राजा विभीषण ने सकलभूषण केवली को नमस्कार कर पूछा-‘‘भगवन्! श्रीराम ने पूर्व भवों में कौन-सा पुण्य किया था? सती सीता के शील में लोकापवाद क्यों हुआ? रावण से लक्ष्मण का वैर कब से था? इत्यादि। मैं आपके दिव्यवचनों से इन सभी के पूर्वभवों को सुनना चाहता हूँ।’’ तब केवली भगवान की दिव्यध्वनि खिरी जिसे कि सभी ने श्रवण किया। ‘‘इस संसार में कई भवों से राम-लक्ष्मण का रावण के साथ वैर चला आ रहा है। उसे सुनो, इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में क्षेत्र नाम का एक नगर था। वहाँ पर नयनदत्त वैश्य की सुनंदा पत्नी के दो पुत्र थे, धनदत्त और वसुदत्त। वहीं यज्ञबलि नाम का एक ब्राह्मण था वह वसुदत्त का मित्र था। इसी नगर में सागरदत्त वणिक् की पत्नी रत्नप्रभा से गुणवती नाम की एक पुत्री हुई थी और गुणवान नाम का एक पुत्र था। इसी नगर में एक श्रीकांत वणिक् था। गुणवती का उसके पिता और भाई धनदत्त से विवाह करना चाहते थे किन्तु उसकी माँ श्रीकांत को धनाढ्य समझकर उसे देना चाहती थी।
तब धनदत्त के भाई वसुदत्त ने क्रोध के वश हो अपने मित्र यज्ञबलि के उपदेश व सहयोग से श्रीकांत के घर जाकर उस पर शस्त्र प्रहार किया, उसने भी वसुदत्त पर शस्त्र प्रहार किया, दोनों एक-दूसरे को मारकर मर गये। इधर धनदत्त को गुणवती न मिलने से वह घर से निकलकर अनेक देशों में भ्रमण करता रहा। गुणवती ने भी धनदत्त के साथ ही विवाह करना चाहा था किन्तु उसके साथ विवाह न हो पाने से वह दुःखी हुई। मिथ्यात्व के निमित्त जैन शासन से और दिगम्बर गुरुओं से द्वेष रखती थी।
आयु के समाप्त होने पर यह गुणवती आर्तध्यान से मरकर वहीं वन में हरिणि हुई। उसी वन में ये वसुदत्त और श्रीकांत मरकर हरिण हुए थे। पूर्व संस्कार के निमित्त से यहाँ भी ये दोनों इसी हरिणी के लिए आपस में एक-दूसरे को मारकर मरे और सूकर हो गये। पुनः ये दोनों हाथी, भैंसा, बैल, वानर, चीता, भेड़िया और मृग हुए। सभी पर्यायों में ये परस्पर में द्वेष रखते हुए एक-दूसरे को मारते और मरते रहे। इधर वह धनदत्त वैश्य पुत्री गुणवती को न प्राप्त कर दुःखी हुआ। देश-देश में घूम रहा था। एक दिन मार्ग में थका हुआ वह सूर्यास्त के बाद मुनियों के आश्रम में पहुँच गया। वह प्यासा था अतः वह मुनियों से कमंडलु का पानी पीने के लिए मांगने लगा। तभी एक दिगम्बर मुनि ने उसे सान्त्वना देते हुए कहा- ‘‘हे भद्र! रात्रि में पानी तो क्या अमृत पीना भी उचित नहीं है। जब नेत्रों से दिखाई नहीं देता है ऐसे समय में सूक्ष्म जन्तुओं का संचार बहुल हो जाता है इसलिए तू रात्रि में भोजन मत कर…..।’’
इत्यादि प्रकार से मुनिराज के मुख से धर्मोपदेश श्रवण कर वह धनदत्त प्यास से उत्पन्न आकुलता को भूल गया और उसका चित्त दया से आद्र्र हो गया। वह अल्पशक्ति अनुभव कर महाव्रती तो नहीं बन सका किन्तु अणुव्रती श्रावक बन गया। अनन्तर आयु की समाप्ति में मरकर सौधर्म स्वर्ग में उत्तम देव हो गया। वहाँ पुण्योदय से प्राप्त देवांगनाओं के मध्य दिव्य सुखों को भोगने लगा। वहाँ से च्युत होकर वह धनदत्त का जीव महापुर नगर के जैनधर्म निष्ट, मेरु सेठ की धारिणी भार्या से ‘‘पद्मरुचि’’ नाम का पुत्र हुआ। यह पद्मरुचि युवावस्था में एक बार घोड़े पर चढ़कर गोकुल की ओर जा रहा था वहाँ मार्ग में एक बूढ़े बैल को पृथ्वी पर पड़े हुए देखा। वह उठने-चलने में समर्थ नहीं था अतः मृत्यु की घड़ियां गिन रहा था।
पद्मरुचि श्रावक ने घोड़े से उतरकर उसके पास बैठकर उसे आदरपूर्वक कुछ उपदेश सुनाया पुनः उसके कान में णमोकार मंत्र सुनाता रहा। मंत्र सुनते-सुनते उस बैल के प्राण निकल गये। मंत्र के प्रभाव से वह बैल का जीव उसी नगर के राजा छत्रच्छाय की रानी श्रीदत्ता के गर्भ में आ गया और नौ महीने बाद उसके जन्मते ही राजा ने पुत्ररत्न के हर्ष से बहुत ही उत्सव किया पुनः उसका नाम ‘‘वृषभध्वज’’ रख दिया।
इस राजकुमार को बचपन में जातिस्मरण हो गया कि-‘‘मैं पूर्वभव में बैल था। वृद्धावस्था में गली में पड़ा-पड़ा दुःख भोग रहा था। एक श्रावक ने मुझे पंच नमस्कार मंत्र सुनाया था जिसके प्रभाव से मैं राजपुत्र हो गया हूँ।’’ अतः वह णमोकार मंत्र का सदा स्मरण किया करता था। एक दिन घूमते हुए उसी स्थान पर पहुँचा जहाँ पूर्व में बैल का मरण हुआ था। उस राजकुमार ने आस-पास में घूमते हुए अपने पूर्व पर्याय के बैल अवस्था में बोझा ढोने, भूखे-प्यासे घूमने, पड़े रहने आदि के सभी स्थान पहचान लिए। वह हाथी से उतरकर दुखित हो बहुत देर तक बैल के मरने की भूमि को देखता रहा और सोचता रहा। ‘‘मेरे समाधिमरण के दाता वे श्रावक महापुरुष कौन हैं?’’ पुनः उनको खोजने का उसने एक उपाय सोचा।
उसने उसी स्थान पर के शिखर के समान उन्नत एक जिनमंदिर बनवाया उसमें अनेक चित्र बनवा दिये उसी मंदिर के द्वार पर एक जगह उसने बैल को पंच नमस्कार मंत्र सुनाते हुए पुरुष का चित्र भी बनवा दिया और मंदिर के द्वार पर उसकी परीक्षा के लिए चतुर कर्मचारी नियुक्त कर दिये। एक दिन जिनमंदिर की वंदना के लिए पद्मरुचि श्रावक वहाँ आ गया तब वह उस बैल के चित्र को आश्चर्ययुक्त हो एक टक देखता रहा। तभी द्वार पर नियुक्त कर्मचारियों ने यह समाचार राजपुत्र को पहुँचा दिया। वृषभध्वज राजकुमार तत्क्षण ही हाथी पर बैठकर वहाँ आ गये और चित्रपट को तल्लीनता से देखते हुए पद्मरुचि के चरणों में साष्टांग नमस्कार किया। पद्मरुचि ने उस चित्र का परिचय देते हुए बताया कि- ‘‘यह बैल दुःखी हुआ सिसक रहा था तब मैंने इसे महामंत्र सुनाया था……।’’
इतना सुनते ही राजपुत्र ने कहा- ‘‘स्वामिन्! वह बैल का जीव मैं ही हूँ। मुझे जातिस्मरण के हो जाने पर भी मेरे उपकारी कौन हैं? जब मैं यह पता नहीं लगा सका तभी मैंने यह मंदिर बनवाकर यह चित्रपट मात्र आपको खोजने के लिए ही बनवाया था……। सो आज आप जैसे परमोपकारी को पाकर मैं धन्य हो गया हूँ।’’ तुमने मेरा जो भला किया है वह न माता कर सकती है न पिता कर सकते हैं, न सगे भाई और न परिवार के अन्य लोग ही कर सकते हैं और तो क्या देवगण भी वैसा उपकार नहीं कर सकते हैं। तुमने जो मुझे महामंत्र सुनाकर पशुयोनि से मनुष्य पर्याय में पहुँचाया है उसका मूल्य यद्यपि मैं नहीं चुका सकता फिर भी मेरी आप में परमभक्ति है, सो हे नाथ! मुझे आज्ञा दो मैं आपकी क्या सेवा करूँ? हे स्वामिन् ! आप यह मेरा समस्त राज्य ले लो और मैं अब आपका दास बनकर आपकी जीवन भर सेवा करता रहूँगा।’’
तब पद्मरुचि ने कहा-‘‘हे महापुरुष! यह महामंत्र का ही प्रभाव है मैं तो इसमें निमित्त मात्र हूँ।…..’’ उस मंदिर में दोनों का आपस में इतना प्रेम हो गया कि दोनों अभिन्न मित्र बन गये। दोनों ने मिलकर राज्य संचालन किया उन दोनों का संयोग चिर संयोग हो गया जो कि आगे मोक्ष जाने तक रहा है। आगे चलकर ये पद्मरुचि तो श्रीरामचन्द्र हुए हैं और वृषभध्वज सुग्रीव हुए हैं दोनों एक साथ मांगीतुंगी से मोक्ष गये हैं। उस समय वे दोनों मित्र सम्यक्त्व और अणुव्रत से सहित थे। उन्होंने मिलकर पृथ्वी पर अनेक जिनमंदिर बनवाये और बहुत सी रत्नमयी जिनप्रतिमाएं विराजमान करायीं। सैकड़ों स्तूपों से पृथ्वी को अलंकृत किया। अन्त में समाधि से मरण कर वृषभध्वज ईशान स्वर्ग में देव हुआ।
इधर पद्मरुचि भी समाधिमरण से मरकर उसी ईशान स्वर्ग में वैमानिक देव हो गया। कालांतर में यह पद्मरुचि का जीव देव वहाँ से चयकर विदेह क्षेत्र के विजयार्ध के राजा विद्याधर नंदीश्वर की कनकाभा रानी से नयनानंद नाम का पुत्र हुआ। यहाँ भी मुनिदीक्षा लेकर तपश्चरण के प्रभाव से मरणकर माहेन्द्र स्वर्ग में देव हो गया। वहाँ से चयकर क्षेमपुरी नगरी में राजा विपुलवाहन की रानी पद्मावती के श्रीचन्द्र नाम का पुत्र हुआ। यहाँ भी ये समाधिगुप्त मुनि से जैनेश्वरी दीक्षा लेकर महान तप अनुष्ठान करके ब्रह्मस्वर्ग में इन्द्र हो गये। श्री सकलभूषण केवली कहते हैं-‘‘हे विभीषण! इस ब्रह्मेंद्र की विभूति का वर्णन बृहस्पति सौ वर्ष में भी नहीं कह सकता है। अनंतर ये ब्रह्मेन्द्र वहाँ से चयकर राजा दशरथ की रानी कौशल्या-अपराजिता की पवित्र कुक्षि से श्रीरामचन्द्र नाम के बलभद्र हुए हैं। अब सीता और रावण आदि के भवों का खुलासा करते हैं- मृणालकुंड नगर में विजयसेन राजा का पुत्र वङ्काकंबु था इसके शंभु नाम का पुत्र हुआ। इस राजा के पुरोहित का नाम श्रीभूति था।
वह ‘‘गुणवती’’कन्या का जीव मुनिनिंदा के पाप से हथिनि हुई थी वहाँ एक बार नदी के किनारे कीचड़ में फस गई और मरणासन्न स्थिति में सूं-सूं कर रही थी तभी एक दयालु विद्याधर ने उसे णमोकार मंत्र सुना दिया। जिसके प्रभाव से वह वहाँ से मरकर इधर पुरोहित की पत्नी सरस्वती से ‘‘वेदवती’’ नाम की पुत्री हो गई। एक बार दिगम्बर मुनि की हंसी करते हुए पिता के द्वारा समझाये जाने पर वह श्राविका हो गई। यह अतिशय रूपवती थी अतः कई एक राजकुमार इसे चाहते थे इनमें भी शंभु राजकुमार खासकर इससे विवाह करना चाहता था किन्तु पुरोहित श्रीभूति ने यह प्रतिज्ञा कर रखी थी कि मिथ्यादृष्टि राजा चाहे कुबेर ही क्यों न हो उसे मैं अपनी पुत्री नहीं दूँगा।
इससे कुपित हो शंभु ने रात्रि में सोते हुए पुरोहित को मार डाला। यह मरकर जैन धर्म के प्रसाद से देव हो गया। वेदवती ने भी पिता के अभिप्राय अनुसार शंभु के साथ विवाह करने से इंकार कर दिया। तब एक दिन काम से संतप्त हो शंभु ने वेदवती से बलात् ही मैथुन सेवन किया। जिससे वह अत्यन्त कुपित हो बोली-‘‘अरे नीच! तूने मेरे पिता को मारा है पुनः जबरन मेरे शील को भंग किया है अतः ‘‘मैं अगले भव में तेरे वध के लिए ही उत्पन्न होऊँगी।’’
ऐसा निदान बंध कर लिया। अनंतर इस बाला ने हरिकांता आर्यिका के पास जाकर आर्यिका दीक्षा लेकर घोरातिघोर तपश्चरण किया। आर्यिका होने से पहले एक बार इस वेदवती ने उद्यान में सुदर्शन मुनि को देखा था वहाँ उन मुनि की सुदर्शना बहन आर्यिका अवस्था में उनके पास बैठी थी वे मुनि और उसे कुछ उपदेश दे रहे थे। इस वेदवती ने गाँव में आकर लोगों से कहा-‘‘ये मुनि एक सुन्दर महिला से वार्तालाप कर रहे थे अतः वे निर्दोष कैसे हो सकते हैं? इत्यादि।’’ कुछ लोगों ने इसकी बात पर विश्वास नहीं किया और कुछ लोग विश्वास करने लगे। जब इस अपवाद का श्री मुनिराज को पता चला तब उन्होंने नियम ले लिया कि ‘‘जब तक मेरा अपवाद दूर नहीं होगा मैं आहार नहीं करूँगा।’’
तभी वन देवता ने वेदवती को फटकारा जिससे उसने सभी से कहना शुरू किया कि ‘‘मैंने यह झूठा आरोप लगाया था।’’ पुनः उसने मुनि से भी क्षमा कराकर अन्य जनों को भी विश्वास दिलाया। इस प्रकार वेदवती ने जो बहन-भाई की निंदा की थी उसी के फलस्वरूप सीता की पर्याय में उसे लोकापवाद का कष्ट उठाना पड़ा है। आचार्य कहते हैं कि-‘‘यदि सच्चा दोष भी देखा हो तो भी जिनमतावलंबी को नहीं कहना चाहिए और कोई दूसरा कहता हो तो उसे सब प्रकार से रोकना चाहिए। फिर जो लोक में विद्वेष फैलाने वाले ऐसे जैन शासन संबंधी दोषों को कहता है वह दुःख पाकर चिरकाल तक संसार में भटकता रहता है। किये हुए दोष को प्रयत्नपूर्वक छिपाना यह सम्यग्दर्शनरूपी रत्न का बड़ा भारी गुण है। अज्ञान या मत्सरभाव से भी जो किसी के मिथ्या दोष को प्रकाशित करता है वह मनुष्य जिनधर्म के बिल्कुल ही बर्हिभूत है।’’
वेदवती समाधिमरण के प्रभाव से ब्रह्मस्वर्ग में देवी हुई। वहाँ से चयकर राजा जनक की रानी विदेहा से सीता नाम की पुत्री हुई है। गुणवती की पर्याय में जो गुणवान भाई था वही कुंडलमंडित होकर स्वर्ग गया था वहाँ से च्युत हो यह भी विदेहा के गर्भ में एक साथ आ गया और ये दोनों युगलिया भाई-बहन हुए हैं भाई का नाम भामंडल है। धनदत्त का भाई वसुदत्त ही लक्ष्मण हुआ है और उसका मित्र यज्ञबलि ही तू विभीषण हुआ है। जो वृषभध्वज राजकुमार था वही यह सुग्रीव हुआ है। श्रीकांत का जीव ही शंभु हुआ था पुनः वेदवती को न प्राप्त कर मिथ्यात्व से संसार में भ्रमण करता हुआ कदाचित् वह कुशध्वज ब्राह्मण की पत्नी सावित्री से प्रभासकुंद पुत्र हुआ वहाँ विचित्रसेन मुनि के समीप दिगंबरी दीक्षा धारण कर खूब तपश्चरण किया। एक बार सम्मेद शिखर की वंदना के लिए गया था। वहाँ आकाश में कनकप्रभ विद्याधर की विभूति देखकर निदान कर लिया, कि-‘‘यदि मेरे तपश्चरण में कुछ माहात्म्य है तो मैं भी आगे ऐसा ही विद्याधर का वैभव प्राप्त करूँ।’’
श्री गौतम स्वामी कहते हैं-‘‘अहो! इस मूर्खता को धिक्कार हो! देखो, उसने त्रिलोकीमूल्य रत्न को शाक की एक मुट्ठी में बेंच दिया।’’ यह प्रभासकुंद मुनि अंत में समाधिमरण से मरकर सानत्कुमार स्वर्ग में देव हो गया वहाँ से च्युत हो लंका नगरी के राजा रत्नश्रवा की रानी वैकसी से यह ‘‘दशानन’’ पुत्र हुआ है। इसने बालिमुनि पर उपसर्ग करने के लिए जब वैलाशपर्वत उठाने की चेष्टा की तब उन मुनि की ऋद्धि के प्रभाव से कैलाश पर्वत के नीचे दबने से रोने लगा था तभी से इसका ‘‘रावण’’ यह नाम प्रसिद्ध हो गया था। गुणवती के निमित्त से जो वसुदत्त ने श्रीकांत को मारा था तभी से इन दोनों का वैर चला आ रहा था यही कारण है कि लक्ष्मण के द्वारा यह रावण मारा गया है। इस प्रकार सकलभूषण केवली का उपदेश सुनकर सभी लोग आश्चर्यचकित हो गये। अनेक भव्यजीव रावण और लक्ष्मण के परस्पर के कई जन्मों के वैर को सुनकर परस्पर में निर्वैर हो गये। मुनिगण संसार से भयभीत हो गये और कितने ही राजा लोग प्रतिबद्ध हो दीक्षा ग्रहण कर साधु हो गये। ‘‘अहो! सम्यक्त्व का प्रभाव अचिन्त्य है। आगे रावण और लक्ष्मण के जीव सीता के जीव चक्रवर्ती के पुत्र होकर सगे भाई-भाई होंगे। इत्यादि भविष्य का कथन आगे किया जावेगा।
सीता का जीव प्रतीन्द्र अपने अवधिज्ञान से उन्हें देखकर स्नेह से आद्र्र हो वहाँ आता है और सोचता है कि ‘‘मैं इन्हें ध्यान से विचलित कर दूं तो ये मोक्ष न जाकर स्वर्ग में आ जावेंगे। यहाँ पर हमारे से मित्रता को प्राप्त होंगे। चिरकाल तक हम दोनों मेरु, नन्दीश्वर आदि की वंदना कर पुनः मत्र्यलोक में जन्म लेकर एक साथ निर्वाण प्राप्त करेंगे।’ ऐसा सोचकर वहाँ आकर अपना सीता का रूप बनाकर उन्हें विचलित करने के लिए अनेक उपाय करता है, अनेक स्त्रियों को बनाकर उनके द्वारा गीत, नृत्य, हाव-भाव का प्रदर्शन कराते हुए ध्यान में विघ्न डालना चाहता है किन्तु महामना राम सुमेरु के समान अचल हैं। वे ध्यान के प्रभाव से घातिया कर्मों का नाश कर केवलज्ञान प्राप्त कर लेते हैं तब स्वर्ग में सौधर्म इन्द्र आदि के आसन कम्पित होते ही सब एक साथ वहाँ आ जाते हैं। आकाश में अधर समवसरण की रचना हो जाती है।
श्रीराम केवली भगवान् उसमें कमलासन पर अन्तरिक्ष में विराजमान हैं। चारण ऋद्धिधारी मुनि आदि सभा में आ जाते हैं। बारह कोठों में सब यथा योग्य बैठ जाते हैं। उस समय यह सीता का जीव प्रतीन्द्र भी बार-बार नमस्कार कर प्रभु से अपने अपराध क्षमा करता हुआ प्रार्थना करता है- ‘हे नाथ! मुझ दुर्बुद्धि के द्वारा किया हुआ दोष क्षमा कीजिए, प्रसन्न होइये और मुझे भी कर्मों का अन्त प्रदान कीजिए।’’ मुनिराज की दिव्यध्वनि खिरती है- ‘‘हे सुरेन्द्र! राग छोड़ो, वैराग्य से ही मुक्ति होती है और रागी मनुष्य संसार में डूब जाता है। जिस प्रकार कंठ में शिला को बांधकर नदी नहीं तिरी जा सकती है उसी प्रकार राग-स्नेह से संसार नहीं पार किया जा सकता है। जो गुरुओं के कहे अनुसार प्रवृत्ति करता है वही संसार का अंत कर सकता है।’’ दिव्य उपदेश को सुनकर प्रतीन्द्र पूछता है- ‘‘भगवन् ! दशरथ आदि भव्य जीव कहाँ गये हैं? सभी मुझे बताओ।’’
दिव्य वाणी खिरती है-‘‘हे सुरेन्द्र! दशरथ आनत स्वर्ग में देव हुए हैं। कौशल्या आदि माताएं, जनक और कनक आनत स्वर्ग में ही देव हुए हैं। लव-कुश निर्वाण को प्राप्त करेंगे, भरत भी मोक्ष पधारेंगे और तुम्हारा भाई भामंडल उत्तर कुरु भोगभूमि में आर्य हुआ है। हनुमान, सुग्रीव आदि भी इसी भव में मोक्ष जायेंगे।
‘‘हे नाथ! मुझे निर्वाण की प्राप्ति कब होगी?’’‘‘सीतेन्द्र! रावण और लक्ष्मण नरकधरा से निकलकर विदेह क्षेत्र मे भाई-भाई होंगे पुनः देव होकर राजपुत्र होंगे पुनः स्वर्ग जायेंगे। तू स्वर्ग से आकर भरत क्षेत्र में चक्ररत्न नाम का चक्रवर्ती होगा तब रावण-लक्ष्मण के जीव वहाँ से आकर इन्द्ररथ और मेघरथ नाम के तुम्हारे पुत्र होंगे। रावण का जीव तीर्थंकर होगा तब तुम अनुदिश से आकर उनके प्रथम गणधर होवोगे और निर्वाण को प्राप्त करोगे।
पुष्कर द्वीप के विदेह क्षेत्र में लक्ष्मण का जीव तीर्थंकर और चक्रवर्ती होकर निर्वाण को प्राप्त करेगा। मैं भी आज से सात वर्ष के बाद निर्वाण धाम को प्राप्त करूँगा।’’ आगामी भवों को सुनकर सीतेन्द्र बहुत ही प्रसन्न हो जाता है। वह पुनः तृतीय नरक में जाकर रावण और लक्ष्मण के जीव को देखता है। शंबूक असुरकुमार देव हुआ था सो वहाँ लक्ष्मण के विरुद्ध प्रेरणा दे देकर रावण को लड़ा रहा है।
सीतेन्द्र कहता है-‘‘रे रे पापी शंबूक! तू यह क्या कर रहा है? अरे देख! वैर का फल कितना कटु होता है? अब तो अधर्म को छोड़ और धर्म की शरण ले।’’ पुनः नारकियों को सम्बोधन करते हुए कहता है- ‘‘अरे नारकियों! धर्म के बिना तुम लोग यहाँ आये हो अतः अब पाप से डरो। जिनेन्द्रदेव के द्वारा कथित सम्यक्त्व को ग्रहण करो।’’ रावण और लक्ष्मण के जीव पूछते हैं- ‘‘आप कौन हैं?’’ सीतेन्द्र कहता है- ‘‘मैं सीता का जीव प्रतीन्द्र हूँ। तुम्हें मैं यहाँ से निकालकर अभी ऊपर ले चलता हूँ।’’
यह कहकर जैसे ही इन्द्र उन दोनों को उठाता है वे नवनीत के समान पिघल जाते हैं पुनः उनका शरीर बन जाता है। जब लाखों उपाय के बाद भी वह इन्द्र उन्हें ऊपर लाने के लिए समर्थ नहीं होता है तब कहता है- ‘‘हे भव्यों! अब यहाँ पर तुम सम्यक्त्व रत्न को ग्रहण करो वही तुम्हें उत्तम गति में ले जाने में समर्थ है। हम तो क्या साक्षात् जिनेन्द्र भी तुम्हें यहाँ से आयु पूरी हुए बगैर अन्यत्र ले जाने के लिए समर्थ नहीं हैं।’’
दोनों नारकी सम्यक्त्व ग्रहण कर लेते हैं और कहते हैं- ‘‘हे देवेन्द्र! जाओ जाओ, तुम स्वर्गों के सुख का अनुभव करो। अब हमें श्री जिनेन्द्रदेव की ही शरण है जब हम यहाँ से निकलेंगे तब जिनदेव कथित धर्म को ही धारण करेंगे।’’ उस समय सीतेन्द्र केवली भगवान् द्वारा कहे गये आगामी भवों को उन्हें सुना देता है और कहता है- ‘‘हे रावण! जो स्त्री मुझे नहीं चाहेगी मैं उसका बलात् उपभोग नहीं करूँगा इस प्रतिज्ञा के निभाने से तूने मेरे साथ बलात्कार नहीं किया था इसी स्नेह से मैं आज यहाँ आकर तेरा हित करने में तत्पर हुआ हूँ।’’
पुनः पुनः लक्ष्मण को सम्बोधन कर उसके गुणों का स्मरण करता हुआ वह देवेन्द्र अपने स्थान को चला जाता है। राम की आयु सत्रह हजार वर्ष की थी और शरीर की ऊँचाई ६४ हाथ प्रमाण थी। मुनि होने के बाद पच्चीस वर्ष पूर्ण होने पर वे योगों का निरोध करते हैं और अघातिया कर्मों का भी अंत करके शाश्वत सिद्धक्षेत्र को प्राप्त कर लेते हैं। वहाँ पर वे अनंत-अनंत काल तक परमानंदमय अव्याबाध सुख का अनुभव करते रहेंगे। भगवान् श्रीरामचन्द्र इस संसार में अब कभी भी पुनर्भव धारण नहीं करेंगे ऐसे महामना श्रीरामचन्द्र का मर्यादाशील आदर्श जीवन सभी पाठकजनों को मर्यादा पालन करने रूप आदर्श-जीवन की चिरकाल तक प्रेरणा देता रहेगा।