्राणी ने उन्हें मायामयी निद्रा में सुला दिया और जिनशिशु की गोद में उठाकर बार-बार उसका मुख चूमते हुए शरीर से निकलती उज्जवल ज्योति को देखकर वह हर्षित हो उठी पुन: प्रसूतिगृह से बाहर आकर इन्द्र के निवेदन पर जिनशिशु को इन्द्र को सौंप दिया। इन्द्र भगवान की अपूर्व सुन्दरता को देखकर उनकी स्तुति में कहने लगा)
इन्द्रराज – हे देव! आप हमें परम आनन्द प्रदान करने के लिए बाल चंद्रमा की भांति लोक को प्रकाश देने के लिए प्रगट हुए हैं। हे ज्ञानी! आप विश्व के स्वामी हैं, हम आपको प्रणाम करते हैं। (प्रणाम कर उन्हें लेकर झूम-झूमकर नाच उठता है और गाता है)
-स्तुति-
तर्ज-फूलों सा चेहरा तेरा……… प्यारा सा मुखड़ा मेरे, जिनवर का सुखकार है। तेज तेरा देख के, रूप तेरा देख के, हर्षित ये नर-नार हैं।। अश्वसेन पितु का लाडला है, माता वामा का दुलारा है तू। वाराणसी में जन्मा है देखो, जन-जन की आँखों का तारा है तू।। इन्द्रगण से सेवित, मुनिगणों से वंदित, सारे जगत में न्यारा है तू। भव संकटहारी प्रभू की, वाणी भी सुखकार है। तेज तेरा देख के, रूप तेरा देख के, हर्षित ये नर-नार हैं।। प्यारा सा मुखड़ा मेरे………………….।।१।।
निर्देशक –(पुन: जिनशिशु को गोद में लेकर ऐरावत हाथी पर बैठकर सुमेरु पर्वत की ओर चल पड़े। अनेक देव-देवियाँ चंवर ढुराते जा रहे हैं। ऐसा सुन्दर दृश्य! जो कि पहले किसी ने नहीं देखा। (इस प्रकार विशाल वैभव के साथ सभी लोग सुमेरु पर्वत की पाण्डुक शिला पर पहुँचकर जिनशिशु को बैठा देते हैं, सभी देवगण ऊपर से नीचे पंक्ति में खड़े हो जाते हैं, सभी के हाथों में बड़े-बड़े कलशों में क्षीरोदधि का प्रासुक जल है। जयजयकार की ध्वनि के साथ क्रमश: १००८ कलशों से अभिषेक सम्पन्न हो गया।) (पुन: बालक को वस्त्राभूषणों से अलंकृत कर उनका ‘पाश्र्वनाथ’ ऐसा नामकरण करके वापस बनारस आकर उस बालक को माता-पिता को सौंपकर पुन: वहाँ पर जन्मकल्याणक महोत्सव मनाकर अपने-अपने स्थान को चले जाते हैं। नगरवासी भी जिनशिशु को देखकर मानो तृप्त नहीं हो रहे हैं और पालने में पाश्र्वकुमार को झुलाते व गाते हैं।)
-पालना गीत-
पलना ये रत्नों वाला, रेशम की डोरी वाला, पलने में झूले वामा लाल त्रिभुवन भी जिससे है निहाल। पलने में लाल लटकते, मोती, माणिक हैं, हिलते, उनकी चमक बेमिशाल। त्रिभुवन भी जिससे है निहाल।।टेक.।। उसमें विराजे देखो, त्रिभुवनपति अन्तर्यामी। मुखड़ा सलोना देखो, लीला है कितनी न्यारी।। हम सब हैं वारी जाते, चरणों में शीश झुकाते, करते हैं तुझको प्रणाम। त्रिभुवन भी जिससे है निहाल।।१।।
-पंचम दृश्य-
निर्देशक – इन्द्र ने चूँकि तीर्थंकर भगवान के अंगूठे में अमृत को स्थापित कर दिया था, उसी अंगूठे को चूसकर जिनबालक वृद्धि को प्राप्त होते हैं किन्तु वे माता का स्तनपान नहीं करते हैं। इन्द्र की आज्ञा से प्रभु के साथ उन्हीं के अनुरूप वेष धारण कर देवगण क्रीड़ा करते रहते हैं। क्रम-क्रम से वृद्धि को प्राप्त होते हुए तीर्थंकर पाश्र्वकुमार जब सोलह वर्ष की अवस्था में प्रवेश कर रहे थे तब पिता अश्वसेन ने अपने कर्तव्य के नाते भगवान पाश्र्वनाथ से विवाह करने का प्रस्ताव रखा) सोलहवर्षीय कुमार पाश्र्वनाथ सिंहासन पर विराजमान हैं, अवसर पाकर महाराजा अश्वसेन उनसे कहते हैं-
महाराजा अश्वसेन – प्रिय पुत्र! आज हम आपसे एक विशेष वार्ता करना चाहते हैं।
पार्श्व कुमार –कहिए पिताश्री! क्या बात है?
महाराज – आज्ञा नहीं पुत्र! एक इच्छा है मेरी और तुम्हारी माता वामा देवी की।
कुमार – क्या इच्छा है पिताश्री?
महारानी – बेटे! जब पुत्र युवावस्था में प्रवेश कर जाते हैं तब हर माता-पिता की इच्छा होती है कि वह शीघ्र ही घर में एक प्यारी सी बहू लेकर आवें, घर में पोते-पोतियों की किलकारियाँ गूंजें। इसलिए पुत्र! हम चाहते हैं कि तुम भी हमें विवाह हेतु अपनी स्वीकृति प्रदान करो।
कुमार –माताश्री! पिताश्री! यह संसार तो क्षणभंगुर है, इन क्षणिक सुखों में फसकर अपने अनमोल मानव जीवन को व्यर्थ गंवाने से क्या लाभ! मैं तो आपका तीर्थंकर पुत्र हूँ, जगत के कल्याण हेतु जन्मा हूँ। मैं विवाह के बंधन में नहीं बंधूगा।
महारानी –किन्तु बेटे! कुछ तीर्थंकरों को छोड़कर सभी ने तो विवाह किया है, फिर तुम क्यों मना करते हो?
पार्श्वकुमार –माता! आखिर बाद में उन्होंने भी उसे छोड़ा है फिर इस छोटी सी उम्र में ऐसा करके व्यर्थ अमूल्य समय को क्यों गवाएँ, इसलिए हे प्यारी माँ! मैंने तो सिद्धिकन्या से विवाह का पूर्ण निर्णय ले लिया है और आपको उसे अपनी बहू बनाने की स्वीकृति प्रदान करनी ही पड़ेगी। (इस प्रकार तीर्थंकर कुमार पाश्र्वनाथ ने माता-पिता के समझाने के लाख प्रयासों के बाद भी इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया और बाल ब्रह्मचारी रहे।)
-षष्ठम् दृश्य-
एक समय श्री पाश्र्वनाथ बहुत से राजपुत्रों के साथ हाथी पर सवार होकर बनारस के उद्यानों में विचरण कर रहे थे। वहाँ प्रभु ने एक जगह एक तापसी साधु को पंचाग्नि तप करते देखा, जो कि प्रभु पाश्र्व के नाना थे, पाश्र्वनाथ वहाँ पर अपने नाना को बिना नमस्कार किए खड़े हो गए तब वह तापसी सोचने लगा-
तापसी –(मन में) अहो! मैं इस बालक का नाना हूँ तथा तापसी भी हूँ। फिर भी यह मेरी विनय नहीं कर रहा है। (और यह सोचते-सोचते अतीव क्रोध में आकर हाथ में कुल्हाड़ी लेकर लकड़ी चीरने लगता है। उसके हाथ में कुल्हाड़ी लेते ही दया के रत्नाकर श्री प्रभु वचनामृत वर्षा को करते हुए हित, मित और प्रिय वचन बोले।)
पार्श्वकुमार –हे तापसी! यह लकड़ी मत काटो, इसमें नागयुगल बैठे हैं।
तापसी –(क्रोधित होकर) अरे! क्या तू ही नारायण, महादेव या ब्रह्मा का अवतार है जो कि सम्पूर्ण चराचर का ज्ञाता बन रहा है? तू कैसे कह रहा है कि इस लकड़ी में सर्पयुगल हैं? (ऐसा कहते-कहते ही उसने कुल्हाड़ी से लकड़ी के दो टुकड़े कर दिये और तत्क्षण ही उस नागयुगल के दो टुकड़े हो गए और वे बेचारे छटपटाने लगते हैं। उस समय तीर्थंकर प्रभु ने पुन: कहा)
तीर्थंकर भगवान –हे तापसी! तुम व्यर्थ ही गर्व कर रहे हो। देखो! तुम ज्ञान के बिना अपने तन को कष्ट दे रहे हो किन्तु सोचो तो सही, तुम्हारे मन में किंचित दया के बिना धर्म भी नहीं हो सकता है।
तापसी –अरे कुमार! मैं तेरी माता का जनक हूँ तथा इस समय तपस्वी हूँ। फिर भी तूने मद के वश में होकर मेरा विनय नहीं किया और उल्टे तू मेरे तपश्चरण की निन्दा कर रहा है, क्यों? मेरा तप अज्ञान तप क्यों है? मैं पंचाग्नि तप तप रहा हूँ, कभी एक पैर से तो कभी ऊध्र्व भुजा करके ध्यान करता हूँ, भूख प्यास की बाधा सहन करते हुए सूखे पत्ते से पारणा करता हूँ।
भगवान – तपस्विन्! जिसमें छह काय के जीवों की हिंसा होती है वह तप कुतप ही है। सम्यग्ज्ञान के बिना कायक्लेश उत्तम फल को नहीं दे सकता है किन्तु जो तप जैनधर्म के अनुसार है वही निश्चितरूप से वांछित फल को देने वाला है।
तापसी –अच्छा! तू मुझे समझाने चला है।
भगवान – देखो! मैंने तुम्हें हितकर वचन कहे हैं तुम इन पर विचार करो और जो उचित प्रतीत होवे उसे ही ग्रहण करो, व्यर्थ ही अपने मन को मलिन मत करो। (पुन: भगवान उन तड़पते हुए सर्पयुगल को दया से परिपूर्ण होते हुए अनेक प्रकार से उपदेश देते हैं तथा महामंत्र णमोकार मंत्रसुनाते हैं और वे नागयुगल शरीर का परित्याग कर धरणेन्द्र देव और पद्मावती देवी हो गए।) बंधुओं! आपको यहाँ एक विशेष बात और बतानी है कि पुण्य के समुद्र स्वरूप भगवान् पाश्र्वनाथ के लिए भोजन, वस्त्र आदि वस्तुएँ इन्द्र अपने स्वर्ग से लेकर जाकर प्रदान करता है। तीर्थंकर प्रभु गृहस्थावस्था में मृत्युलोक अर्थात् पृथ्वीलोक का अन्न या वस्त्र नहीं ग्रहण करते हैं क्योंकि जब स्वयं इन्द्र ही प्रभु का किंकर है तो फिर उन्हें अन्य के द्वारा किसी वस्तु के ग्रहण करने की आवश्यकता का प्रसंग ही क्यों आएगा। इस प्रकार देखते-देखते भगवान पाश्र्वनाथ के जीवन के उन्तीस वर्ष व्यतीत हो गए।
-सप्तम दृश्य-
(प्रभु पार्श्वनाथ तीस वर्ष की अवस्था में प्रवेश करते हुए किसी समय राज्यसभा में सुखपूर्वक बैठे हुए हैं उसी समय राजदरबार में अयोध्या नरेश जयसेन महाराज का दूत आता है और नाना प्रकार की वस्तुएँ भेंट में रखकर नमस्कार करता है)
-राजदरबार का दृश्य-
(सभा में महाराज अश्वसेन के साथ प्रभु पाश्र्वनाथ भी बैठे हैं तभी अयोध्या नरेश जयसेन का दूत प्रवेश करता है)
दूत – महाराज अश्वसेन की जय हो। युवराज पाश्र्वनाथ की जय हो।
महाराज – कहो दूत! अपने आगमन का कारण कहो।
दूत –महाराज! मैं अयोध्या नरेश महाराजा जयसेन का दूत हूँ। उन्होंने आपके लिए अपनी यह छोटी सी भेंट आपकी सेवा में प्रस्तुत की है।
भगवान पार्श्वनाथ – क्या कहा दूत! अयोध्या नगरी के राजा जयसेन ने। यह वही तो अयोध्या नगरी है, जहाँ सदैव तीर्थंकर भगवन्तों का जन्म होता रहा है।
दूत – हाँ युवराज! यह वही अयोध्या नगरी है, जहाँ युग की आदि में प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव ने जन्म लिया और प्रजा को जीवन जीने की कला सिखाई, पुन: नीलांजना के नृत्य से उन्हें वैराग्य हो गया और उन्होंने जिनदीक्षा धारण कर ली। उसी अयोध्या नगरी में भगवान अजितनाथ, अभिनंदननाथ व सुमतिनाथ भगवान भी जन्मे हैं जिन्होंने वैराग्य होते ही दीक्षा ग्रहण कर ली और मुक्तिरमा का वरण कर लिया। (इधर दूत भगवान ऋषभदेव के अवतार का वर्णन करते हुए सविस्तार अयोध्या की संपत्ति का वर्णन कर रहा था उधर प्रभु पाश्र्वनाथ सहसा विरक्तमना होकर चिन्तवन करने लगे)
प्रभु पार्श्वनाथ – अहो! इन तीर्थंकरों ने उत्तम-उत्तम भोगों का परित्याग करके आत्मसिद्धि प्राप्त की है अब मेरा भी आत्मसाधना का समय हो चुका है। जब इन्द्रों के वैभव से इस जीव की तृप्ति नहीं हो सकती है तो किंचित् मात्र मनुष्य भव के सुखों से क्या तृप्ति हो सकती है। (जिस समय प्रभु बारह भावनाओं का चिन्तवन कर रहे थे कि तत्क्षण ही लौकांतिक देव आकर पुष्पांजलि चढ़ाकर प्रभु के चरणों की पूजा करके प्रभु के गुणों का कीर्तन करने लगते हैं) (लौकांतिक देवों का जय-जयकार करते हुए दरबार में प्रवेश) (प्रभु के समीप पहुँचकर उन्हें प्रणाम करते हैं)
लौकांतिक देव-१ – हे देवाधिदेव! आप धन्य हैं। आपकी निर्मल विचारसरणि धन्य है।
लौकांतिक देव-२ – हे दयानिधे! यह समय भी धन्य है जो कि आपने मोहसेना को जीतने के लिए तैयारी की है।
लौकांतिक देव-३ – नाथ! आज शिवकांता अपने सौभाग्य की सराहना कर रही है और उसकी प्रतीक्षा में वह आज तपस्या सखी को भेजकर आपको अपनी ओर शीघ्र ही आकर्षित करना चाहती है।
लौकांतिक देव-४ – स्वामी! जगत् के जीवों का आज महान पुण्य अवसर आया है जो कि आपने उनके उद्धार के लिए कदम उठाया है। (इत्यादि रूप से स्तुति करते हुए वे लौकांतिक देव अपने-अपने स्थान पर चले गए)
निर्देशक –(उसी समय आसन कंपित होते ही सौधर्म इन्द्र ने स्वयं प्रभु की सेवा में असंख्य इन्द्रों के साथ उपस्थित होकर वाराणसी नगरी को स्वर्ग से भी अधिक रमणीक बना दिया और प्रभु का अभिषेक कर उन्हें दिव्य वस्त्रालंकार पहनाकर विमला नाम की पालकी में बिठाया। जिसे सर्वप्रथम भूमिगोचरी राजाओं ने पुन: विद्याधर राजाओं ने, अनन्तर इन्द्रों ने अपने कंधे पर धारण किया और निमिष मात्र में आकाशमार्ग से चलते हुए अश्व नामक वन में पहुँचे, जहाँ इन्द्र ने शचि इन्द्राणी द्वारा पूरित रत्नों के चूर्ण से बने स्वस्तिक पर बैठने का निवेदन किया और प्रभु ने सिद्धों की साक्षीपूर्वक पंचमुष्टि वेंशलोंच कर दिगम्बर मुद्रा धारण कर ली और दीक्षा लेते ही उन्हें मन:पर्यय ज्ञान प्रगट हो गया। वह दिवस पौष वदी एकादशी का था।उनके साथ-साथ अन्य तीन सौ राजाओं ने भी दीक्षा धारण कर ली। प्रभु ने दीक्षा लेते ही तेला का नियम ले लिया। प्रभु को प्रथम ही आहार देने का सौभाग्य गुल्मखेटपुर के महाराजा ब्रह्मदत्त को मिला था)
-अष्टम् दृश्य-
(एक समय प्रभु योग में तन्मय हुए अपनी शुद्धात्मा के परमानन्द अमृत रस का अनुभव ले रहे थे तभी आकाशमार्ग से गमन करते हुए संवर नामक ज्योतिषी देव का विमान वहीं रुक गया)(भगवान पाश्र्वनाथ ध्यानारूढ़ हैं तभी संवरदेव का विमान वहाँ रुक गया)
संवर देव –अरे! यह क्या हुआ? मेरा विमान क्यों रुक गया। (नीचे देखता है) जरूर कोई महापुरुष नीचे विराजमान हैं, तभी यह मेरा विमान आगे नहीं बढ़ रहा है। (पुन: अपने अवधिज्ञान से जानकर) अच्छा! तो यह बात है। यह तो मेरे दस जन्मों का शत्रु है, इसने मुझे कमठ की पर्याय में किस प्रकार अपमानित किया था। कैसा चुपचाप बैठा है, अभी बताता हूँ, ध्यान में लीन हैं योगीराज, अभी इनका ध्यान भंग करता हूँ। (क्रोधित होकर) अरे दुष्ट! आज मैं अपने हर जन्म का बदला लेकर रहूँगा। (इतना कहकर उसने प्रभु के ऊपर घोर उपसर्ग करना प्रारंभ कर दिया। जोर-जोर से अट्टहास करता हुआ वह भयंकर आंधी चलाने लगा, पत्थरों की वर्षा होने लगी, मूसलाधार बारिश होने लगी। उस समय जल और थल एक होकर महासागर सा दिखने लगा। विक्रिया बल से वह पापी कमठचर किलकिल शब्द करता हुआ महाबेताल का रूप लेकर अग्नि उगलने लगा। अधिक क्या कहना, उसने अनेक प्रकार के भेष धारण कर प्रभु पर भयंकर उपसर्ग किया परन्तु महामना प्रभु सुमेरु के समान अचल थे, परम सहिष्णु थे। उस उपसर्ग के प्रसंग में सहसा धरणेन्द्र देव का आसन कंपायमान हो उठा।)
संवर देव –आ हा हा हा! देख पापी, दुष्ट, आंखे खोल, वर्ना मैं तुझे डुबो दूँगा, आग उगल-उगल कर तुझे जला डालूँगा।
(भगवान पार्श्वनाथ को अविचल ध्यानारूढ़ देख और क्रोधित हो उठता है) अच्छा तो तू ऐसे नहीं मानेगा। देख, ले सह मेरा वार। आ हा हा हा…..।। (उधर धरणेन्द्र देव का आसन कंपायमान हो उठा)
धरणेन्द्र देव – (आसन कंपित होता देख) अरे! यह क्या हुआ? मेरा आसन क्यों कंपित हो उठा (पुन: अवधिज्ञान से विचार कर) ओह! यह क्या? मेरे प्रभु पर उपसर्ग, मेरे संकटहर्ता पर इतना बड़ा उपसर्ग। (पुन: देवी पद्मावती से कहते हैं) देवी पद्मावती! हम पर अनन्य उपकार कर तिर्यंच योनि से निकालकर देवयोनि की प्राप्ति कराने वाले संकटहर्ता भगवान पार्श्वनाथ पर एक देव द्वारा घोर उपसर्ग हो रहा है।
देवी पद्मावती –क्या कहा नाथ! प्रभु पाश्र्वनाथ पर उपसर्ग, हमें णमोकार महामंत्र को सुनाकर उत्तम गति की प्राप्ति कराने वाले उन क्षमाशील प्रभु पर उपसर्ग। चलिए नाथ! जल्दी चलिए। हमारे उपकारी प्रभु का उपसर्ग दूर करिए।
धरणेन्द्र देव –हाँ देवी! शीघ्रता करिए। (दोनों देव दंपत्ति वहाँ पहुँचते हैं और प्रभु की तीन प्रदक्षिणा लगाकर उन्हें बारम्बार नमस्कार करते हैं पुन: उस पापी देव से कहते हैं)
धरणेन्द्र देव –अरे! पापी संवर! ठहर जा। क्यों तुझे पता नहीं कि तू यह किस पर उपसर्ग कर रहा है, प्रभु पाश्र्वनाथ पर! अरे दुष्ट! क्या तुझे यम का भी भय नहीं।
संवर देव – अच्छा तो तू इनकी रक्षा करने आया है, जब यह स्वयं अपनी रक्षा न कर सका तो तुझे बुलाया है।
देवी पद्मावती – अरे नराधम! जब प्रभु कई भवों से तेरे उपसर्ग को सहन कर रहे हैं तो अब तो वे साक्षात् तीर्थंकर भगवान हैं, कर्मशत्रु के विजेता हैं, महाशूरवीर हैं, तू भला उनका क्या बिगाड़ सकता है? अभी भी समय है प्रभु से क्षमा मांग ले।
संवर देव – क्षमा और इससे। एक शत्रु से क्षमा। हा-हा-हा-हा, ले बचा अपने प्रभु को। (यह कहकर पुन: उपसर्ग प्रारंभ कर देता है) तब प्रभु पार्श्वनाथ के ऊपर धरणेन्द्र और पद्मावती फण का छत्र तान देते हैं और धरणेन्द्र युगल को देखते ही वह पापी कमठचर भाग खड़ा होता है)(पार्श्वनाथ भगवान पर इन उपसर्गों का कोई असर नहीं है, शान्तचित्त प्रभु ने सप्तम गुणस्थान से ऊपर चढ़कर क्षपक श्रेणी में आरोहण करते हुए दशवें, पुन: बारहवें गुणस्थान में पहुँचकर केवलज्ञानरूप परम ज्योति को प्राप्त कर लिया। तत्क्षण ही प्रभु पृथ्वी से ५००० धनुष ऊपर आकाश में पहुँच गए। इन्द्रों के आसन कंपित होते ही सौधर्म इन्द्रादि सभी देवगण वहाँ आ गए और इन्द्र की आज्ञा से धनकुबेर ने समवसरण की रचना कर दी। बंधुओं! प्रभु पर आए उपसर्ग को दूर करने के लिए रणेन्द्र देव ने अहिसर्प का रूप धारण कर प्रभु के ऊपर छत्र धारण किया था इसीलिए उस स्थान का ‘अहिच्छत्र’ यह सार्थक नाम विश्व में विख्यात हो गया। भगवान पाश्र्वनाथ का समवसरण लगा है। उनके समवसरण में प्रथम गणधर स्वयंभू स्वामी तथा अन्य नौ गणधर थे, सोलह हजार मुनि, छत्तीस हजार आर्यिकाएं, १ लाख श्रावक, ३ लाख श्राविकाएं तथा असंख्यात देव-देवियाँ व संख्यात तिर्यंच थे। सभी बारह सभा में अपने-अपने योग्य कोठे में बैठे भगवान का उपदेश सुन रहे हैं। भगवान पार्श्वनाथ की दिव्य वाणी खिरती है-ॐ…………. भव्यात्मन्! सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र इन तीनों की एकता ही मोक्ष का मार्ग है, इस रत्नत्रय को धारण करने वाला जीव संसार से तिर जाता है। जो चतुर पुरुष रसायन के समान सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र इन तीनों का सेवन करता है वह अचिन्त्य और अविनाशी मोक्षरूपी पद को प्राप्त कर लेता है। (इधर संवर नाम का वह ज्योतिषी देव भी काललब्धि पाकर शांत हो गया और उसने प्रभु को नमस्कार कर उपदेश श्रवण कर सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लिया। यह देख उस वन में रहने वाले सात सौ तपस्वियों ने भी मिथ्यादर्शन छोड़कर संयम धारण कर लिया। बारह सभाओं के मध्य धर्मोपदेश करते हुए प्रभु ने पाँच माह कम सौ वर्ष तक विहार किया, अंत में जब प्रभु की आयु एक माह शेष रह गई तब वे विहार बंद कर सम्मेदाचल के शिखर पर ३६ मुनियों के साथ प्रतिमायोग धारण कर विराजमान हो गए। श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन प्रात:काल के समय प्रभु ने शेष अघातिया कर्मों को भी निर्मूल करके यमराज के मान का मर्दन कर निर्वाणपद प्राप्त कर लिया। उसी समय इन्द्रों ने आकर प्रभु के निर्वाणकल्याणक महोत्सव को धूमधाम से मनाया)(यहाँ सम्मेदशिखर का दृश्य दिखाकर प्रभु का निर्वाणकल्याणक का दृश्य दिखावें। पुन: एक सामूहिक नृत्य के साथ नाटक का समापन करें।)