जैन मूल संघ के आर्श स्वरूप के दृढ़ स्थितिकरण के महनीय कार्य के सम्पादन हेतु आपका नाम सर्वाेपरि रूप में अत्यन्त विनय के साथ लिया जाता है। कहा भी है,
वन्द्यो विभुर्न भुवि कैरिह कौण्डकुन्दः।
कुन्दप्रभाप्रणयिकीर्त्तिविभूशिताषः।।
यष्चारुचारणकराम्बुजचत्र्चरीकष्
चक्रे श्रुतस्य भरते प्रयतः प्रतिश्ठाम् ।।
दि० जैन सम्प्रदाय में तो प्रत्येक कार्य में उन्हें मंगल रूप में आद्य गुरु मानकर स्मरण किया जाता है।
मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी।
मंगलं कुन्दकुन्दाद्यो जैनधर्मोऽस्तुमगलं ।।
भाव पूर्ण स्तुति ज्ञातव्य है
जास के मुखारविन्द तै प्रकाषभास वृन्द
स्याद्वाद जैन बैन इन्दु कुन्दकुन्द से ।
तास के अभ्यास तैं विकास भेद ज्ञान होत
मूढ़ सो लखै नहीं कुबुद्धि कुन्दकुन्द से ।।
देत हैं असीस सीस नाय इन्द्र चन्द्र जाहि
मोह मारखंड मारतंड कुन्दकुन्द से ।
शाद्ध बुद्धि वृद्धि दा प्रसिद्ध सिद्धि ऋद्धि दा
हुए, न है, न होंहिगे मुनीन्द्र कुन्दकुन्द से ।।
आ० कुन्दकुन्द स्वामी वि० सं० 49 में आचार्य पद पर असीन हुए थे। उन्होंने96 वर्र्श का यषस्वी जीवन जीकर त्याग तपस्या से निग्र्रन्थ श्रमण परम्परा को कायम रखा। दि० जैन धर्म एवं सम्प्रदाय पर उनका महनीय उपकार है। वे किनके षिश्य थे इस विशय में इतिहासज्ञ किसी निषिचित मत पर नही पहुँचे हैं। आ० कुन्दकुन्द ने स्वंय भद्रबाहु श्रतुकेवली को अपने गमक गुरू के रूप में प्रणाम किया है किन्तु श्रुतकेवलीयों के कालचक्रमानुसार भद्रबाहु श्रुतकेवली कुन्दकुन्द की गुरु परम्परा में पूर्व के ही सिद्ध होते है साक्षात् नहीं।
आ० जयसेन स्वामी ने पंचास्तिकाय की तात्पर्य वृत्ति टीका मे उनको कुमार नन्दि सिद्धान्त देव का षिश्य उल्लिखित किया है। नन्दिसंघि में वे जिनचन्द्र के षिश्य उद्घोशित होते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द के पट्टषिश्य तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता आ० उमा स्वामी हुए। आ० कुन्दकुन्द का जन्म तमिलनाडु में पोन्नरमलै के लिए निकट कोण्डकुन्दपुर नामक स्थान में हुआ था। उनके पिता का नाम कर्मण्डु एवं माता का नाम श्रीमती था। कहा जाता है कि आपने 8 वर्श की आयु में ही दीक्षा ले ली थी एवं जन्म से ही वस्त्र धारण नहीं किये थे। माता की धार्मिक वृत्ति एवं पुत्र को उनकी षिक्षा ही इसका कारण सम्भवतः रही होगी।
आ० कुन्दकुन्द, पद्मनन्दी, वक्रग्रीवाचार्य, एलाचार्य और गृद्धपिच्छाचार्य नामों से विख्यात है। इनका मूल नाम पद्मनन्दी था। जन्मस्थान के नाम से इन्हेंे कुन्दकुन्द संज्ञा प्राप्त हुई होगी। अकाल स्वाध्याय के फलस्वरूप ग्रीवा टेढ़ी हो जाने के कारण इन्हें वक्रग्रीव कहा गया। किंवदन्ति के अनुसार विदेह गमन में वहाँ की अपेक्षा अतिलघुकाय होने के कारण एलाचार्य प्रसिद्धि मिली पिच्छिका गिरने पर विवषता में अपवाद स्वरूप गृद्धपिच्छ धारण के कारण गृद्धपिच्छ नाम पड़ा। उमास्वामी को भी यह संज्ञा गृद्धपिच्छ के षिश्य होने के परिणाम स्वरूप मिली होगी।
कुन्दकुन्द का युग संक्रमण का युग था। आ० भद्रबाहु के समय के लगभगअकाल स्थिति के कारण कुन्दकुन्द से पूर्व से ही मूलसंघ के विकार के रूप में “वेताम्बर सम्प्रदाय स्थापित हो चुका था। जिसने आगम में तोड मरोड़, न्यूनाधिकता चारित्र में षिथिलता व परिर्वतन एवं सरलीकरण प्रयास के रूप में ही जन्म लिया था। स्थिति पालन के नाम पर मूल संघ को ही परिवर्तित करने का दुस्साहस किया था। मगधाधिपति नन्द के मंत्री “शाकटार के पुत्र स्थूलभद्र ने यथा तथा शाघ्रता में बिना सम्यक् विचार किये इसका सूत्रपात किया था। तत्कालीन परिस्थिति से ऐसा उद्भासित होता था कि भगवान महावीर की निश्परिग्रह निग्र्रन्थ श्रमणत्व की मूल परम्परा कहीं विच्छिन्न ही न हो जावे। यथार्थ मुनि एवं आचार्य अपनी साधना में लीन रहकर मात्र आत्म कल्याण तक सीमित हो गये थे। उनकी संख्या भी अति न्यून हो गयी थी नग्न दि० साधुओं में काल दोश से अनिवार्य षिथिलता, भ्रश्टता और ज्ञान शान्यता आदि का बोलबाला था। पाष्र्वस्थ, कुषील, संसक्त, अवसन्न औैर मृगचारी (स्वछन्द) श्रमणाभासों के ही दर्षन होते थे। मूलसंघ का विघटन हो रहा था।
आ० कुन्दकुन्द ने परिस्थिति का सम्यक् अवलोकन कर मूलसंघ को यथावस्थित रखने के लिए प्रथमतः “वेताम्बरों के बढ़ते प्रभाव को नश्ट करने हेतु मूल आगम पर आधारित समीचीन साहित्य की रचना की1। “ाास्त्रार्थ में “वेताम्बरों को यथायथं मन्त्र तन्त्र का अवलम्बन भी लेकर पराजित किया। गिरनार पर्वत पर घटित वाद का निश्कर्श निकला कि मूल (दिगम्बर) श्रमण धर्म ही परमार्थ धर्म है। कालान्तर में मूलसंघ ही दिगम्बर मुनिसंघ कहलाने लगा।
कुन्दकुन्द ने तत्कालीन परिस्थिति को देखकर खंडनात्मक ओर सृजनात्मक दोनों उपायों को अपनाया। चरित्रभ्रश्ट सम्यक्त्व शान्य विकृतवेष बनाने वालों तथा उन्मार्ग की प्रवृत्ति वालों की मान्यताओं का दृढ़ता से खण्डन किया तथा व्यवहार धर्म की यथार्थ व्यवस्था दी। व्यवहाराभास एवं निष्चयाभास के विरुद्ध अनेकान्त के सजग प्रहरी के रूप में वे खड़े रहे। वे बड़े पुण्यात्मा, उत्कृश्ट तपस्वी, आगमवेत्ता, सिंहवृत्ति, आचार्यत्व के धनी, रत्नत्रय के श्रेश्ठ आधार, दृढ़ आचारी एवं प्रखर प्रतिभावान् थे। परम्परा किवदन्तियों के आधार पर वे चारण ऋद्धिधारी, विदेह में सीमन्धर भगवान् के मुखारविन्द से धर्म श्रवण करने वाले निकट भव्य जीव हैं।
जैनाभासों को यथार्थ रूप में दीक्षित और षिक्षित कर उनका स्थितीकरण करके मार्ग परिवर्तन करने वालों को प्रायष्चित्त के द्वारा परिश्करण कर पूनः मूलसंघ में स्थापित कर उन्होंने दिगम्बरत्व के स्वर्ण युग का पुनः सूत्रपात किया। वे मूलसंघ के उद्धत्र्ता के रूप में प्रसिद्ध हुए। उनके द्वारा परिश्कृत यथार्थ भावलिंग परिवेष को स्वीकार करने वाले महामुनिराजों की संख्या लगभग पाँच हजार तक पहुँच गई। श्रमण परम्परा को सुदृढ़ करने के साथ ही उन्होंने जो अन्य आवष्यक कार्य किया वह है जैनेतर बौद्ध, नैयायिक, सांख्य, वेदान्त आदि की ऐकान्तिक मान्यताओं का निरसन। उस समय बौद्धों का अधिक बोलबाला था। उन्होंने उनकी क्षणिकवाद, शान्यवाद की मान्यताओं को खण्डित कर भगवान् महावीर के सापेक्ष उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक वस्तु स्वरूप की प्रतिश्ठा की। सांख्यमत की सर्वथा नित्यवाद परिकल्पना को भी उन्होंने निरसित किया। जैनमतावलम्बियों मे भी सांख्यमत के प्रवेष पर उन्होंने तीखे प्रहार कर अनेकान्त की स्थापना की। समयप्राभृत में अतिम सर्व विषुद्ध ज्ञानाधिकार में इन दार्षनिक विशयों का उल्लेख किया है। वहाँ पठनीय है। वहाँ उन्होंने एक ओर व्यहाराभासियों को व्यवहार की अभूतार्र्र्थता का उपदेष दिया वहाँ एकान्त निष्चयाभासियों को व्यवहार की भूतार्थता का उपदेष दिया। उनका नयविवेचन व्यवहार-निष्चय सापेक्ष है एकान्त नहीं।
कुन्दकुन्द ने ग्रन्थ रचना मुख्यतः श्रमणों को लक्ष्य में रखकर की है उनके सभी ग्रन्थ इसके प्रमाण हैं। चारित्र पाहुड में उन्होने केवल श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं रूप देषसयंमाचरण का नाम भर लिया है। रणयसार में कतिपय संक्षिप्त विशयों का ही वर्णन किया है। इसका अर्थ यह नहीं है कि श्रावकों को उनके ग्रन्थ का अध्ययन ही नहीं करना चाहिए। परन्तु सावधानी बरतनी चाहिए कि यह निष्चय कथन परमभाव दर्षियों हेतु है। उनका अध्यात्म परहेज (व्यवहार धर्म) का अपेक्षी है।
विशय-कशाय में लिप्त, आकण्ठ भागों में डूबे प्राणी एवं तत्वज्ञान के अनभ्यासी लोग यदि उनके निष्चय प्रमुख उपदेष को पढ़ते सुनते है तो प्रायः स्खलित औेर भ्रमित होकर व्यवहार धर्म अथवा पुण्य को सर्वथा हेय जानकर कुगति के पात्र होते है। पूज्य आर्यिका ज्ञानमती माता जी ने भी नियमासार प्राभृत की प्रकृत ‘स्याद्वाद चन्द्रिका’ टीका में पाठकों को पद-पद पर सावधान करने हेतु स्याद्वाद का प्रयोग किया है।
आ० कुन्दकुन्द विषाल वाङ्मय के सृश्टा हैं। कहा जाता है कि उन्होंने 84 पाहुड ग्रन्थों की रचना की थी। द्वादषांग श्रुत के अंतर्गत पाहुड शाब्द अधिकार या अध्याय का वाचक है। यह बृहत्काय होता है। आ० कुन्दकुन्द स्वामी ने तत्तत् नाम वाले प्राभृतों में गौतम स्वामी द्वारा रचित प्राभृतों का ही विशय संक्षेप से वर्णित किया है ऐसा जान पड़ता है। इससे सिद्ध है कि कुन्दकुन्द के साहित्य का सीधा सम्बन्ध द्वादषांग श्रुत है। वे अग्रायण्ीय पूर्व के विषद ज्ञाता थे। साथ ही परिकर्म विशयक उनको विषिश्ट ज्ञान था जो परिकर्म टीका रचना से ज्ञात होता है। परिकर्म दृश्टिवाद नामक बाहरवें के अंतर्गत 14 पूर्वों से अतिरिक्त है। उनके 84 पाहुड वर्तमान में उपलब्ध नहीं हैं। पूरे नाम भी ज्ञात नहीं हैं, अन्य परवर्ती आचार्र्या ने उनके कतिपय प्राभृतों का उल्लेख किया है श्रुतसागर सूरि, जो उनके साहित्य के तलस्पर्षी विद्वान थे, ने शाट् पाहुड की टीका में अनेक ग्रन्थान्तरों का नामोल्लेख किया है। आ० कुन्दकुन्द की उपलब्ध ज्ञात एवं प्रचलित रचनायें निम्न है।
1. समय प्राभृत
2. प्रवचनसार
3. पंचास्तिकाय
4. नियमसार
5. रयणसार
6. बारस अणुवेक्खा
7. दर्षन पाहुड
8. चारित्र पाहुड
9. सूत्र पाहुड
10.बोध पाहुड
11.भाव पाहुड
12.मोक्ष पाहुड
13.लिंग पाहुड़
14.शाल पाहुड
15.दषभक्ति
16.शाट् खण्डागम प्रथम तीन खंड पर परिकर्र्म टीका
17.मूलाचार
18.कुरल काव्य ।
परिक्रम के अंषों को आ० वीरसेन स्वामी ने अपने धवलादि ग्रन्थों में उद्धृत किया है अतः यह अल्प अंषमात्र रूप में ही उपलब्ध है। यह बृहत्काय टीका रही होगी जो अनुपलब्ध है। इन्द्रनन्दि आचार्य ने भी इसका उल्लेख श्रुतावार में किया
है। कतिपय अन्य परवर्ती आचार्य भी परिकर्म से परिचित थे। डा० लाल बहादुर शास्त्री ने अपने शाध प्रबन्ध कुन्दकुन्द और उनका समयसार में निम्न उपयोगी वर्णन प्रस्तुत किया है जो अवष्य पठनीय है।
”डा० ए० एन० उपाध्ये ने कुन्दकुन्द कृत जिन अन्य पाहुड ग्रन्थों का पता लगाया है उनके नाम क्रमषः निम्न प्रकार है।
”1. आचार पाहुड
2. आलाप पाहुड
3. अंग पाहुड
4. आराधना पाहुड
5. बन्ध पाहुड
6. बुद्धि पाहुड या बोधि पाहुड
7. चरण पाहुड
8. चूर्णि पाहुड
9. चूलि पाहुड
10. दिव्य पाहुड
11. द्रव्य पाहुड
12. दृश्टि पाहुड
13. एयंत पाहुड
14. जीव पाहुड
15. जोणि पाहुड
16. कर्म विपाक पाहुड
17. कर्म पाहुड
18. क्रियासार पाहुड
19. क्षपण पाहुड
20. लब्धि पाहुड
21. लोप पाहुड
22. नित्य पाहुड
23. नय पाहुड
24. नोकम्म पाहुड
25. पंच वर्ग पाहुड
26. पयद्ध पाहुड
27. पय पाहुड
28. प्रकृति पाहुड
29. प्रमाण पाहुड
30. सलगी पाहुड
31. संस्थान पाहुड
32. समवाय पाहुड
33. सद्दर्षन पाहुड
34. सिद्धान्त पाहुड
35. सिक्खा पाहुड
36. स्थान पाहुड
37. तथ्य पाहुड
38. तोप पाहुड
39. उत्पाद पाहुड
40. ओघान पाहुड’
41. विद्या पाहुड’
42. वस्तु पाहुड’
43. विहिय या विह्य पाहुड ।“’
प्रस्तुत पाहुडों के कुछ नाम अषुद्ध ज्ञात होते है। संस्कृत, प्राकृत से विरुद्ध जान पड़ते हैं सम्भव है प्रतिलिपि होते अषुद्ध हो गये। ये पाहुड सब कुन्द-कुन्द कृत हैं तथा नाम के अतिरिक्त अस्तित्व भी था या नहीं इस सबका कोई प्रमाण नहीं पाया जाता। कुन्द-कुन्द के टीकाकारों या अन्य पष्चात् काल के आचार्यों ने कहीं कोई इनका उल्लेख नहीं किया। यह खोज का एक विशय है।
आ० कुन्दकुन्द चारों अनुयोगों के अधिकारी विद्वान थे। उनका तत्समयोपयोगी एवं प्रिय विशय अध्यात्म था। उन्होंने श्रमणों को षुद्धनय की ओर प्ररित किया है। फिर भी वे ज्ञान प्रधान क्रिया के पोशक अवष्य थे। बाह्य परिग्रह के त्याग के बिना मोक्ष पद की प्राप्ति का हेतु पूर्ण त्याग तभी सम्भव है जबकि बाह्य में नग्नता हो। ज्ञान और क्रिया का समन्वय ही उन्हें स्वीकार था।
आचार्य कुन्दकुन्द के विशय में प्रस्तुत स्याद्वाद चन्द्रिका में टीकाकत्र्री ने निम्न विचार व्यक्त किये उनको उद्धृत करना अनुपयोगी न होगा।
”हिन्दी अनुवाद – श्री कुन्दकुन्द देव ने समयसार-प्राभृत-नियमसार प्राभृत आदि चैरासी प्राभृत ग्रन्थ रचे हैं तथा ‘शाट्खण्डागम सूत्र ग्रन्थ राज के आदि के तीन खण्डों पर ‘परिकर्म’ नाम से भाश्य रचना भी की है ऐसा वर्तमान के विद्वान मान रहे हैं। ये आचार्य देव बहुत बड़े चतुर्विध संघ के अधिनायक आचार्य थे। इन्होंने अपने पट्ट पर श्री उमास्वामी को स्थापित किया था। ऊर्जयन्त पर्वत की यात्रा में “वेताम्बरों के साथ वाद विवाद हो जाने पर आपने अपने प्रभाव से पाशाण से बनी हुई अम्बिका देवी को बुलवाया था। यह सब गुर्वावली के प्रकरण से जाना जाता है। इससे यह निष्चय होता है कि ये आचार्य छः मूहत्र्त से अधिक काल तक भी एक साथ ग्रन्थ रचना करते होगे। और छठे-सातवें गुण स्थान का काल अन्तमुहत्र्त ही है। इसलिए ग्रन्थ लिखते हुए भी आचार्य को अपने आत्मा के अभिमुख होने से हुआ स्वसंवेदन लक्षण निज शाद्ध आत्मतत्व का सविकल्प ध्यान होता ही रहता था।“ (गाथा 187 पृश्ठ 543)